ओ३म्
महाभारत काल के बाद देश-विदेश में सर्वत्र अज्ञान फैल गया था। शुद्ध वैदिक धर्म शुद्ध न रह सका और उसमें अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां आदि अनेक हानिकारक मत व बातें सम्मिलित हो गयीं। वेद के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को पंच-महायज्ञों का करना अनिवार्य था जिसमें प्रथम ईश्वरोपासना तथा उसके पश्चात दैनिक अग्निहोत्र का विधान था। इस अग्निहोत्र के विस्तार – गोमेध, अजामेध, अश्वमेध आदि अनेक यज्ञ थे। मध्यकाल में विद्वानों के वेद मन्त्रों के गलत अर्थ व व्याख्याओं से यज्ञों में पशुओं का वध होने लगा और उनके मांस से यज्ञों में आहुतियां दी जाने लगीं। वेदों के अनुसार हमारा समाज गुण, कर्म व स्वभावों के अनुसार चार वर्णों में विभक्त था। महाभारत के पश्चात मध्यकाल में इन वर्णों को गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर न मानकर जन्म पर आधारित माना जाने लगा था। कालान्तर में एक वर्ण में ही जन्म के आधार पर अनेक जातियों की रचना हुई और लोग परस्पर, जो वेदों के अनुसार समान थे, उनमें छोटे-बड़े व ऊंच-नीच का भेदभाव उत्पन्न हो गया। स्त्री व शूद्रों को वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया। महाभारत से पूर्व वैदिक काल में सबके लिए अनिवार्य गुरूकुल की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई। महाभारत के बाद अपवाद स्वरूप ऐसे कम ही उदाहरण होंगे जहां सभी वर्णों के लोग आचार्य से वेदों का अध्ययन कर पाते थे। स्त्रियों की शिक्षा का कोई गुरूकुल या शिक्षा केन्द्र तो सन् 1825 व महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार काल में देश व विदेश में कहीं अस्तित्व में नहीं था। एक प्रकार से गुरूकुल व्यवस्था का ध्वस्त होना और चार वर्णों में समानता समाप्त होकर विषमता का उत्पन्न होना ही देश की पराधीनता और सभी अन्धविश्वासों व कुरीतियों का कारण था। ऐसे समय में कि जब सामाजिक असमानता चरम पर थी, यज्ञों में हितकारी निर्दोष व मूक पशुओं को मार कर खुलकर हिंसा की जाती थी, उनके मांस से यज्ञ किए जाते थे और मांसाहार किया जाता था, तब भगवान बुद्ध का आविर्भाव हुआ। उन्होंने पशु हिंसा और सामाजिक असमानता का विरोध किया। उन्हें बताया गया कि पशु हिंसा का विधान वेदों में है। इस पर उनका उत्तर था कि ऐसे वेद जो पशु हिंसा का विधान करते हैं, वह अमान्य हैं। उन्हें बताया गया कि वेदों की रचना तो साक्षात् ईश्वर से हुई है जिसने यह सारा संसार बनाया है, तो इस पर उन्होंने कहा कि मैं ऐसे ईश्वर को भी नहीं मानता। भगवान बुद्ध पूर्ण अहिंसक व शाकाहारी थे। पशुओं की हिंसा और हत्या से उनको महर्षि दयानन्द के समान आत्मिक दुःख होता था। वह मानव हितकारी अनेकानेक विषयों के ध्यान व चिन्तन में संलग्न रहते थे। लोगों को उनकी यह बातें पसन्द आयीं। लोग उनके अनुयायी बनने लगे। उनकी शिष्य मण्डली बढ़ती गई और उनके द्वारा प्रचार से देश व विश्व में उनके अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक हो गई। बौद्ध एवं जैन मत ने ईश्वर के अस्तित्व व उसकी उपासना का त्याग कर दिया था। यह सत्य का अपलाप था। ऐसी स्थिति का होना वेदानुयायियों के लिए चिन्ता का विषय बन गया। इसकी एक प्रतिक्रिया यह हुई कि बौद्धों व जैनियों की देखा-देखी वेद मतानुयायियों = आर्यो में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन हो गया। एक के बाद एक अन्धविश्वासों में वृद्धि होती रही और अतीत का वैदिक धर्म कालान्तर में वेदों के विपरीत कुछ वैदिक व कुछ अवैदिक अथवा पौराणिक मान्यताओं का मत बन कर रह गया।
यह सर्व विदित है कि भगवान बुद्ध और जैन मत के प्रवर्तक स्वामी महावीर ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते थे जिसकी चर्चा हमने उपर्युक्त पंक्तियों में भी की है। उन्होंने-अपनी अपनी कल्पायें कीं और उसी पर उनका मत स्थिर हुआ। ऐसा होने पर नास्तिकता के बढ़ने व धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष के बाधित होने से वैदिक मत के शुभ चिन्तक व उच्च कोटि के ईश्वर भक्त विद्वानों में चिन्ता का वातावरण बन गया। ऐसे समय में एक दिव्य पुरूष स्वामी शंकराचार्य जी का आविर्भाव होता है। वह भारत के दक्षिण प्रदेश में जन्में और उन्होंने अनेक वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किया जिससे वह अपने समय के सबसे अधिक तार्किक विद्वान तथा वेदान्त, गीता व उपनिषदों के सबसे बड़े विद्वान बने। उन्होंने जब बौद्ध मत व जैन मत के सिद्धान्तों का