माछ भात और मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

देश में मंहगाई जिस बेतहाशा गति से बढ रही है उससे आम आदमी का चिंतित होना स्वभाविक ही है। दरासल मंहगाई से आम आदमी केवल चिंतित ही नही है बल्कि अनेक स्थानों पर जीवन यात्रा के सूत्र उनके हाथांे से छूटते भी जा रहे हैं। जो वर्ग उत्पादन के क्षेत्र में लगा हुआ है, मसलन किसान और मजदूर, महगाई के कारण उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। यही कारण है पिछले कुछ वर्षो से, नई आर्थिक नीतियों से पटडी न बिठा पाने के कारण आत्महत्या करने वाले मजदूरों और किसानों की संख्या हजारों के आंकडे को पार कर गई है। मंहगाई और मंदी का यह दौर विश्वव्यापी है ऐसे वौद्धिक भाषण देने वाले अनेक विद्वान यत्र तत्र मिल रहे है। अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति बूश ने तो विश्व भर की मंहगाई और मंदी की जिम्मेदारी भारतीयों पर ही डाल दी थी । उनका कहना था कि दूनिया भर में खानें पीनें की चीजों की जो कमी हो रही है और जिसके कारण इन चीजों के दाम आसमानो को छू रहे है उसका एक मुख्य कारण भारतीय लोग ही है। उनके अनुसार भारतीय बहुत ज्यादा खाते है या अप्रत्क्ष रूप से जरूरत से भी ज्यादा खाते है। जाहिर है जब एक देश के लोग, खासकर जिसकी आवादी सौ करोड़ को भी पार कर गई हो, ठुंस -ठुंस कर खाएगें तो दूसरे देशो में खाने पीने की चीजों की कमी आएगी और मंहगाई बढे़गी।

अमेरीका में राष्ट्रपति जो आम तौर पर जो वयांन देते हैं, वह उस क्षेत्र के विशेषयज्ञों की राय पर ही आधारित होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरीका के अर्थ-शास्त्रीयों ने काफी खोजबीन करके और अपना मग्ज खपाकर विश्व भर की मंहगाई का जो कारण ढुढा वह भारतीयों के ठुंस-ठुंस कर खाने पीने के सभाव के कारण है। मनमोहन सिंह का भी चितंन के स्तर पर अमेंरीका के अर्थ-शास्त्रीयों की बीरादरी में ही शुमार होता है। अमेरीकी अर्थ-शास्त्र की जिस प्रकार अपनी एक आधार भूमि है उसी प्रकार साम्यवादी अर्थ-शास्त्र की एक विशिष्ट आधार भूमि है। इसी प्रकार भारतीय अर्थ-शास्त्र की एक अपनी परम्परा है। साम्यवादी अर्थ-शास्त्र तो अपने प्रयोग काल में ही पीटता चला आ रहा है और लगभग पीट ही गया है। अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थ-शास्त्र एक ओर शोषण पर आधारित हैं और दूसरी और मानव मन के भीतर सूप्त अवस्था मे पडी पशु वृतियों को जागृत करने के सिद्धात पर आधारित है। भारतीय अर्थ-शास्त्र परम्परा मानव के समर्ग विकास पर केन्द्रित है जिसे कभी दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन का नाम दिया था। यह भारतीय अर्थ-

शास्त्र के कारण ही था। जब पूरा विश्व मंदी की लपेट में आकर लड़खड़ा रहा था तो भारत सफलता पूर्वक इस आंधी को झेल गया।

डॉ0 मनमोहन सिंह अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में भारतीय परम्परा के नही बल्कि अमेरीकी परम्परा के अनुगामी है। दरसल वह अमेरीकी आर्थिक नीतियों को भारत में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में उनका प्रशिक्षण अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थतंत्र मंे ही हुआ है। वह विश्व बैंक के मुलाजिम रह चुके हैं। विश्व बैंक अमेरीकी अर्थिक हितो और आर्थिक नीतियों का दूनिया भर में विस्तार करने के लिए वहुत बढा अडडा है। स्वभाविक है मनमोहन सिंह जब पूरी ईमानदारी से भी भारत मे बढ़ रही महगाई के कारणो की जांच पडताल करने के लिए निकलेगें तो वह उन्ही निष्कर्षो पर पहुचेगें जिन निष्कर्षो पर अमेरीका के राष्ट्रपति पहले ही पहुच चुके है। इसका मुख्य कारण यह है कि कारण निमानसा के लिए जिन सूत्रों और फारमूलांे का प्रयोग अमेरीका के अर्थ-शास्त्री कर रहे हैं उन्ही का प्रयोग डॉ0 मनमोहन सिंह कर रहे हैं।

