महर्षि दयानंद जयंती 17 फरवरी पर विशेष

अखिलेश आर्येन्दु

दिव्य गुणों से विभूषित महर्षि दयानंद का मानवता को अद्वितीय अवदान

महर्षि दयानंद के पास एक दिन एक निराश व्यक्ति आया और बोला-स्वामी जी, मैं सुखी होना चाहता हूं, क्या करूं?’ महर्षि कुछ पल रुके और गम्भीरता से बोले, ‘ हर कार्य को अच्छी तरह से, मन लगाकर, ईश्वर पर भरोसा रखते हुए और पूरी शक्ति के साथ करोगे , तो निश्चित ही सुखी हो जाओगे।’ उसने उपदेश बड़े ध्यान से सुना और वैसा करने का संकल्प लिया। उपदेश के मुताबिक वह वैसा करना लगा। कुछ दिनों के बाद फिर वह महर्षि के पास आया और चरण छूकर बोला, ‘स्वामी जी, आप ने तो जादू कर दिया। आप ने जैसा कहा था मैंने वैसे ही किया। अब मैं पूरी तरह से सुखी हूं। दरअसल महर्षि की जिंदगी का हर पहलु संतुलित और प्रेरक था। एक श्रेष्ठ इंसान की जिंदगी कैसी होनी चाहिए वे उसके प्रतीक थे। उनकी जिंदगी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। इस लिए उनके संपर्क में जो भी आता था, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।

उन्होंने बचपन में ही पूर्ण बह्मचर्य के पालन का व्रत लिया था। मन से, वचन और कर्म से कभी बिचलित नहीं हुए। भालू, को खदेड़ने, दो लड़ते हुए साड़ों को पकड़कर अलग करने, राव कृष्णसिंह के तलवार के वार को विफल करने के लिए तलवार छीनकर दो टुकड़ेकर राजा को क्षमा करने, राजा के दो घोड़ों के रथ के पहियों को पकड़कर कर रथ को रोक देने जैसे तमाम घटनाएं उनके ब्रह्मचर्य का प्रमाण थीं। उनकी इन घटनाओं से पता चलता है कि यदि व्यक्ति सही मायने में ब्रह्मचर्य का पाचन करे तो उनके अंदर अकूत बल पैदा हो सकता है। , आयुर्वेद सहित तमाम भारतीय चिकित्सा के ग्रंथों में ब्रह्मचर्य की शक्ति की जो बात कही गई है, महर्षि उसके साक्षात् प्रमाण थे। इतिहासकारों के मुताबिक , रामभक्त हनुमान और भीष्मपितामह के बाद महर्षि दयानंद ही ऐसे महामानव हुए जिनका ब्रह्मचर्य जिंदगी में एक पल के लिए भी खंडित नहीं हुआ।महर्षि दयानंद ने आर्य समाज के नियम में लिखा है-हर इंसान को शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति करना चाहिए।

चिकित्सा शास्त्र भी कहता है कि श्रेष्ठ विचारों और बेहतर जीवन-शैली वाले इंसान की जिंदगी निरोग ही नहीं होती बल्कि दीर्घायु भी होती है। इंसान की शारीरिक उन्नति हो जाने के बाद ही वह इंसान सामाजिक कार्य कर सकता है। जो इंसान शरीर से हृष्ट-पुष्ट नहीं होगा और जिसका मन अपने काबू में नहीं होगा, वह समाज के यानी परोपकार के कार्य नहीं कर सकता है। महर्षि दयानंद ने 59 साल की जिदगी में परोपकार के इतने कार्य किए कि गिनाना मुश्किल। प्रकृति की गोद में रहकर ईश्वर पर यकीन करते हुए जिंदगी बिताना महर्षि की जिंदगी की सबसे बड़ी खूबी थी। उन्होंने समाज, देश, संस्कृति और धर्म के लिए जितने कार्य किए जितना हजारों लोग सालों-साल नहीं कर सकते थे। प्रकृति के साथ सहवास करने वाले इंसान की प्रकृति भी प्रकृति जैसी खुली हुई, संतुलित, परोपकारपूर्ण, निःस्वार्थ और जीवंत बनी रहती है।महर्षि उसके सबसे बड़े प्रमाण थे।शारीरिक उन्नति का सूत्र उन्होंने बताते हुए कहा, मनुष्य को पहले 25 साल ब्रह्मचर्य का बेहतर तरीके से पालन करना चाहिए। यह मन, वाणी और कर्म से होना चाहिए।