अध्ययन किया तो उन्हें ईश्वर के अस्तित्व को न मानने का सिद्धान्त असत्य व अनुचित लगा। सत्य का प्रचार व असत्य का खण्डन ही मनुष्यों का कर्तव्य भी है और धर्म भी। अतः इस धर्म का पालन करने के लिए उन्होंने तैयारी की। उन्होंने इन नास्तिक मतो के खण्डन के लिए अद्वैतवाद की विचारधारा को स्वीकार किया जिसके अनुसार संसार में केवल एक चेतन सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार तत्व-पदार्थ-सत्ता का ही अस्तित्व है जिसे ईश्वर-परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है। उन्होंने कहा कि हमें यह जो संसार दिखाई देता है वह हमारी बुद्धि के भ्रम के कारण दिखाई देता है जबकि उसका यथार्थ या वास्तविक अस्तित्व है ही नहीं। उन्होंने वा उनके अनुयायियों ने इसका एक उदाहरण दिया कि जैसे रात्रि के अन्धेरे में वृक्ष पर लटकी हुई रस्सी सांप प्रतीत होती है, ऐसे ही यह संसार हमें वास्तविक प्रतीत हो रहा है जबकि इसका अस्तित्व है ही नहीं। यह हमारा अज्ञान व भ्रम है। इसी प्रकार से उन्होंने सब प्राणियों को ईश्वर का ही अंश बताया और कहा कि इसका कारण अज्ञान है। अज्ञान जब दूर होगा तो जीव ईश्वर में समाहित होकर उसमें लीन हो जायेगा अर्थात् मिल जायेगा और तब जीव वा जीवात्मा का अस्तित्व नहीं रहेगा।
हमने भगवान बुद्ध व भगवान महावीर के ईश्वर के अस्तित्व को न मानने के सिद्धान्त की चर्चा की है। ऐसा उन्होंने ईश्वर के बनाये या दिये गये ज्ञान वेद व इनके नाम पर हिंसा के व्यवहार के कारण किया था। हमें लगता है कि इसके लिए यह आवश्यक था कि वेद के नाम पर यज्ञों में जो हिंसा होती थी उसका खण्डन किया जाता और वेदों का शुद्ध स्वरूप प्रस्तुत किया जाता। इसके साथ ही ईश्वर को सृष्टि, समस्त प्राणियों तथा वेद ज्ञान का रचयिता सिद्ध किया जाता। परन्तु ऐसा नहीं किया गया। यह तो कहा गया कि ईश्वर का अस्तित्व है और उसे तर्कों से सिद्ध किया गया जिससे नास्तिक मत पराभूत हुए, परन्तु वेदों पर पशुओं की हत्या व हिंसा करने वा कराने के जो आरोप थे और जिस हिंसा की प्रेरणा ईश्वर ने वेदों के द्वारा की गई बताई जा रही थी, उनका खण्डन व वेदों के सत्य अर्थों का प्रकाश व उनका मण्डन नहीं किया गया। इस कारण ईश्वर व वेदों पर हिंसा की प्रेरणा करने के आरोप स्वामी शंकराचार्य जी के शास्त्रार्थ के बाद भी यथावत् बने ही रहे। क्या यह नहीं किया जाना था या इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी? हमें लगता है कि यह कार्य अवश्य किया जाना चाहिये था परन्तु स्वामी शंकराचार्य जी का अल्पायु में निधन व अन्य अनेक कारणों से सम्भवतः वह ऐसा नहीं कर सके थे। हमने इसके लिए अपने एक मित्र के साथ स्वामी शंकराचार्य जी के अनुयायी, एक उपदेशक विद्वान से भी चर्चा की। इससे हमें यह ज्ञात हुआ कि स्वामी शंकराचार्य जी ने यज्ञ में हिंसा उचित है या अनुचित, इस भीष्म प्रश्न पर ध्यान नहीं दिया अर्थात् इसकी उपेक्षा की। इसका परिणाम यह हुआ कि यज्ञों के सत्य स्वरूप, उनका पूर्णतः अंहिंसात्मक होना, का प्रचार न हो सका और जो चल रहा था वह प्रायः चलता रहा या कुछ कम हुआ। इसी कारण वेदों का महत्व भी स्थापित न हो सका और उनका संरक्षण व रक्षा न हो सकी। स्वामी दयानन्द के जीवनकाल सन् 1825-1883 तक आते-आते देश में वेदों की उपलब्धि प्रायः विलुप्ति व अप्राप्यता की सी हो गई थी जिसकी खोज महर्षि दयषनन्द ने अपने अद्भुत ब्रह्मचर्य के तप, विद्या व पुरूषार्थ से की। यदि वह, वह न करते जो उन्होंने किया, तो हमें लगता है कि वेद सदा-सर्वदा के लिए विलुप्त व अप्राप्य हो जाते। आज हमें वेद व उनके मन्त्रों के सत्य अर्थ उपलब्ध हैं, वह महर्षि दयानन्द के तप व पुरूषार्थ का परिणाम है और इसका पूर्ण श्रेय उन्हीं को है। मानव जाति के लिए यह कार्य इतना हितकारी हुआ है कि जिसकी प्रंशसा के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। यदि वह यह कार्य न करते तो, ऐसी अवस्था में, सब मत-मतान्तरों की मनमानी चलती रहती। उनके द्वारा वेदों की प्रमाणिक पाण्डुलिपियों की खोज, उनके पुनरूद्धार व सत्य व यथार्थ वेदार्थ अथवा वेद भाष्य से लोगों को ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान हुआ और साथ ही जीवात्मा, कारण प्रकृति व कार्य प्रकृति के भेद व अन्तर का पता भी चला। महर्षि दयानन्द प्रदत्त यह त्रैतवाद का सिद्धान्त ही वास्तविक, यथार्थ, सत्य व निभ्र्रान्त सिद्धान्त है। महर्षि दयानन्द द्वारा किए गये वेदों के भाष्य, वैदिक रहस्यों के उद्घाटन व सिद्धान्तों एवं मान्यताओं के प्रकाशन से सभी मत-मतान्तरों में मिश्रित असत्य, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान समाज में उद्घाटित हुआ। हम समझते हैं कि यह महर्षि दयानन्द की संसार को बहुमूल्य व दुर्लभ देन है। इसके लिए महर्षि दयानन्द विश्व समुदाय की ओर से अभिनन्दनीय है।
