मगध के पुरावशेषों में बस्तर की तलाश!!

 राजीव रंजन प्रसाद

राजीवजी कई गुणों के समुच्‍चय हैं। रंगकर्मी। नाटककार। कवि। उपन्‍यासकार। और सबसे बढ़कर एक जिंदादिल इंसान। पिछले दिनों उनका नाम चर्चा में तब आया जब उन्‍होंने एक उपन्‍यास लिखा – ‘आमचो बस्‍तर’। यह उपन्‍यास रचकर उन्‍होंने बस्‍तर में कुछ वर्षों से डेरा जमाए हिंसक विचारधारा के अनुयायियों द्वारा छल-प्रपंच के बूते अराजकता फैलाए जाने पर करारा प्रहार करते हुए अदम्‍य साहस का परिचय दिया है। राजीवजी को राष्‍ट्रीय विरासत से लगाव है। पिछले दिनों उन्‍होंने मगध में सांस्‍कृतिक प्रवास किया। इस दौरान उन्‍होंने एक महत्‍वपूर्ण काम किया कि यात्रा संस्‍मरणों को फेसबुक पर लिपिबद्ध भी करते गए और इससे संबंधित तस्‍वीरें भी अपलोड करते गए। हमने भी इसे बड़े चाव के साथ पढ़ा। लेकिन यह ख्‍याल नहीं आया कि इन संस्‍मरणों से और भी लोगों को परिचित कराया जाए। इस ओर हमारा ध्‍यान दिलाया मित्रवर पंकज झा ने। उन्‍होंने कहा कि इसे ‘प्रवक्‍ता’ पर प्रकाशित करने से अच्‍छा रहेगा। हम उनसे सहमत हुए। इस बीच राजीवजी ने वादा किया कि इस संस्‍मरण शृंखला की 15 कडि़या हैं और वे नियमित तौर पर इसे प्रवक्‍ता पर प्रकाशनार्थ भेज देंगे। सो, प्रस्‍तुत है प्रथम कड़ी (सं.) :  

[यात्रा वृतांत – भूमिका]

एक छोटा सा शोध विषय ले कर बिहार पहुँचा हूँ। एक समय के समृद्ध शासकों का दौर और तत्कालीन बस्तर से उनके राजनीतिक सम्बन्ध पर हो सकता है कोई सूत्र, कोई संदर्भ या कोई एसी शिला ही मिल जाये जो मुझे देख कर कहे कि आओ मैं देती हूँ तुम्हारे सवालों के जवाब!! बस्तर पर बहुत काम हुआ है और मैं शायद ही उन संदर्भों में कुछ नया जोड सकूं लेकिन पंक्तियों के बीच पढते हुए कई सवाल कुलबुलाते रहे जिन्हें मैने अपनी डायरी में उतार लिया है। उनके जवाब तो तलाशूंगा ही और उसके लिये पाटलीपुत्र के पुरावशेषों से मिलने का कार्यक्रम है कल से – राजगीर, नालंदा, वैशाली और बोध गया तो निश्चित ही। पटना में हृषिकेश जी से भी मिलूंगा इसी दौरान..।

इस पोस्ट के साथ लगी हुई तस्वीर भागलपुर के निकट अवस्थित प्राचीन विश्वविद्यालय विक्रमशिला की है। यहाँ तक पहुँचने के मार्ग नें मायूस लिया था तथापि इस धरोहर के संरक्षण के प्रयासों से आंशिक संतोष मिला। दुर्भाग्य वश स्थानीय लोगों में इस धरोहर के प्रति बहुत ललक देखने को नहीं मिली। यहाँ अवस्थित मुख्य भवन, छात्रावास के अवशेष, कक्षायें आदि आदि के भग्नावशेषों को देख कर गर्व किया जा सकता है कि यह हमारी भारतभूमि की थाती रही है।

जहाँ कभी विक्रमशिला का पुस्तकालय था वह स्थान मनोहारी है तथा आज के विश्वविद्यालयों को अभी भी शिक्षा के मायने सिखाने में सक्षम है। आम का एक वृहत बागीचा जहाँ स्थान स्थान पर अध्येताओं को बैठने, मनन-चिंतन और विमर्श करने के स्थल साथ ही संदर्भ एकत्रित रखने के भवन के अवशेष यह बताते हैं कि हमने अपनी अध्ययन परम्परा को खो कर शायद अपना ही सर्वाधिक नुकसान किया है और महज किताबी कीट हो गये हैं। हमने अपनी जडों से अपने पाँव खींच लिये हैं इस लिये ही अपनी धरोह्जरों को खंडहर कहते हैं और उनकी उपेक्षा पर ग्लानि भी महसूस नहीं करते।

यह मुलाकात एक अविस्मरणीय संस्मरण बन गयी।

[यात्रा संस्मरण, भाग – 1]