महर्षि दयानंद ने इंसान की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए रोजाना पांच यज्ञों को करना जरूरी बताया। वे संन्यासी होते हुए भी इनका बेहतर पालन करते थे। ये पांच यज्ञ हैं-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ, पितृयज्ञ और भूतयज्ञ(प्राणियों को रोजाना खुद खाने के पहले कुछ हिस्सा निकालना) । ब्रह्मयज्ञ है, ईश्वर की स्तुति, उपासना और प्रार्थना करना। देवयज्ञ का मतलब अग्निहोत्र करना। यह इस लिए जरूरी है कि हम रोजाना अपने मल-मूत्र और दूसरे कारणों से वातावरण को गंदा करते हैं। हवन करने से हम इस गंदगी को साफ करते हैं। जो लोग रोजाना हवन नहीं करते, उन्हें पाप लगता है। तीसरा यज्ञ अतिथि यज्ञ है। घर पर आए मेहमान या विद्वान को खिलाकर ही खाना। वे अतिथि देवोभव की वैदिक संस्कृति और परम्परा के पालन पर बहुत जोर देते थे। माता-पिता या अपने बड़ों को हर तरह से सेवा करना, पितृयज्ञ कहलाता है। और बलिवैष्य या भूतयज्ञ है खाने के पहले उन प्राणियों को भोजन देना जो हम पर आश्रित हैं। इन यज्ञों को करने वाला इंसान जहां कई तरह के पापों से बचता है वहीं पर जिंदगी को बेहतरी की तरफ ले चलने में कामयाब हो जाता है। महर्षि ने इस लिए यज्ञों पर बहुत जोर दिया। हमारी दिनचर्या इनसे षुरू होती है। आज व्यक्ति, परिवार, समाज और इंसानियत के सामने अनगिनत समस्याओं की वजह दिनचर्या और जीवनचर्या का असंतुलित होना है। महर्षि दयानंद इन दोनों के पालन पर बहुत जोर देते दिखाई देते हैं।

महर्षि दयानंद का मानना था शारीरिक, सामाजिक उन्नति करने के बाद इंसान को आत्मिक उन्नति की तरफ जरूर गौर करना चाहिए। वे रोजाना आत्मिक उन्नति के लिए संध्या करना जरूरी मानते थे। उनके जरिए प्रतिपादित संध्या की किताबों में ईश्वर को समर्पित मंत्रों से संध्या क्यों जरूरी है, का पता चलता है। वे कहते हैं, हर व्यक्ति को कमसे कम रोजाना एक घंटे ईश्वर का ध्यान जरूर करना चाहिए। इससे हम महज ईश्वर के नजदीक ही नहीं पहुंचते है बल्कि अपनी भी समीक्षा हो जाती है। वे रोजाना कम से कम तीन-चार घंटे आत्म-कल्याण के लिए ईश्वर का ध्यान करते थे। इसका ही परिणाम था कि बड़े से बड़े संकट के वक्त वे न तो कभी घबराए और न तो कभी सत्य के रास्ते से पीछे ही हटे। उनका साफ मानना था, सच का पालन करने वाले व्यक्ति का कोई दोस्त हो या न हो, लेकिन ईश्वर उसका हर वक्त साथ निभाता है। पूरे भारतीय समाज को वे इसी लिए सच का रास्ता दिखा सके, क्योंकि उन्हें ईश्वर पर अटल विश्वास थाऔर हरहाल में सच का पालन करते थे। आजादी की लड़ाई हो या राजा के लालच देने पर उसे दो टूक जवाब देने का सत्साहस उन्हें आत्मविश्वास और ईश्वर के अखंड विश्वास के जरिए ही मिला था। वे धर्म की जय और अधर्म का नाष करने के लिए ईश्वर के विश्वास के साथ ही लगे रहे। शास्त्रार्थ में वे आजीवन अजेय इसी लिए रहे कि उन्हें जहां खुद के स्वाध्याय पर यकीन था वहीं ईश्वर पर भी पूरी तरह यकीन था। सत्य महापुरुषों का गहना होता है। सत्य को छोड़कर कभी हम न तो अपना सुधार कर सकते हैं और न तो समाज का सुधार ही किया जा सकता है। उन्होने सत्य, प्रेम, करुणा, दया, अंिहसा, ब्रह्मचर्य, अभय, सत्साहस, अरिग्रह, त्याग, परोपकार, न्याय, सदाशयता, शहिष्णुता, धर्म और अन्य सदगुणों को जिंदगी का अहम हिस्सा बनाकर बता दिया कि इनके पालन से मनुष्य कितनी उन्नति कर सकता है। इस लिए गांधीजी, नेता सुभाष, लाला लाजपतराय सहित सभी महान हस्तियों ने उन्हें उस युग का सर्वश्रेष्ठ मानव कहकर अभिनंदन किया।