इस लेख में हम यह कहना चाहते हैं कि स्वामी शंकराचार्य जी ने नास्तिकता का खण्डन किया और ईश्वर के अस्तित्व व स्वरूप का अपनी विचारधारा के आधार पर मण्डन किया। देश, काल व परिस्थितियों के अनुरूप उनका यह कार्य बहुत सराहनीय था। इसके अतिरिक्त ईश्वर व वेदों पर पशु हत्या की प्रेरणा देने और पशु के मांस से यज्ञ करने का जो मिथ्या दोष, यज्ञकर्ताओं के मिथ्याज्ञान व स्वेच्छाचारिता के कारण, लगा था, उसका परिमार्जन स्वामीजी शंकराचार्य जी ने नहीं किया। सम्भवतः इसी कारण वेदों का समुचित संरक्षण भी उनके व बाद के समय में नहीं हो सका। वेदों पर लगाये गये वेदेतर मतावलम्बियों के मिथ्या अनेक दोषों का खण्डन, वेदों के सत्य अर्थों का प्रकाशन व वेदों के ईश्वर से उत्पन्न, हर काल में इनके प्रासंगिक, उपयोगी व अपरिहार्य होने का मण्डन महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने जीवन काल में किया जिसके लिए वह सर्वतोभावेन प्रंशसा व अभिनन्दन के पात्र हैं। उन्होंने न केवल वेदों का पुनरूद्धार ही किया अपितु वेद मन्त्रों के सत्य अर्थों को प्रकाशित कर हमें प्रदान किया। उन्होंने विश्व के सभी मनुष्यों को उनके वेदार्थों की परीक्षा करने की व्याकरण की आर्ष प्रणाली, अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरूक्त पद्धति भी हमें प्रदान की है, जिसके लिए सारी मानवजाति इस सृष्टि के प्रलय होने तक उनकी कृतज्ञ रहेगी। हमारा अनुमान है, जो कि सत्य हो सकता है कि आज यदि स्वामी शंकराचार्य जी होते तो वह निष्पक्ष व न्याय के पक्षधर होने के कारण महर्षि दयानन्द के कार्यों के सबसे बड़े प्रशंसक होते। उपसंहार में यह कहना है कि स्वामी शंकराचार्य जी को वेदो पर यज्ञों में पशु हिंसा के मिथ्या आरोपों का खंडन करना चाहिए था और इसके साथ चारों वेदो का सरल , सुबोध एवं प्रामाणिक भाष्य भी करना चाहिए था जो कि वह नहीं कर सके। यह सभी कार्य महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने करके वेदों की वास्तविकता संसार के सामने रखी। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।
ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना को न स्वीकार करने मात्र से किसी मत को नास्तिक मत कह देना उचित नहीं है|
हो सकता है ईश्वर की जिस अवधारणा को विश्व के दूसरे मत स्वीकार करते हैं वो गलत हों और महावीर या बुद्ध की मान्यता सही हो?कृपया ईश्वरीय अवधारणा की व्याख्या हमें समझकर अनुग्रहित करें|
धन्यवाद
वेद निन्दक व वेद विरोधी को नास्तिक कहते हैं। वेद ईश्वर के द्वारा सृष्टि की रचना व धारण – पोषण को स्वीकार करते हैं। इससे सम्बन्धित सभी प्रश्नों का युक्ति व तर्क पूर्ण उत्तर महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश में दिया है। अतः जो कोई भी वेद विरूद्ध बात कहेगा व आचरण करेगा वह नास्तिक कहा जा सकता है। नास्तिक का अर्थ है कि वैदिक मान्यताओं को स्वीकार न करने वाला। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण है। वेद विरूद्ध कोई भी मान्यता तभी स्वीकार हो सकती है कि जब कि तर्क, युक्ति व प्रमाणों से वेद की मान्यताओं को असत्य सिद्ध किया जाये व विपरीत मान्यताओं को सत्य सिद्ध किया जाये अर्थात् वह निभ्र्रान्त हों। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश आदि में जो प्रश्न उठाये व उनके उत्तर दिये हैं, उन्हें यदि कोई मिथ्या सिद्ध कर दे और अपनी बात को प्रमाणित सिद्ध कर दे तो उस पर विचार हो सकता है। यद्यपि यह होना सम्भव नहीं है। अल्पज्ञ जीवों की बातें सत्य व असत्य दोनों प्रकार की होती हैं। सर्वज्ञ ईश्वर की कोई बात गलत नहीं हो सकती। कृप्या ईश्वर के स्वरूप को विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश व महर्षि दयानन्द के इतर ग्रन्थ पढ़ने का कष्ट करें। पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय के ग्रन्थ ‘आस्तिकवाद’ एवं अन्य कई ग्रन्थ भी विशेष उपयोगी हैं। मैं समझता हूं कि यदि सत्यार्थ प्रकाश निष्पक्ष होकर पढ़ेगें तो लाभ होगा।
कृपया हमें जानकारी दे कि क्या आपने बौद्ध और जैन मत को निष्पक्ष रूप से अध्ययन किया है और जो तर्क आप बुद्ध और महावीर को सर्वज्ञ न होने के लिए दिए हैं वे किस आधार पर दिए हैं ?