कुछ अरसा पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश में महगाई वढने का मुख्य कारण यह है कि अब लोग ज्यादा चीजे और ज्यादा उत्पादन खरीद रहे है। सुवाभिक है जब वाजार में खरीददारों की संख्या एक दम बढ जाएगी तो वस्तुओं के दाम भी वढ़ जाएगें। तो महगाई का मुल कारण लोगों की खरीदने की क्षमता वढना है। लेकिन प्रशन है कि आचानक बाजार में इतने खरीददार कैसे आने लगे है। मनमोहन सिंह के पास इसका भी

उत्तर है। उनके अनुसार सरकार ने पिछले कुछ सालो से देश में जो आर्थिक नीतियां जो लागू की है उसके कारण लोगो के पास पैसा बहुत आ गया है। लोग खुशहाल होने लगे हैं। अब उनकी इच्छा अपने जीवन स्तर को उपर उठाने की है। इस लिए वह जेब में पैसा डाल कर बाजार में जाते है और उसके कारण मंहगाई बढ रही है। अर्थ-शास्त्री प्रधानमंत्री के इस पूरे विश्लेषण और स्पष्टीकरण का कुल मिलाकर सार यह है कि देश मंे बढ़ रही मंहगाई वास्तव में उनकी अर्थ नीतियों की सफलता और देश के विकास का संकेत है। यानि जितनी जितनी मंहगाई बढती जाएगी उतना-उतना ही देश विकास करता जाएगा।

अब मनमोहन सिंह अपने इस तर्क और विश्लेषण को खींच कर और आगे ले गए है। उनके अनुसार आर्थिक नीतियों की सफलता के कारण गरीबों के पास भी इतना पैसा आ गया है कि उन्होनें धडले से मांस, मूर्गी, मछली और अडे़ उडाने शुरू कर दिये है। जब गारीब भी खुशहाल हो रहा है और वह दिन रात मछली मूर्गी पर हाथ साफ कर रहा है तो मंहगाई तो बढे़गी ही। इस लिए मंहगाई पर रोने की जरूरत नही है बल्कि ढोल बजाने की जरूरत है क्योकि यह देश में खुशहाली का प्रतिक है। यह अलग बात है कि इस देश के लोग प्याज, आलू, टमाटर, हरी सब्जीयां, दालों इत्यादि की आसमान छुती मंहगाई का रोना रो रहे हैं । मछली, मंास और मूर्गी की मंहगाई की तो किसी ने बात ही नही की । इसमें मनमोहन सिंह का दोष नही है, क्योंकि जब वह भारत की मंहगाई पर अपना यह शोधपत्र अमेरीका में अंग्रेजी भाषा में छपी अर्थ-शास्त्र की किसी किताब के आधार पर लिख रहे होगें तो उसमें दाल और प्याज का उदाहरण तो नही ही होगा। वहां उदाहरण के लिए मांस और मंछली को ही लिया गया होगा।

मनमोहन सिंह के भारत में बढ़ रही मंहगाई पर किए गए इस शोध से अमेरीका के अर्थ-शास्त्री तो प्रसन्न हो सकते है परन्तु भारतीयों को निराशा ही हाथ लगेगी। मनमोहन सिंह की अपनी ही सरकार मनरेगा में करोडों लोगों को एक दिन के लिए 100 रूपये की मजदूरी देती है और वह भी साल में केवल सौ दिन के लिए । यानि एक साल के लिए मजदूर की तनख्वाह केवल दस हजार रूपये । साल भर में दस हजार की कमाई से कोई गरीब आदमी परीवार कैसे पाल सकता है और साथ ही मूर्गा मछली का भोज कैसे उडा सकता है, यह मनमोहन सिंह जैसे अर्थ-शास्त्री ही बेहतर बता सकते है। जिस स्पैकुलेटिव टेªडिंग की शुरूआत मनमोहन सिंह ने खाद्यान के क्षेत्र में भी की है वह किसान और मजदूर को आत्महत्या की और तो ले जा सकता है । मांस, मछली के भोज की और नही । वैसे भी देश के गरीब को भारत सरकार से केवल दाल रोटी की दरकार है, मांस मछली का भोज उन्ही को मुबारक जो दिल्ली में वैठ के गरीब के जख्मों पर नमक मिर्च छिडकते है।