एक बार वे कहीं जा रहे थे। उनके सामने एक छोटी बच्ची दिखाई दी । उन्होंने उस मातृ-शक्ति के आगे सिर झुका दिया। उनके विरोधियों ने कहा, आज तो स्वामी जी ने पीपल के आगे सिर झुका दिया। यह भी तो मूर्ति पूजा है। उन्होंने कहा, मैंने पीपल के आगे नहीं बल्कि ईश्वर की बनाई उस मातृ-शक्ति के आगे सिर झुकाया है। इतना सुनते ही सारे विरोधी निरुत्तर हो गए। उन्होंने जिंदगी के पचास वर्ष अपनी तैयार में लगाया। इसमें विद्यार्जन, योगसाधना, देशभर में पर्यटन करके देश की दशा का अध्ययन और संस्कृति व गुलामी से हो रहे देश, समाज, संस्कृति और शिक्षा की दुर्दशा को नजदीक से देखा। उन्होंने संस्कृत, हिंदी के उत्थान को प्रमुखता दी। यह उनके जीवन का एक बड़ा कार्य था। इससे लोगों में हिंदी और संस्कृत के प्रति रुचि पैदा हुई। उनका स्पश्ट विचार था, सत्यवादी कभी अन्यायी बलवान से न डरे और निर्बल न्यायकारी व्यक्ति से विनम्र रहे। उन्होंने अन्याय के आगे कभी किसी भी हालात में सिर नहीं नवाया। उन्होंने कहा, उनके चाहे प्राण ही क्यों न चले जाएं, वे सत्य ही कहेंगे और सत्य का ही प्रचार करेंगे। वेद और वेदांगों का प्रचार-प्रसार वे इस लिए करते थे क्योंकि इनमें पूर्ण सच है। इनसे ही इंसानियत की हिफाजत हो सकती है। वे कहते थे, पत्थर की मूर्ति के आगे सिर न झुकाकर भगवान की बनाई मूर्ति के आगे ही सिर झुकाना चाहिए। हम जैसा विचार करते हैं हमारी बुद्धि वैसे ही होती जाती है। पत्थर की पूजा करके कभी जीवंत नहीं बना जा सकता है। वे स्त्रियों को मातृ-शक्ति कहकर सम्मान करते थे।

महर्षि कहते थे-व्यक्ति को धर्म के पालन के लिए यदि प्राण भी देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। धर्म ही व्यक्ति के साथ जाता है। इस लिए उन्होंने साफ कहा कि धर्म को पालने और अधर्म को छोड़ने में हमेशा तैयार रहना चाहिए। धर्म के पालन से ही इंसान का जन्म लेना सार्थक हो सकता है। वे कहते थे धर्म वह है जिससे मानव मात्र को सुख मिले और सत्य की बढ़ोत्तरी हो सके। तुलसीदास जी ने भी कहा है परहित सरस धर्म नहि भाई। रोजाना यदि इंसान अपने कार्यों की समीक्षा करे तो वह बुराइयों से दूर होता जाएगा। इस लिए वे एक महान ऋषि होते हुए भी रोजाना अपनी समीक्षा एक घंटे नहीं बल्कि कई घंटे करते थे। अपनी समीक्षा से बढ़कर इंसान के लिए बेहतरी लाने का दूसरा और कोई उपाय नहीं है। वे सत्यार्थ प्रकाश में कहते हैं-कोई कार्य दूसरों के कहने से नहीं बल्कि अपनी बुद्धि से करना चाहिए। इससे सुख-दुख, स्वर्ग-नरक, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, हानि-लाभ और षुभ-अषुभ की जानकारी होती चली जाएगी। वेद शास्त्र और धर्म की दूसरी पुस्तकें हमें उनके बारे में सही तरीके से बताती हैं। इस लिए रोजाना स्वाध्याय जरूर करना चाहिए। स्वाध्याय का मतलब महज किताब पढ़ना नहीं हैं बल्कि उसमें लिखी विद्या को पढ़कर उसपर विचार करना भी है और उसे अमल में लाना है।