अध्ययन कर ही कोई व्यक्ति कोई बात कहता है। महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के बारहवें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध व जैन मत पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। सम्भवतः आपने पढ़े होंगे। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। इस बारे में सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर विस्तार से जाना जा सकता है। ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण वेद स्वतः प्रमाण एवं परम प्रमाण हैं। कोई भी वेद विरूद्ध मान्यता सत्य नहीं हो सकती। वेदों के अनुसार ईश्वर अनादि, अजन्मा, अमर व अनन्त है। इसलिए ईश्वर का जन्म पूर्वकाल में न कभी हुआ है और न भविष्य काल में होगा। जिनका जन्म सृष्टि में हुआ है, वह सब जीवात्मा थे व होते हैं एवं होंगे। गुण, कर्म व स्वभाव तथा ज्ञान व आचरण आदि से सशरीर जीवों में परस्पर भिन्नता, निम्नता व उच्चता होती है। यह वैदिक सिद्धान्त सत्य व अटल है। सर्वज्ञ केवल ईश्वर है। जीवात्मा एकदेशी होने से अल्पज्ञ है। वह सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। यह भी वेदों का अकाट्य सिद्धान्त है। यदि कोई एक होगा तो भूतकाल में भी अनेक हो सकते हैं और भविष्य में भी अनेक हो सकते हैं व मानने होंगे। यह सम्भव नहीं है। अतः निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा, अमर व सृष्टिकत्र्ता ईश्वर ही एकमात्र सर्वज्ञ है अन्य कोई नहीं।
अध्ययन कर ही कोई व्यक्ति कोई बात कहता है। महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के बारहवें समुल्लास में चारवाक, बौद्ध व जैन मत पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। सम्भवतः आपने पढ़े होंगे। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। इस बारे में सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर विस्तार से जाना जा सकता है। ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण वेद स्वतः प्रमाण एवं परम प्रमाण हैं। कोई भी वेद विरूद्ध मान्यता सत्य नहीं हो सकती। वेदों के अनुसार ईश्वर अनादि, अजन्मा, अमर व अनन्त है। इसलिए ईश्वर का जन्म पूर्वकाल में न कभी हुआ है और न भविष्य काल में होगा। जिनका जन्म सृष्टि में हुआ है, वह सब जीवात्मा थे व होते हैं एवं होंगे। गुण, कर्म व स्वभाव तथा ज्ञान व आचरण आदि से सशरीर जीवों में परस्पर भिन्नता, निम्नता व उच्चता होती है। यह वैदिक सिद्धान्त सत्य व अटल है। सर्वज्ञ केवल ईश्वर है। जीवात्मा एकदेशी होने से अल्पज्ञ है। वह सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। यह भी वेदों का अकाट्य सिद्धान्त है। यदि कोई एक होगा तो भूतकाल में भी अनेक हो सकते हैं और भविष्य में भी अनेक हो सकते हैं व मानने होंगे। यह सम्भव नहीं है। अतः निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा, अमर व सृष्टिकत्र्ता ईश्वर ही एकमात्र सर्वज्ञ है अन्य कोई नहीं।
Reply to Shri R. Singh ji’s questions on hindi article “Budh7Jain Section, Swamy Shankaracharya ji ….’
