“महनीय विस्मृत जीवन अथर्ववेद भाष्यकार पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी”

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मनमोहन कुमार आर्य

वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के अनुकूल व ज्ञान-विज्ञान पर भी सत्य सिद्ध है। महाभारतकाल तक देश में ऋषियों की परम्परा विद्यमान रही जिससे सर्वत्र वेदों व उनके सत्य अर्थों का प्रचार था। महाभारत युद्ध के बाद देश व संसार में अज्ञान का अन्धकार फैल गया। लोगों में वेदों के अध्ययन की प्रवृत्ति क्षीण हुई जिससे अन्धविश्वास व अविद्या का प्रसार हुआ। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया। विदेशी विधर्मी लुटरे भारत को लूटने आये। उन दिनो देश में पाषाण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, छुआछूत, ऊंच-नीच, आलस्य व स्वार्थ आदि अंधविश्वास व मिथ्या परम्परायें प्रचलित थीं। विदेशियों ने भारत को लूटा भी और देशवासियों को गुलाम बना लिया। माताओं-बहिनों का अपमान किया और तलवार व प्रलोभन आदि के जोर पर भोले-भाले लोगों का धर्मान्तरण किया। ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में ऋषि दयानन्द (1825-1883) आये। उन्होने ब्रह्मचर्य और पुरुषार्थपूर्वक वेद ज्ञान को प्राप्त किया। अपने विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने देश व विश्व से अविद्या मिटाने के लिये वेदों का प्रचार-प्रसार किया। उनके वेदप्रचार से सभी मिथ्या मत-मतान्तर उनके विरोधी हो गये। उन्हें अनेक बार विष दिया गया। इसी प्रकार जोधपुर में प्रचार के समय एक षडयन्त्र के चलते उनके रसोईये धौड़ मिश्र ने उन्हें विष दे दिया जो उनकी अजमेर में दीपावली के दिन दिनांक 30-10-1883 को मृत्यु का कारण बना। स्वामी जी ने तब तक सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों के प्रकाशन सहित ऋग्वेद (आशिक) तथा यजुर्वेद (सम्पूर्ण) का संस्कृत-हिन्दी भाषा में भाष्य पूर्ण कर लिया था। ऋग्वेद के शेष भाग सहित सामवेद और अथर्ववेद का भाष्य छूट गया था। इस अवशिष्ट कार्य को उनके अनुयायियों ने पूरा किया। अथर्ववेद ऋग्वेद के बाद मन्त्र संख्या की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है। इसमें पांच हजार से अधिक मन्त्र हैं। इसका भाष्य मुरादाबाद के  पंडित क्षेमकरणदास त्रिवेदी जी ने किया। आज इस लेख में हम उनका परिचय दे रहे हैं। पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी ऋषि दयानन्द के समकालीन थे और इन्होंने मुरादाबाद में उनके दर्शन भी किये थे। हम पंडित क्षेमकरणदास जी के विषय में जो विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं उसका आधार आर्य विद्वान डॉ. भवानीलाल भारतीय की पुस्तक आर्यसमाज के वेद सेवक विद्वान है। इस पुस्तक में आर्यसमाज के 103 वेद सेवकों का परिचय दिया गया है।यह आश्चर्य की बात है कि एक द्विजेतर परिवार में जन्में तथा बचपन में उर्दूफारसी पढ़े व्यक्ति जिसकी आजीविका का आधार अंग्र्रेजों की सरकारी नौकरी थी, उसने अपने स्वाध्याय, लगन तथा परिश्रम से वेदों का विद्वान बनकर और अथर्ववेद का पाण्डित्यपूर्ण भाष्य लिखकर वेद के शीर्ष विद्वानों में अपनी गणना कराई। इस व्यक्ति का नाम पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी है। इन्होंने अपनी किशोरावस्था में मुरादाबाद में रहते समय स्वामी दयानन्द का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया था। इन्होंने स्वामी दयानन्द जी से यज्ञोपवीत भी लिया था। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से ही इन्होंने वेदों के अध्ययन और उसके बाद वेद प्रचार का व्रत धारा किया था।

