स्वाध्याय की समाप्त होती प्रवृत्ति से जीवन में हानि ही हानि

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मनमोहन कुमार आर्य

स्वाध्याय सद्ग्रन्थों के अध्ययन को कहते हैं। स्वाध्याय शब्द के अनेक अर्थ स्वीकार किये जा सकते हैं परन्तु स्वाध्याय का मुख्य अर्थ वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन व अनुशीलन ही है। वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन से मनुष्य को वेद के महत्व का ज्ञान होता है। वेदों में जिन विषयों का उल्लेख है उनका भी स्वाध्याय करने से ज्ञान होता है और ऐसा करके मनुष्य वैदिक मान्यताओं, विचारधारा व सिद्धान्तों से परिचित हो जाता है। उसके सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। स्वाध्याय करने वाला मनुष्य अज्ञान व अन्धविश्वास में फंसता नहीं है। वह जानता है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार व सर्वव्यापक है, अतः स्वाध्यायशील मनुष्य अवतारवाद, मूर्तिपूजा तथा मिथ्या पूजा से बच जाता है और निराकार ईश्वर की योगोपासना विधि से ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता है। ऐसा करके उसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो अन्य किसी प्रकार से प्राप्त नहीं होते। स्वाध्याय करने वाले मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती है। उसको ईश्वर का सहाय प्राप्त होता है। वह स्वास्थ्य के नियमों व्यायाम व योगाभ्यास को करता है। इसके साथ पौष्टिक आहार का समय पर अल्प मात्रा में सेवन कर स्वस्थ एवं दीर्घजीवी बनता है। अतः स्वाध्याय नित्य करने की वस्तु है। इसका अनाध्याय करना अपनी हानि करना है। यदि मनुष्य प्रतिदिन 1 घंटा भी स्वाध्याय करे तो ऐसा करके अनुमानतः वह किसी ग्रन्थ के 12 पृष्ठ तो प्रतिदिन पढ़ ही सकता है। अधिक समय स्वाध्याय कर इससे अधिक भी पढ़ सकता है। इससे ज्ञात होता है कि वह एक महीने में 360 पृष्ठ और एक वर्ष में 4320 पृष्ठ पढ़ लेगा। इसका अर्थ हुआ कि एक वर्ष में ऋषि दयानन्द जी के समस्त व अधिकांश साहित्य को पढ़ा जा सकता है। ऐसा होने पर मनुष्य आर्य विद्वान व वैदिक विद्वान बन सकता है व इन सम्मानजनक शब्दों से सम्बोधित किया जा सकता है। इसके विपरीत आज के समय में आधुनिकता के कारण मनुष्य स्वाध्याय से दूर हो गया है। वह वर्ष में स्वाध्याय की उत्तम पुस्तकों में से किसी एक पुस्तक का भी अध्ययन नहीं करता। कई युवा पीढ़ी के लोग हर सप्ताह चलचित्र देखते हैं। महीनों में कई घंटे क्रिकेट का मैच देखने या टीवी कार्यक्रमों में व्यतीत कर देते हैं। कईयों को अनावश्यक इधर उधर घूमने का शौक होता है। उनका समय इस प्रकार से नष्ट होता जाता है। इसी को अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना कह सकते हैं। जिस समय का उपयोग कर मनुष्य विद्वान होकर सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकता है, उस समय का सदुपयोग न कर वह इन्द्रिय सुख के लिए भटकता है और अपने जीवन को अनावश्यक कार्यों में लगाकर अपनी अपूरणीय हानि करता है। अतः सभी मनुष्यों को स्वाध्याय का महत्व जानकर प्रतिदिन कम से कम एक घंटा स्वाध्याय में अवश्य लगाना चाहिये।

 