उत्तरः-
1- वेदों में ईश्वर के किसी अवतार का वर्णन नहीं है।
2- वेद एकेश्वरवाद के प्रतिपादक हैं। इसके साथ वेद के अनुसार जीवात्माओं एवं प्रकृति का पृथक अस्तित्व भी सिद्ध है जो कि अनादि, नाशरहित व नित्य स्वरूप वाला है।
3- वेद और मनुस्मृति दोनों में चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की चर्चा है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। मनुस्मृति भगवान मनु द्वारा रचित अति प्राचीन ग्रन्थ है जिसका आधार वेद ही हैं। उदाहरण के रूप में देश के संविधान को ले सकते हैं। इसके आधार पर जिस प्रकार से भारतीय कानून आदि बनाये गये हैं उसी प्रकार वेद के आधार पर गनुस्मृति की रचना मनु महाराज ने की है जो कि एक ऋषि थे और प्राणी मात्र के हितैषी थे। उन्होंने शूद्र वर्ण का जो उल्लेख किया है वहां उसका अर्थ विद्याहीन क्षत्रियों व वैश्यों के कार्यों में अदक्ष व गुणों की न्यूनता वाले व्यक्ति से है जो सेवा के कार्य कर सकता है व करता है। उसे अन्य वर्णों के समान स्वयं भी सम्मान से जीने का समान अधिकार प्राप्त है व विद्या ग्रहण में भी उसके प्रति किसी प्रकार का अनुचित बन्धन, पक्षपात व भेदभाव नहीं है। इसके विपरीत यदि मनुस्मृति में कहीं कुछ पाया जाता है तो वह उत्तरकाल के स्वार्थी लोगों के प्रक्षेप हैं। मनुस्मृति को मानवधर्म शास्त्र की संज्ञा दी गई है। अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ होने के कारण मनुस्मृति में उत्तरकाल में कुछ साम्प्रदायिक लोगों ने प्रक्षेप करके इसके मूल स्वरूप को विकृत कर दिया। शुद्ध मनुस्मृति के लिए आप आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, 455 खारी बावली, दिल्ली-110006 से प्राप्त कर सकते हैं। एक अलंकारिक उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि कि गाय वेद के समान है. उसका दूध मनुस्मृति है तथा दूध दुहने वाला व्यक्ति महर्षि मनु है। यह काल्पनिक उदाहरण इन पंक्तियों के लेखक का बनाया हुआ है जो कि समझाने के लिए है। यह कुछ त्रुटिपूर्ण भी हो सकता है।
4- वेदों के शब्द यौगिक हैं। वह रूढ़ शब्द नहीं है जैसे की सभी भाषाओं में हैं। वेदों के शब्दों के अर्थ जानने के लिए अष्टाध्यायी, -महाभाष्य व निरूक्त का अध्ययन कर इनके धातुज अर्थों को प्रसंगानुसार ग्रहण किया जाता है। अश्व शब्द के अनेक अर्थ हैं जिनमें से एक अर्थ राष्ट्र भी है। अश्वमेध का अर्थ राष्ट्र की रक्षा के कार्य व राष्ट्र की उन्नति के सभी कार्यों से है। इसके लिए वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। घोड़ा अर्थ भी अश्व से अभिप्रेत है परन्तु अश्वमेध में घोड़ा अर्थ अभिप्रेत न होकर राष्ट्र अर्थ अभिप्रेत है। अश्वमेध का वहां यदि धोड़ा अर्थ भी करें तो अश्वमेध का अर्थ होगा कि अश्व की नस्ल में सुधार व उन्नति जिससे उसकी क्षमताओं को बढ़ाया जा सके। इसी प्रकार से गोमेध में भी गो के अनेक अर्थों में से पृथिवी व गाय आदि अर्थ है। यदि गोमेध से गाय अर्थ भी लें तो गोमेध का अर्थ यज्ञ करते हुए गो को काटकर यज्ञ में आहुति देना कदापि नहीं है अपितु गोमेध का अर्थ गो की नस्ल में सुधार कर उससे दुग्ध की गुणवत्ता में सुधार व मात्रा में वृद्धि करना होता है। इसी प्रकार के अन्य अर्थ भी हो सकते हैं। यह ध्यातव्य है कि यज्ञ एक पूर्ण अंहिसात्मक कर्म है। इसमें किन्हीं परिस्थितियों में भी हिंसा का प्रयोग निषिद्ध है। यह मध्यकाल के लोगों के स्वार्थ के कारण हुआ जिन्होंने प्राचीन ग्रन्थों में भी अपनी मान्यताओं का प्रक्षेप कर दिया।
हम आपकी जानकारी के लिए डा. रामनाथ वेदालंकार की एक पुस्तक ”वेद भाष्यकारों की वेदार्थ प्रकियायें” पुस्तक से कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ”वैदिक भाषा की यह एक अनुपम विशेषता है कि उसके शब्दों को अर्थ की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों में फैलाया जा सकता है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण यज्ञ शब्द है। यज्ञ केवल अग्नि में हव्य पदार्थों का होम करना ही नहीं है अपितु ब्रह्मयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, कर्मयज्ञ, जीवनयज्ञ, सृष्टियज्ञ, संवत्सरयज्ञ, राष्ट्रयज्ञ, संग्रामयज्ञ आदि सभी यज्ञ हैं। अन्य उदाहरयण गौ, रयि, द्रविण, रत्न, अहंस्, रपस्, दुरित, बर्हिम्, श्रवस्, वाज, भग, पथिन्, वृक, रक्षस्, पिशाच आदि शब्दों के लिये जा सकते हैं। वेद की गौएं केवल गाय पशु ही नहीं है, अपितु भूमियां, सूर्यकिरणें, इन्द्रियां, ज्ञानरश्मियां, गो-दुग्ध की धारें, गोदुग्ध-जन्य पदार्थ नवनीत आदि. सूर्य-चन्द्र प्रभृति लोक-लोकान्तर, धनुष की प्रत्यंचाएं, वाणियां, विद्युत, अन्तरिक्ष, द्यौ, अन्न, इत्यादि अनेक पदार्थ गो-शब्द वाच्य हैं।“ अस्तु। यही स्थिति अश्व शब्द की भी है।
