प्रगतिशील समाज के निर्माता थे भगवान परशुराम

0
717

भगवान परशुराम जयंती 3 मई के अवसर पर:-

प्रमोद भार्गव

प्रगतिषील समाज निर्माण का दायित्व उन लोगों के हाथ होता है, जिनकी मुट्ठी में सत्ता के तंत्र होते हैं। अतएव जब परशुराम के हाथ सत्ता के सूत्र आए तो उन्होंने समाजिक उत्पीड़न झेल रहे शूद्र  , वंचित और विधवा महिलाओं को मुख्यधारा में लाकर उल्लेखनीय काम किए। केरल-कोंकण की भूमि पर शूद्र   और वनवासियों के यज्ञोपवीत संस्कार कराकर उन्हें ब्राह्मण होने के दायित्व से जोड़ने और फिर सामूहिक रूप से अक्षय तृतीया के दिन  विवाह कराए। ये विवाह उन विधवा महिलाओं से भी कराए गए, जो परशुराम और सहस्त्रबाहू अर्जुन के बीच हुए युद्ध में विधवा हो गईं थीं। वे परशुराम ही थे, जिन्होंने वनवासी श्रृंगी ऋषि  से दषरथ की पुत्री और भगवान श्रीराम की बहन शांता से विवाह कराया। राम भी शूद्र   माने जाने वाले वनवासी वानरों को मुख्यधारा में लाए। उन्होंने सभी वर्जनाओं को तोड़ते हुए शूद्र   महिला शबरी के जूठे बेर खाने में कोई संकोच नहीं किया। देश  की वर्गीय व जातीय विभाजन को दूर करने के ये ऐसे उपाय थे, जिनसे प्रेरणा लेकर हमें हमारे दलित भारतीयों को जातीयता से ऊपर उठकर अपनाने की जरूरत है। किंतु इसे देष का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज जातीय समूह और नेता तात्कालिक स्वार्थ के लिए जातिगत भेदभाव बढ़ाने का काम कर रहे हैं। यह द्वेश्य समाज को खंड-खंड करने का काम कर रहा है।

हमारे धर्म ग्रंथ और कथावाचक ब्राह्मण भारत के प्राचीन पराक्रमी नायकों की संहार से परिपूर्ण हिंसक घटनाओं के आख्यान तो खूब सुनाते हैं, लेकिन उनके समाज सुधार से जुड़े जो क्रांतिकारी सरोकार थे, उन्हें लगभग नजरअंदाज कर जाते हैं। विष्णु के छठे दशावतारों में से एक भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटनाओं को खूब प्रचारित करके वैमन्स्यता फैलाई जाती है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में प्रेरक आख्यान बनाकर सुनाया जाता है। यहां यह सवाल खड़ा होता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रूप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्या हैह्य वंश के प्रतापी महिष्मति कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। कृष्ण-बलराम जब मथुरा छोड़कर द्वारका जा रहे थे, तब महेंद्र पर्वत पर परशुराम से आषीर्वाद लेकर आगे बढ़े थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे। राम को वैश्णवी धनुश परशुराम ने ही भेंट किया था। परशुराम ने क्षत्रियों का नहीं बल्कि 21 क्षत्रिय राजाओं को क्षत्रविहीन किया था। अर्थात उन्हें सत्ता से बेदखल किया था।

समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका है। केरल, कच्छ और कांेकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने में भी किया। यहीं परशुराम ने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राह्मण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया। परशुराम के अंत्योदय के प्रकल्प अनूठे व अनुकरणीय हैं। जिन्हें रेखांकित किए जाने की आवष्यकता है।

वैसे तो परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना कठिन है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ‘अष्टादश परिवर्तन युग’ के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 ईसा पूर्व का समय ऐसे संक्रमण काल के रूप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्य अर्जुन का वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना गया। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगूरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणामस्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्ट होकर सहस्त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन ने आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम सेना सहित पहुंच गए। ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्वरुप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित छीनकर ले गया।

अनेक ब्राह्मणों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं कीं, जो हैह्य वंद्रवंषियों के विरोधी थे। वाकचातुर्य और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंषियों ने समर्थन दिया। रघुवंषी राजा दशरथ और राजा जनक ने भी परशुराम को अपनी सेनाएं दीं। परशुराम किसी सत्ता के अधिपति नहीं थे, इसलिए सेनाएं और अस्त्र-शस्त्र उनके पास नहीं थे। इन्हीं राजाओं ने सेनाएं और हथियार परशुराम को दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

इसमें परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज ;कन्नौज के गाधि चंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान)  मुंजावत ; हिन्दुकुश, मेरु (पामिर) ;सीरिया (परशुपुर) पारस, वर्तमान फारस, सुसर्तु ;पंजक्षीर उत्तर कुरु, आर्याण ; (ईरान) देवलोक सप्तसिंधु और अंग-बंग ;बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गईं क्षत्रिय जातियां चेदि; चंदेरी नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए, युद्ध में सहस्त्रबाहू अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। परशुराम ने किसी भी राज्य को क्षत्रियविहीन न करते हुए, क्षत्र-विहीन किया था। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए, जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंषियों का तर्पण किया। इस विश्वयुद्ध का समय 7200 विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।

इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्प हाथ में लिए। केरल, कोंकण, मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि, वरुण और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और वरुण व इन्द्र को जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाऊ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूत्र्त के शुभ दिन माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र है, जहां परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं।

प्रमोद भार्गव

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here