पंडित क्षेमकरणदास जी का जन्म अलीगढ़ जिले के शाहपुर ग्राम में लाला कुंदनलाल सक्सेना के यहां 3 नवम्बर, सन् 1848 को 170 वर्ष पूर्व हुआ था। आपकी आरम्भिक शिक्षा फारसी माध्यम से हुई। सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के शान्त होने पर आप अलीगढ़ के अंग्रेजी स्कूल में प्रविष्ट हुए थे। सन् 1871 में आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय की एन्ट्रेस परीक्षा पास की। आप सन् 1872 में अध्यापक बने और मुरादाबाद में नियुक्त हुए। यहीं पर आपने सन् 1877 में स्वामी दयान्द के साक्षात् दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त किया था। स्वामीजी ने आपको कुछ दिनों तक संस्कृत पढ़ाई तथा आपसे यह आश्वासन ले लिया कि भावी जीवन में क्षेमकरणदास संस्कृत का विशद अध्ययन कर वेद भाष्य का लेखन करेंगे। आर्यसमाज मुरादाबाद के आप मंत्री रहे तथा वेदाध्ययन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।जीविकोपार्जन हेतु पंडित क्षेमकरणदास जी पर्याप्त समय तक बीकानेर-जोधपुर रेलवे में कार्यरत रहे और सन् 1907 में रेलवे की नौकरी से अवकाश ग्रहण किया। संस्कृत अध्ययन की रुचि के कारण आपने 1893 में पंजाब विश्वविद्यालय की प्राज्ञ परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। कालान्तर में जब आप जोधपुर रहे तो वहां रह रहे स्वामी अच्युतानन्द तथा पं. लालचन्द्र विद्याभास्कर से व्याकरण तथा निरुक्त का अध्ययन किया। सेवा निवृति के बाद प्रयाग में आपने पं. रामजीलाल शर्मा से सामवेद का अध्ययन किया तथा महाराजा बड़ौदा द्वारा स्थापित वेद विद्यालय से सामवेद की परीक्षा उत्तीर्ण की। महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द जी) की प्रेरणा से वेदों के उच्च अध्ययनार्थ वे गुरुकुल कांगड़ी आये तथा पं. काशीनाथ शास्त्री एवं पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ से वेदों का अध्ययन किया। सन् 1911 में आप पुनः बड़ौदा गये और वहां ऋग्वेद तथा अथर्ववेद की परीक्षाएं उत्तीर्ण की। सामवेद की परीक्षा वे पहले ही दे चुके थे। इस प्रकार तीन वेदों में उच्च योग्यता वा दक्षता प्राप्त करने के कारण आपको त्रिवेदी की उपाधि प्रदान की गई। 15 फरवरी 1939 को पंडित क्षेमकरणदास त्रिवेदी जी का निधन हो गया।हम पहले बता चुके हैं कि ऋषि दयानन्द जी ने ऋग्वेद पर आंशिक तथा यजुर्वेद का सम्पूर्ण संस्कृत व हिन्दी भाष्य किया है। ऋषि के देहावसान के बाद पं. तुलसीराम स्वामी ने सामवेद का पूरा भाष्य सम्पन्न कर दिया था। ऋग्वेद के अवशिष्ट भाग पर भी अनेक विद्वान भाष्य करने में प्रवृत्त थे। अथर्ववेद पर कोई विद्वान भाष्य लेखन में प्रवृत्त नहीं हुआ था। पं. क्षेमकरण दास त्रिवेदी जी ने अन्तःप्रेरणा से अथर्ववेद के भाष्य लेखन को ही अपना कर्तव्य निश्चत किया। अथर्ववेद के सम्पूर्ण भाग पर आचार्य सायण का भाष्य भी उपलब्ध नहीं था। आरम्भ में त्रिवेदी जी ने अथर्ववेद भाष्य का मासिक रूप में प्रकाशन किया। इस कार्य के लिए उन्हें पंजाब एवं संयुक्त-प्रान्त की सरकारों से कुछ आर्थिक सहायता मिलती थी। संयुक्त प्रान्त की आर्य प्रतिनिधि सभा भी कुछ मासिक अनुदान देती थी। सब मिला कर यह राशि 100 रुपये होती थी। अथर्ववेद का सम्पूर्ण भाष्य सन् 1912 से आरम्भ होकर सन् 1921 में समाप्त हुआ। सन् 1924 में इस वेद से संबंधित गोपथ ब्राहण का भाष्य भी आपके द्वारा लिखा गया तथा वह छपा भी। तत्पश्चात पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी जी ने अथर्ववेद संहिता के पदों की वर्णानुक्रम सूची तैयार की जो सन् 1921 में छपी। यजुर्वेद के रुद्राध्याय का त्रिवेदी जी ने संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी में भावार्थ लिखा है जो सन् 1916 में प्रकाशित हुआ। अपने समग्र जीवन को वेदाध्ययन तथा वेद व्याख्या लिखने में लगाने वाले पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी को वेद विद्याओ ंपर व्याख्यान देने के लिए गुरुकुल कागड़ी में सन् 1914 में आमंत्रित किया गया। इस अवसर पर वेदों में विद्यमान विद्याओं का निदर्शन कराते हुए आपने जो पांडित्यपूर्ण व्याख्यान दिया वह कालान्तर में ग्रंथाकार रूप में छपा। इसमें वेदों में व्याख्यात विमान-नौका आदि के संचालन, अस्त्र-शस्त्र विज्ञान, व्यापार गृहस्थ, सभा संचालन जैसे लौकिक विषयों के विवेचन के साथ-साथ ब्रह्मचर्य से संबंधित शिक्षाओं पर विचार किया गया था। त्रिवेदी जी के अथर्ववेद भाष्य को कालान्तर में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने पुनः प्रकाशित किया किन्तु इसमें टिप्पणी रुप में प्रकाशित महत्वपूर्ण अंशों को छोड़ दिया गया। इससे बहुत बड़ी हानि यह हुई कि अब वह टिप्पणियां असुलभ होने से विलुप्त हो गई हैं और अध्येताओं की पहुंच से दूर चली गई हैं।प्रौढ़ावस्था में संस्कृत पढ़ना और वेद भाष्य करना पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी जी की दृढ़ निश्चयात्मक वृत्ति को दर्शाता है। हमने इस लेख में जो कुछ लिखा है वह सब डॉ. भवानीलाल भारतीय प्रदत्त है। हम इन दोनों विभूतियों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हमारा सौभाग्य रहा कि हमारा भारतीय जी से सम्पर्क एवं पत्रव्यवहार रहा। उनसे कई बार भेंट हुई, अनेक विषयों पर वार्तालाप किया तथा दो बार जोधपुर में उनके निवास नन्दनवन जाने का सौभाग्य भी प्राप्त रहा। उनके प्रभावशाली प्रेरणादायक प्रवचनों को भी सुनने का हमें अवसर प्राप्त हुआ है। इस लेख को यहीं पर विराम देते हैं।

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