5- जहां तक मैंने पढ़ा व समझा है भगवान बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे। इससे सम्बन्धित उनके जीवन में कोई उदाहरण नहीं देखने को मिलता। उन्हें ईश्वर का अवतार माना जाता है यह हमारे पौराणिक समाज की एक विशेष भावनात्मक स्थिति हैं। जिसमें उन्होंने मनुष्यों सहित अनेक पशुओं, गंगा आदि नदियों में भी ईश्वर के अवतार या ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न होने की कल्पना ही नहीं की, अपितु उनको ईश्वर का अवतार व ईश्वरसम माना गया है। वेदों के आधार पर अवतारवाद की मान्यता मिथ्या मान्यता है जिसका सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है व तर्क से इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता।
6- यद्यपि हमारे पास महावीर स्वामी को अवतार मानने के प्रत्यक्ष प्रमाण तो नहीं है परन्तु हमारे पौराणिक बन्धु उन्हें भी एक अवतार की ही दृष्टि से देखते हैं और आदर देते हैं। इसमें दो राय नहीं की वह भी अपने समय के युगपुरूष थे जिन्होंने अहिंसा को अपनाया था। मूर्तिपूजा भी उन्हीं के शिष्यों से चली है. ऐसा अनुमान व युक्ति प्रमाण से सिद्ध है। यह आवश्यक नहीं कि किसी भी मत प्रवर्तक की सभी बातें व मान्यतायें सत्य हों। कुछ मान्यतायें सत्य होती हैं व कुछ असत्य होती हैं। हमें सबका विशद अध्ययन कर सत्य को ग्रहण करना चाहिये और असत्य का परित्याग करना चाहिये। सत्य का ग्रहण करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी है। महर्षि दयानन्द ने स्वयं का अवतार न होने का उल्लेख किया है। अतः उन्हें अवतार नहीं माना जाता। अनेकानेक अच्छे कार्य करने के कारण वह महापुरूष व युगपुरूष कहे जा सकते हैं। उन्होंने अपना कोई मत नहीं चलाया अपितु सबसे प्राचीन वेद मत में जो प्रक्षेप कर दिये गये थे, उनका संशोधन किया और देश व विश्ववासियों को सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने का आह्वान किया। हमने उनके प्रायः सभी उपदेशों व लेखों को पढ़ा है। हमें सभी सत्य प्रतीत होते हैं। हमने अपने आत्मा व बुद्धि के स्तर से उनकी परीक्षा भी की है। इसी कारण हम उनकी उन बातों को मानते हैं और हमें लगता है सारी दुनियां के लोगों के लिए वहीं अनुकरणीय एवं आचरणीय हैं।
महावीर स्वामी ईश्वर का अवतार थे या नहीं इसके लिए हमने अपने एक 70 वर्षीय जैन मत के अनुयायी स्वाध्यायशील मित्र से चर्चा की। उन्होंने बताया कि वह महावीर स्वामी को ईश्वर का अवतार नही मानते। उनका कहना था कि जब हम ईश्वर को ही नहीं मानते तो ईश्वर का अवतार मानने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। हां, हम स्वामी आदिनाथ, वृषभदेव जी आदि 24 तीर्थंकरों को मानते हैं जो अपनी ज्ञान व साधना से इस उच्च स्थिति को प्राप्त हुए हैं।
7- हिन्दू धर्म क्या है? इसका उत्तर जितनी मेरी समझ है, यह है कि मध्यकाल में वैदिक मत में अनेक मत बन गये। कोई ईश्वर को निराकार मानता है, तो कोई साकार, कोई एकेश्वरवाद व अद्वैतवाद को मानता है तो कोई त्रैतवाद को, कोई मूर्तिपूजा, व्रतोपवास आदि करके ईश्वर की प्राप्ति बताता है तो कोई सदाचार, परोपकार, सेवा, सन्ध्या व यज्ञ, माता-पिता व विद्वानों की सेवा द्वारा ईश्वर की प्राप्ति बताता है। इसी प्रकार से वेदों को मानने वाले भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायी सम्प्रति हिन्दू धर्म से लक्षित होते हैं। ईश्वर को जो मानता है वह भी हिन्दू, जो नहीं मानता वह भी हिन्दू, जो मूर्तिपूजा करता है वह भी हिन्दू और जो नहीं करता वह भी हिन्दू, जो फलित ज्योतिष को माने वह भी हिन्दू और जो न माने वह भी हिन्दू। इससे हिन्दू धर्म को समझा जा सकता है कि हिन्दू धर्म का सर्वमान्य कोई एक निश्चित सिद्धान्त नहीं है। हां, यह सब प्रायः वेदों को मानते हैं, पुनर्जन्म को भी मानते हैं, शव का दाह संस्कार करते हैं. ऐसी अनेक समानतायें हैं।