सुबह-सुबह रिम झिम बरसती बरखा नें एक बार कार्यक्रम पर पुनर्विचार करने की स्थिति ला दी थी। साथी अनुज जी के साथ उनकी बाईक पर ही निकल पडा। पटना शहर से लगभग सौ किलोमीटर से कुछ अधिक की दूरी पर अवस्थित हैं नालंदा के खण्डहर। पटना वुमेंस कॉलिज की बिल्डिंग से कुछ आगे निकलते दुर्घटना हो गयी। एक बाईकसवार नें गलत साईड से ओवरटेक किया और टकराने की स्थिति से बचने की कोशिश में तथा बारिश के कारण गीली सडक होने के कारण अनुज जी का संतुलन बिगडा और हम दोनो मय-सामान के सड़क पर। हल्की चोटे हैं थोडा कमर में दर्द भी है लेकिन कपडे झाड कर हम आगे बढ गये।

बिहार शरीफ पहुँने से लगभग पाँच-छ: किलोमीटर पहले ही चाय पीने के लिये छोटी सी दूकान पर रुका जिसे एक वयोवृद्ध चला रहे थे। चाय पीते पीते गंगा नदी और उसकी पवित्रता से बात शुरु हुई। थोडी ही देर में एक अन्य बुजुर्ग श्रोता भी इस चर्चा में सम्मिलित हो गये तथा अब बात राजगीर के उस इतिहास की होने लगी जिसमें से अधिकांश को आप जनश्रुतियाँ कह् कर वर्गीकृत करेंगे। एक बार लाला जगदलपुरी जी नें किसी चर्चा के दौरान कहा था कि जनश्रुतियों और मौखिक इतिहास को अनदेखा मत करना अन्यथा सत्य तक पहुँचने की किसी महत्वपूर्ण कडी को छोड दोगे। आज भी यही बात सत्य सिद्ध हुई क्योंकि गंगा से चर्चा जरासंध तक पहुँची थी चूंकि राजगीर में उनका अखाडा और खजाना होने जैसी मान्यतायें भी विद्यमान हैं। फिर पुरानी जमीनदारी व्यवस्था पर बात चल निकली कि यह इतना उर्वरा क्षेत्र है कि एक समय चार जमीन्दारों में यहाँ से वसूल लगान का पैसा बटता था। एक एक और दो दो पैसों के चलन की अर्थव्यवस्था के युग में भी यहाँ से लाख रुपये से अधिक की आमद होती थी। बहुत सी बाते हुईं और इस बीच चर्चा को विराम न लगे इस लिये मैं तीन कप चाय भी पी गया था। यह पीढी अपने अनुभवों से भरी हुई है, वे मुक्त हृदय से हमें और हमारी संततियों को अपना अब तक का अर्जित दे देना चाहते हैं। आवश्यकता बस उन्हें अपनी ही धुन में बोलने देने भर की है फिर अगर आपमें क्षमता है तो बटोर लीजिये यह अमूल्य निधि। जब “आमचो बस्तर” पर काम कर रहा था तब बहुत से सवाल एसे थे जिनके उत्तर पाने की जिज्ञासा में जिस भी चेहरे की ओर देखता अधिकांश डरकर मुँह फेर लेते थे। मुझे वहाँ भी बुजुर्ग आदिवासी पीढी ने ही सबसे अधिक सहयोग दिया था। उनकी बातों से ही मेरे उपन्यास की बहुत सी लघुकथायें बन पडी हैं।…..।

जब चलने लगा तो बुजुर्ग दूकानदार नें पैसे लेने से इनकार कर दिया। बहुत मुश्किल से उनको पैसे थमाये तो कुछ क्षण वे मेरा हाँथ थाम कर खडे ही रहे। मैंने उनके नाम नहीं पूछे और वे मेरा नाम नहीं जानते; मैं यह भी जानता हूँ कि दुबारा हमारी मुलाकात शायद ही हो लेकिन आत्मीयता के उस स्पन्दन को कभी नहीं भूल पाउंगा। बहुत कुछ पाया मैंने इन पलों में।

विरासत है, तुम्हारी जागीर नहीं है।

क्रमश:

3 COMMENTS

  1. भूमिका और यात्रा सस्मरण भाग १ बहुत ही रोचक और विचारणीय है.लगता है कि राजीव जी आगे बहुत ज्ञान वृद्धि कराएँगे.मुझे तो यह सब पढ़ कर महात्मा गांघी की याद आने लगती है.उन्होंने कहा था कि भारत का विकास करना है तो गावों से आरम्भ करो.लोग कहेंगे कि कहाँ हमारी पुरातन सभ्यता और संस्कृति के बात हो रही हैं और कहाँ विकास की बात छिड़ गयी.मेरा इतना ही कहना है कि अगर विकास गावों से आरम्भ होता तो इन धरोहरों और उससे जुड़े इतिहास की भी याद आती और ये सब हमारी प्रेरणा स्रोत होते.
    राजीव जी ने बहुत अच्छी यात्रा प्रारंभ की है और उम्मीद है कि संस्मरण की इस श्रृंखला के द्वारा हमारे इतिहास के उन अछूते पृष्ठों को हमारे समक्ष लाते रहेंगे,जो विस्मृति के गर्भ में दाखिल होते जा रहे हैं.

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