आज का युग विज्ञान का युग है। पूर्व काल में भारत एक कृषि प्रधान देश होता था। मनुष्य के पास अधिक काम व व्यस्ततायें नहीं होती थीं। इस कारण उसे अपनी निजी आध्यात्मिक व सामाजिक उन्नति के लिए अधिक समय मिल जाता था। आज का मनुष्य प्रातः उठ कर अपनी रूचि के कार्यों व व्यवसायिक कार्यों में लग जाता है और रात्रि 11 बजे के बाद ही विश्राम करता है। उसके पास न तो स्वाध्याय के लिए समय है और न उसकी  सन्ध्योपासना आदि में रूचि। जब उसे इनका महत्व ही नहीं पता तो वह यह कार्य करेगा ही क्यों? सत्संग व विद्वानों की संगति का समय भी उसे अपनी व्यस्त जिन्दगी में नहीं मिलता। बहुत से लोग ऐसे भी हैं कि जिन्हें रात को जागकर काम करना और दिन में सोना पड़ता है। आजकल जो नये स्मार्ट मोबाइल फोन आ गये हैं उनमें फेस बुक, व्हाटशाप और नैट आदि की सुविधा होने से आज की युवा व प्रौढ़ आयु की पीढ़ी का काफी समय उसमें व्यतीत हो जाता है। ऐसा लगता है कि विज्ञान ने मनुष्य के जीवन को आवश्यकता से कहीं अधिक व्यस्त बना दिया है और उसके सुख व चैन का हरण कर लिया है। ऐसी स्थिति में उसे अपने कार्यों की ऐसी तालिका तैयार करनी चाहिये जिसमें वह अपने सभी आवश्यक कार्यों को भी करे और स्वाध्याय और ईश्वरोपासना आदि कार्यों के लिए भी समय निकाले। ऐसा करके ही वह स्वस्थ भी रहेगा ओर आध्यात्मिक ज्ञान से भी युक्त हो सकता है। इससे उसे जीवन में लाभ होगा और वह किसी एक ही अनावश्यक कार्य में अधिक समय व्यतीत नहीं करेगा।

 

आजकल संसार में नाना मत-मतान्तर व अनेक धर्मगुरु हैं जिनके व्यामोह में फंस कर मनुष्य अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। मनुष्य को किसी भी मत विशेष में न फंसने व किसी गुरु के आकर्षण का शिकार न होकर उसे इन सबसे बचना चाहिये और अपना अधिक समय स्वाध्याय पर केन्द्रित करना चाहिये। हम जिस जिस मत में जन्में हैं उसका समस्त धार्मिक वा आध्यात्मिक साहित्य अवश्य पढ़े। इसके साथ ही हमें अन्य मतों का साहित्य भी पढ़ना चाहिये ओर ऐसा करते हुए वैदिक साहित्य के अन्तर्गत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, संस्कारविधि एवं ऋषिकृत वेदभाष्य सहित दर्शन, उपनिषद आदि ग्रन्थो का अध्ययन भी करना चाहिये। ऐसा करने से हम व अन्य सभी मत-मतान्तरों की यथार्थ स्थिति एवं संसार के वास्तविक रहस्यों को जान सकेंगे। स्वाध्याय से स्वाध्यायकर्ता को अपने जीवन के उद्देश्य को जानने के साध उस उद्देश्य को प्राप्त करने के साधनों का ज्ञान भी होगा। इस प्रकार से ज्ञान होने पर वह योग दर्शन निर्दिष्ट साधना कर अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो किसी मत विशेष में बने रहकर एक प्रकार से कूप मण्डूक ही कहे जायेंगे। महर्षि दयानन्द ने वेदों का गहन गम्भीर अध्ययन करने के बाद सभी प्रमुख मतों का भी अध्ययन किया था और अन्यों को लाभ प्रदान करने के लिए प्रायः सभी मतों की समालोचना वा समीक्षा की। यह समालोचना सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होती है। सभी जिज्ञासुओं को पूरा सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिये जिसमें इसके 11 से 14 तक के समुल्लासों के समीक्षात्मक भाग भी सम्मिलित हैं। यदि स्वाध्याय करने पर भी उनके भ्रम दूर न हो तो आर्यसमाज के विद्वानों से शंका समाधान करना चाहिये। हमारा अनुमान है कि यदि कोई सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन कर ले तो उसकी सभी शंकाये और भ्रम दूर हो जाते हैं और वह सच्चा मनुष्य बन जाता है जो कि अन्य किसी प्रकार से बनना कठिन व असम्भव है। शास्त्रों में अमृत मन्थन की चर्चा आती है। हमें लगता है कि स्वाध्याय कर हम जो ज्ञान अर्जित करते हैं उयसका मन्थन करें तो हमें निस्सन्देह अमृत प्राप्त हो सकता है जिससे हम मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द सहित सभी शीर्ष आर्य महापुरुषों का जीवन इसका आदर्श उदहारण है। अतः जीवन को जानने व जानकर इसे लक्ष्य प्राप्ति तक पहुंचाने के लिए इसमें सबसे अधिक सहायक वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय उन्नति चाहने वाले सभी मनुष्यों को अवश्य ही करना चाहिये। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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