सनातन धर्म का अर्थ नित्य, सदा से चले आ रहे धर्म से है। हिन्दू धर्म तो मुस्लिम काल से कुछ पूर्व व पौराणिक काल में अस्तित्व में आया है। हिन्दू शब्द का प्रयोग न तो वेदों में हुआ है और न रामायण, महाभारत, गीता आदि ग्रन्थों में ही। यह मूलतः अरबी भाषा का शब्द है। अरबवासी मुस्लिमों द्वारा भारत के लोगों को हिन्दू कहकर अपमानित किया जाता था और यहां के लोगों के धर्म को वह हिन्दू धर्म कहते थे. ऐसा अनुमान होता है। महर्षि दयानन्द ने सप्रमाण इसका उल्लेख किया है। सनातन धर्म, -वेद धर्म, वेद मत व शुद्ध वैदिक धर्म के लिये प्रयोग किया जाता है और यही उचित भी है। यदि पौराणिक बन्धु स्वयं को सनातन धर्मी कहें तो महाभारत व रामायण काल में 18 पुराणों में से एक भी विद्यमान न होने के कारण इसकी संज्ञा व विशेषण सनातन कदापि नहीं हो सकता। सनातन धर्म वस्तुत वह धर्म है जिसका निरूपण सृष्टि की आदि में परमात्मा ने ऋषियों को ज्ञान देकर किया था जो कि वैदिक धर्म है।
8- क्या आर्य समाजी भी हिन्दू हैं? इसका उत्तर है कि आर्य समाज वैदिक धर्मी या वेद मतावलम्बी हैं। सामाजिक एकता के लिए यदि कोई आर्य समाजियों को हिन्दू कहता है तो यह हमें स्वीकार है क्योंकि अधिंकाश हिन्दू इन पौराणिक मत से ही बने हैं और हमारी अनेक मान्यतायें एवं सिद्धान्त समान भी है। हम परस्पर परिवारों में अपने बच्चों के विवाह आदि सम्बन्ध भी करते हैं और जीवन निर्वाह में कोई बाधा नहीं है। परन्तु ज्ञान व विवेक से हम आर्य, आर्य धर्म के मानने वाले या वैदिक धर्मी कहलाना पसन्द करते हैं। आर्य शब्द का वेदों में अनेक स्थानों पर प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाला मनुष्य।
मैंने अपनी बुद्धि से उत्तर दिए हैं। यदि आपको किसी उत्तर विशेष पर आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। मैं अपने विद्वानों से उसका समाधान कर आपको सूचित कर सकता हूं। एक बात यह भी कहनी चाहता हूं कि हमें परस्पर प्रेम पूर्वक वार्तालाप करना है। आप कुछ भी मानें, आप अपनी जगह कुछ भी मानने के लिए स्वतन्त्र हैं। हम तो सत्य व असत्य की बात कर रहे हैं। यदि हममें सहमति बन सके तो यह अच्छी बात होगी। आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा है।
यह भी विवेदन है कि यह विचार मेरे निजी विचार है. इनका आर्य समाज से सामीप्य है या हो सकता है परन्तु इसके लिए आर्य समाज कदापि उत्तरदायी नहीं है। मै सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग करने में विश्वास रखता हूँ। यदि आप के पास मेरे विचारों के विरुद्ध कोई प्रमाण है तो अवगत कराएं। पुष्ट होने पर उन्हें स्वीकार किया जा कसता है।
सादर। —- समाप्त —–
-मनमोहन कुमार आर्य
मन मोहन आर्य जी ,पहले तोमैं आपको धन्यवाद देना चाहूंगा,क्योंकिआपने मेरे उन प्रश्नों का भी विद्व्ता पूर्ण उत्तर दिया ,जो दूसरों की दृष्टि में शायद अनर्गल थे.आपने बहुत हद तक मेरी शंकाओं का समाधान किया है.प्रश्न अभी बहुत हैं.आपका यह दृष्टिकोण देखकर मुझे लगने लगा है कि उनके उत्तर मुझे मिलते रहेंगे.
मैं चाहूंगा कि” भगवान के गवाह” श्री विनोद भी इन उत्तरों को देख लें.
मैं जब ये प्रश्न उठाता हूँ ,तो मेरा मतलब केवल यह होता है कि असल धर्म को पाखंडों से हट कर देखा जाए. अगर ऐसा हो जाए,तो बहुत सी गलतफहमियां दूर हो जाए. धर्म या मजहब आपस में भाईचारा सिखाता है,वैमनष्य नहीं,पर आज तक जितने युद्ध हुए हैं,उसमे अधिकतर धर्म या पंथ का नाम पर ही लड़े गए है.आज भी यह सिलसिला जारी है.
श्री. सुज्ञ जी की टिप्पणी नें ध्यान खींचा।
उत्तर, शीघ्र ही पढ गया। पर उत्तर बहुत सटीक पाया।
मनमोहन आर्य जी को धन्यवाद।
एन्सायक्लोपेडिया ऑफ़ ऑथेन्टिक हिन्दुइज़्म भी मनुस्मृति में प्रक्षेपित सामग्री की तर्क सहित चर्चा करता है।
मनुस्मृति की हस्तलिखित पाण्डु लिपियाँ, (ग्रंथ) रॉयल एशियाटिक सोसायटी ने, लाखों की संख्या में बाहर भेजी; और फिर उनसे छेड छाड भी की गयी है। परस्पर विपरित अर्थों के श्लोक एक ही विषय के जब पाए जाएँ, तो, किसपर विश्वास किया जाए?
एशियाटिक सोसायटियाँ हमारी संस्कृत पाण्डु लिपियाँ बाहर भिजवाने का तंत्र थीं। जो छद्म रूप से चलाया गया। गुरुकुलों को सहायता बंद कर दी गयी। “संस्कृत को मारे बिना, भारत नहीं मरेगा” यह उनका सिद्धान्त था।
ऑक्सफर्ड में प्रवेश करते ही सामने विलियम जोन्स की प्रतिमा (खुदी हुयी?) लगी है। ३ पण्डित भूमिस्थ बैठे हैं। और ऊंचे आसन पर विलियम जोन्स; जो पन्डितों की कण्ठस्थ सामग्री को अपनी वही में उतार रहा है।
क्या दृश्य है, समझे?
ज्ञानी भूमिपर और अज्ञानी आसन पर?
क्यों, संस्कृत को गत २००+ वर्षों से मारा जा रहा है?