महर्षि दयानंद चारों वेदों के ही ज्ञाता नहीं थे बल्कि वेदांग और शास्त्रों के भी प्रकांड पंडित थे। आयुर्वेद में बेहतर जिंदगी को बनाने के सूत्र बताए गए हैं। महर्षि उसका तजिंदगी पालन किया। सुबह भोर में उठ जाना, जलपान करना, फिर शौच जाना, घूमना, आसन, प्राणायाम, ध्यान करना, फिर स्वाध्याय करना और सात बजे तक नाश्ता लेकर अपने नियत कार्यों में लग जाना। दिनभर कठिन मेहनत करते । यहां तक कि भोजन की चिंता उन्हें नहीं रहती। ब्रह्मचर्य के पालन की वजह से उन्हें भूख सताती नहीं थी। महर्षि की दिनचर्या और जीवनचर्या दोनों इतनी अच्छी थी कि लोगों को हैरानी होती थी। वे हमेशा अपने कार्यों में व्यस्त रहते थे। व्यस्त होने की वजह से उनके मन में कभी गलत विचार आते ही नहीं थे। एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा-महाराज! क्या काम वासना आप को नहीं सताती?’ महर्षि कुछ देर सोचा और बोले- हमें याद नहीं आ रहा है कि कामवासना हमें कभी परेशान की हो। यदि कभी आई होगी तो चली गई होगी।’ यानी व्यस्तता इतनी कि कामवासना को जगह ही नहीं थी, उन्हें परेशान करने की। आज जबकि दुनिया में व्यभिचार, पापाचार, बलात्कार और दूसरे अपराध बढ़ रहे हैं, महर्षि के इस उपदेश से प्रेरणा ली जा सकती है। उनका मानना था इंसान को शुद्ध शाकाहार ही करना चाहिए। शाकाहार में ही इतनी शक्ति है कि इंसान वह सब कुछ हासिल कर सकता है, जो कुछ वह चाहता है। उनका शाकाहार का व्रत इस कदर था कि वे कहते थे, जो इंसान, मछली, मांस, अंडे और दूसरे अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करता है, उसके रक्त, वीर्य और शरीर भी दूषित हो जाती है। मासांहार करना तो दूर उसकी तरह निहारना भी पाप है। मांसाहारी व्यक्तियों के हाथ का भोजन नहीं करना चाहिए। इतना परहेज करने पर ही शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। जैसे खाए अन्न वैसा बने मन । और जैसा पिए पानी वैसी होए वानी के वे प्रबल हिमायती थे।

महर्षि दयानंद अपरिग्रह और अहिंसा के पालन पर बहुत जोर देते थे। वे ज्यादातर वक्त कोपीन पहनते थे। एक ही धोती से काम चलाते थे। योगाभ्यास इतना था कि प्रयाग(इलाहाबाद) के गंगा के कधार में माघ

-पूस के घनघोर ठंठक में भी एक लगोट लगाकर रेत पर ध्यान लगाए रहते थे। लेकिन इसे वे चमत्कार नहीं मानते थे। अंग्रेज ने पूछा- आप को इतनी ठंठक में शीत नहीं लगती?’ उन्होंने कहा- यह अभ्यास की महिमा है। इसे उन्होंने चमत्कार नहीं कहा। जिंदगी में जितना सच और जितना बनावटी या झूठ हो उसे छिपाना नहीं चाहिए। यह महर्षि की जिंदगी से पता चलता है। अहिंसा का पालन इस कदर करते थे कि विरोधियों ने जब भी उनपर हमला किया कभी उसका प्रतिरोत्तर नहीं दिया। यहां तक कि चौदह बार जहर देने वालों को भी उन्होंने कभी जेल नहीं जाने दिया। बल्कि क्षमाकर कर उन्हें ईश्वर से सद्बुद्धि देने की प्रार्थना की। एक श्रेष्ठ जीवन कैसा होना चाहिए और हम दूसरों का दिल कैसे जीत सकते हैं, यह महर्षि के जिंदगी सीखा जा सकता है। उन्होंने रोगियों को नेति, धोती और न्यौली क्रियाएं सिखाईं। विदेशी खान-पान, रीति रीवाज, वस्त्र, भाषा, संस्कृति, शिक्षा और राज्य कभी भी भारत का भला नहीं कर सकते हैं। इसके लिए वे लगातार कोशिश करते रहे। उनका साफ मानना था कि लालच, लोभ और छल-कपट से इंसान कभी उन्नाति नहीं कर सकता है। इतने लालच उन्हें दिए गए लेकिन कभी वे अपने लक्ष्य से फिसले नहीं । उन्होंने कहा- सर्वहितकारी कार्यों में व्यक्ति को परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी कार्य में स्वतंत्र रहना चाहिए। यह जिंदगी की बेहतरी के लिए तो जरूरी है ही, समाज का हित भी इससे जुड़ा हुआ है। इस तरह महर्षि का सारा जीवन दूसरों की ही भलाई में लगा रहा। ऐसा प्रेरक जीवन आज भी हमारे लिए मील के पत्थर की तरह है

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