6 COMMENTS

  1. ऐसे किसी भी लेख या उसके टिप्पणियों पर मैं प्रायः दूसरी बार टिपण्णी नहीं करता,पर श्री हिमवंत के टिपण्णी के छट्ठे कर्मांक ने फिर से कुछ कहने के लिए विवश कर दिया.उनको मालूम होना चाहिए की किसानों ने तो अपना अनाज सरकार को बेच दिया ,यह बाद का दाम तो विचौलिये और जमाखोर बढाते है.यह छोटी सी बात उन जैसे अर्थ शास्त्रियों के ध्यान में आ जानी चाहिए थी. इस मुनाफाखोरी को रोकने के लिए,जिसका की वास्तविक उत्पादकों से को कोई सम्बन्ध नहीं है, सरकार को सामने आना जरूरी है.यही अर्थशास्त्र का मूल सिद्धांत है.जो अनाज सरकारी गोदामों में सड़ता है वह मूल्यवृद्धि में आग में तेल या घी की तरह काम करता है और जब तक इस बात को सरकार और अर्थ शास्त्री नहीं समझेंगे यह हमेशा मूल्य वृद्धि में सहायक होगा और इसका लाभ मुनाफाखोर और जमाखोर उठाते रहेंगे.ऐसे मेरा अर्थ शास्त्र कमजोर अवश्य है,क्योंकि अर्थशास्त्र का किताबी ज्ञान मुझे नहीं के बराबर है और मैंने अर्थशास्त्री की तरह अपनी बात कहने की कभी कोशिश भी नहीं की है.मैं तो आम आदमी की बात को आम आदमी की भाषा में कहता हूँ. एक बात और बता दू.जहां तक मुझे मालूम है आज सरकार जो अनाज बाजार या किसानों से खरीदती है,वहां जबरन वसूली जैसी कोई बात नहीं है.सरकार न्यूनतम मूल्य इसीलिए निर्धारित करती है जिससे किसानो को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिल सके.

  2. 1) भाई सिंह साहाब, टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
    2) अगर प्याज की फसल कम हो गई है तो राजनेताओ को देश की जनता से आव्हान करना चाहिए की वह प्याज खाना छोड दें. कितना अच्छा होतो की मानानीय लालकृष्ण आडवाणी तथा मनमोहन सिंह एक साथ देश की जनता को अनुरोध करते की “भाईयो, इस वर्ष प्रकृति ने हमे कम फस्ल दी है. यह ईश्वरीय संदेश है की हम अगली फस्ल तक प्याज खाना छोड दे.” प्याज न खाने से कोई मर तो नही जाएगा.
    3) क़्रुषको के खाद्य उत्पादन अगर सस्ते होते है तो उन गरीबो की कमाई भी घटती है. महंगाई बेशक बढे लेकिन पैसे किसानो के पास जाए न की बिचौलियो के पास.
    4) महंगाई को मांग और आपुर्ति निर्धारण करती है. “विकास सर्वांगीण होगा तो हर चीज संतुलित रहेगा,फिर महंगाई कैसे बढ़ेगी” जैसी बात से लगता है की आप अर्थशास्त्र मे कमजोर है.
    5) आज सरकार को यह सोचना चाहिए की किसानो को अपने उत्पादन का सही मुल्य कैसे मिले. सही मुल्य मिलेगा तो उत्पादन बढेगा. उत्पादन बढेगा तो मुल्य घटेगा लेकिन किसान खुश रहेगा क्योकी उत्पादन बढेगा.
    6) किसानो के उत्पादन का मुल्य बढे तो सरकारी गोदाम से माल बेचना शुरु करने की सल्लाह से मै असहमत हुं. सरकारी गोदाम का माल खाद्य संकट के समय प्रयोग के लिए है. न की किसानो को मारने के लिए.

  3. सरकार मनरेगा में करोडों लोगों को एक दिन के लिए 100 रूपये की मजदूरी देती है और वह भी साल में केवल सौ दिन के लिए . भ्रष्ट्राचार का सबसे बड़ा अड्डा मनरेगा बन गया है. जिसे जरुरत है उनके नाम इस लिस्ट में नही. गावों गावों के कांग्रेसी नेता के चमचे, बड़ी हस्तिया , सरपंच के मेहमान ग्राम सभा के सदस्य उनके मेहमान इन्ही लोंगो को कोई काम दीया नही जाता मगर सिर्फ कागज काले करके करोडो रुपये पैसा बाप का माल समजकर बाटा जा रहा है और VOTE पक्के किये जा रहे है. गरीब तक यह योजना कभी पहुंची ही नही. मरे हुवे गरीब के नाम पर करोडो रुपये ये लोग हड्डप कर चुके है. उसी तऱ्ह फलबाग लगाने के लिये सब सरकारी सबसिडी सिर्फ राजकीय पक्ष कार्यकर्ता को ही मिलती है. जिस के लिये योजना बनायीं उन्हें इसका लाभ कभी भी मिलाता नही. आप किसी भी राज्य में जाके ये बात देख सकते है.पुरे देश में यही बेहाल है.