मेरा उत्तर: उसके मरे बिना संस्कृति मर नहीं सकती।
संस्कृति मरे बिना भारत मर नहीं सकता।
इसाइयत फैल नहीं सकती।
संस्कृत को पनपाइए भारत अमर हो जाएगा।
डॉ. मधुसूदन
आपकी प्रतिक्रिया को एकाग्र होकर पढ़ा। बहुत लाभप्रद व यथार्थ विचार आपने प्रस्तुत किये हैं। मैं हृदय से आभारी हूं। आपका वन्दन करता हूं। कृपया मुझ पर अपनी कृपा बनाये रखें। कृपया सम्पर्क करने के लिए उंदउवींदंतलं/हउंपसण्बवउ पर अपना इमेल सूचित करने की कृपा करें। हार्दिक धन्यवाद।
कृपया अपना इमेल मेरी इमेल manmohanarya@gmail.com पर सूचित करने की कृपा करें। हार्दिक धन्यवाद।
Bhai R sing apko koi bhi jawab chahia sahi sahi to mujhe call Karo mai apki jarur madat karunga 08108232942
mujhe khushi hogi
bhagvan ka gavah hu mai
vinod maurya
यह “भगवान का गवाह” क्या होता है? मैंने जो प्रश्न उठाये हैं,वे आपके सामने हैं.अलग से फोन करने की क्या आवश्कताहै?
आपका यह “भगवान का गवाह हूँ मैं ” मेरी समझ में नहीं आया. रही बात फोन पर प्रश्नों के उत्तर की,तो इसकी क्या आवश्यकता है? क्या आप अपना उत्तर प्रवक्ता के माध्यम से नहीं दे सकते? फिर ये प्रश्न तो मन मोहन आर्य से पूछे गए हैं. मुझे तो लगता है कि इन प्रश्नों के उत्तर देने में वे पूर्ण सक्षम हैं.
मनमोहन आर्य जी, आपके आलेखों को मैं प्रायः पढता हूँ और उनसे कुछ सीखने की चेष्टा करता हूँ. मन में कुछ शंकाएं भी उठती रहती है,पर साधरणतः मैं उसको व्यक्त नहीं करता,पर आज लगता है कि समय आ गया है कि कुछ प्रश्न आपके समक्ष रखूँ.मुझे उम्मीद है कि आप उनका उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयत्न करेंगे.
१.क्या वेदों में ईश्वर के किसी अवतार का वर्णन है?
२.क्या वेदों में एकेश्वरवाद की परिकल्पना है?
३. आपके अनुसार वेदों में चार वर्णों की चर्चा की गयी है.मुझे तो यह मालूम है कि यह वर्ण व्यवस्था मनुस्मृति का अंग है.वेदों और मनुस्मृति का आपस में क्या सम्वन्ध है?
४.आपके अनुसार वेदों में गोमेध ,अश्वमेध आदि यज्ञों का वर्णन है,अगर इन यज्ञों का गो और अश्व से सम्वन्ध नहीं है,तो इनका असली अर्थ क्या है/
५.आपके इस आलेख के अनुसार महात्मा बुद्ध नास्तिक थे,तो उनको भगवान का अवतार क्यों माना गया?
६.अगर उनको अवतार माना गया तो जैन धर्म के प्रवर्तक को अवतार क्यों नहीं माना गया? या फिर महर्षि दयानंद सरस्वती को अवतार क्यों नहीं माना गया?
७.हिन्दू धर्म क्या है?क्या यह सनातन मत या धर्म का ही दूसरा नाम या इसका कोई व्यापक अर्थ है?
८.क्या आर्य समाजी भी हिन्दू हैं?
प्रश्नों और जिज्ञासाओं की श्रृंखला अभी समाप्त नहीं हुई,पर मैं समझता हूँ कि कम से कम इन प्रश्नो का उत्तर तो मिले.
मनमोहन आर्य जी, आपके आलेखों को मैं प्रायः पढता हूँ और उनसे कुछ सीखने की चेष्टा करता हूँ. मन में कुछ शंकाएं भी उठती रहती है,पर साधरणतः मैं उसको व्यक्त नहीं करता,पर आज लगता है कि समय आ गया है कि कुछ प्रश्न आपके समक्ष रखूँ.मुझे उम्मीद है कि आप उनका उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयत्न करेंगे.
१.क्या वेदों में ईश्वर के किसी अवतार का वर्णन है?
२.क्या वेदों में एकेश्वरवाद की परिकल्पना है?
३. आपके अनुसार वेदों में चार वर्णों की चर्चा की गयी है.मुझे तो यह मालूम है कि यह वर्ण व्यवस्था मनुस्मृति का अंग है.वेदों और मनुस्मृति का आपस में क्या सम्वन्ध है?
४.आपके अनुसार वेदों में गोमेध ,अश्वमेध आदि यज्ञों का वर्णन है,अगर इन यज्ञों का गो और अश्व से सम्वन्ध नहीं है,तो इनका असली अर्थ क्या है/
५.आपके इस आलेख के अनुसार महात्मा बुद्ध नास्तिक थे,तो उनको भगवान का अवतार क्यों माना गया?
६.अगर उनको अवतार माना गया तो जैन धर्म के प्रवर्तक को अवतार क्यों नहीं माना गया? या फिर महर्षि दयानंद नान सरस्वती को अवतार क्यों नहीं माना गया?
७.हिन्दू धर्म क्या है?क्या यह सनातन मत या धर्म का ही दूसरा नाम या इसका कोई व्यापक अर्थ है?
८.क्या आर्य समाजी भी हिन्दू हैं?
प्रश्नों और जिज्ञासाओं की श्रृंखला अभी समाप्त नहीं हुई,पर मैं समझता हूँ कि कम से कम इन प्रश्नो का उत्तर तो मिले.