  4. क्यों भाई हिमवंत जी ऐसी भी क्या बेरुखी की आप आम पाठक को अपने इस जवाब से वंचित करके केवल कुछ गिने चुने लोगों को लाभान्वित करना चाहते हैं?ऐसे भी महंगाई एक ऐसा विषय है जो हमारे प्रिय विषय भ्रष्टाचार को भी कभी कभी पीछे ढकेल देता है,पर है इन दोनों के बीच चोली दामन का सम्बन्ध. अन्य वस्तुओं के महंगाई के बारे में तो कोई खास अनुभव नहीं है पर खाद्य पदार्थों की महंगाई का तो सीधा सम्बन्ध मुझे उसके उत्पादन और वितरण से लगता है.कुछ दिनों पहले मैंने प्याज ७० रूपये किलो तक खरीदा था.आज वही प्याज उसी बाजार मैं २५ रूपये किलो खरीद रहा हूँ.फूल गोभी का दर पच्चीस रूपये किलो की जगह ५ रूपये किलो तक है.आलू १५ रूपये किलो के बदले पंद्रह रूपये का तीन किलो मिलरहा है.खानेवाले वही हैं.बाजार भी वही है.व्यापारी भी वही हैं,फिर भाव में कुछ ही दिनों में इतना परिवर्तन क्यों?क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता की उत्पादन अगर खपत से ज्यादा होगा तो दाम घटेंगे और इसके विपरीत होने से दाम बढ़ेंगे.तो ऐसा क्यों न किया जाये की उत्पादन बढाने पर जोर दिया जाये,वितरण प्रणाली को ठीक किया जाये.मेरे समझ से ऐसा होने से महंगाई का स्तर भी ठीक रहेगा.रह गयी बात विकास से महंगाई बढ़ने का सम्बन्ध तो मेरे गले में यह बात उतरती नहीं,क्योंकि मेरे विचार से अगर विकास सर्वांगीण होगा तो हर चीज संतुलित रहेगा,फिर महंगाई कैसे बढ़ेगी?ऐसे भी मैं तो यही जानता हूँ की खाद्य पदार्थों की महंगाई बढ़ने का एक खास कारण सरकार द्वारा अपने गोदामों में अनाज का सडाया जाना भी है.होना तो यह चाहिए था की किसानों की मदद के लिए जैसे सरकार न्यूनतम निर्धारित मूल्य पर अनाज खरीदती है,उसी तरह महंगाई बढ़ने पर या उस पदार्थ की कमी होने पर बाजार में अपने गोदाम में रक्खे गए अनाजो को बेचना शुरू कर देती.मूल्य अपने आप नीचे आ जाता. यह तो बात हुयी एक आम आदमी के अनुभव की.विशेषज्ञों की राय भी यही हो ऐसा होना जरूरी नहीं है. रह गयी बात गरीबी दूर करने की तो देखे हिमवंत जी मेरे जैसे जिज्ञासु को लाभान्वित करते हैं की नहीं?

  5. एक औसत भारतीय किसान अपने आठ घंटे की मेहनत से जो अनाज पैदा करता है उससे वह जितने डालर प्राप्त करता है उससे 200 गुणा ज्यादा डालर एक आम अमेरिकी अपनी 8 घंटे की मेहनत से प्राप्त करता है. यह इसलिए है क्योकी वैश्विक अर्थव्यवस्था पर उनका कब्जा है. हमारी सरकारे वह नीतिया अनुसरण करती है जो इन वैश्विक जमींदारो के अनुकुल हो. और यही कारण है की विश्व की 20% जनसंख्या के पास विश्व की 80% समृद्धि है.

    अर्थशास्त्री जांनबुझ कर सरल तथ्यो को जटील बना कर पेश करते है. मै आपको यह अर्थशास्त्र सरल ढंग से समझा सकता हुं : धन सृजित करने के तीन मुलभुत साधन है – श्रम, प्राकृतिक साधन एवम …….। इन मुलभुत साधनो की धन स्रुजित करने की क्षमता को कुछ चीजे प्रभावित करती है – तकनीकी, मार्केटिंग, सामरिक शक्ति आदि। हम इसलिए गरीब है क्योकी हम तकनीकी ज्ञान, मार्केटिंग, सामरिक शक्ति आदि मे कमजोर है. अब सवाल पैदा होता है की हम कैसे अपनी गरीबी को दुर करें. जवाब सुनने मे इछुक व्यक्ति अपना ईमेल आई-डी मुझे दें.

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