राजनीति में महिलाओं को हाशिये पर धकेलने वाले सभी राजनीतिक दलों के लिए
साल 2015 मे हुये कई चुनाव के नतीजे एक सबक है।जीवन के हर क्षेत्र मे
महिलायें सफलता के शिखर पर पहुंच रही हैं लेकिन अब वह राजनीति जैसे अंजान
क्षेत्र मे भी बेबाकी से अवसर तलाश रही हैं ।दरअसल राजनीति मे जमीन
तलाशती आज महिलायें दहलीज़ के पार हैं ।कल तक उसके जो सपने आंखों मे ही
चिपके रहते थे ,आज उन सपनों ने आकार लेना शुरू दिया है ।निर्भया जैसे
हादसों को चुनौती मानकर आज की नारी में आगे बढ़ने की छटपटाहट है , जीवन
और समाज के हर क्षेत्र में कुछ करिश्मा कर दिखाने की बेचैनी भी है। अपने
अथक परिश्रम से आधी दुनिया में नया सवेरा लाने और ऐसी सशक्त इबारत लिखने
की तमन्ना भी है जिसमें महिला अबला न रहकर सबला बन जाए ।मध्य प्रदेश से
लेकर राजस्थान ,झारखण्ड ,बिहार और उत्तर प्रदेश मे हालिया चुनावों मे
महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया ।बिहार मे तो महिलाओं ने विधान सभा
चुनावों मे पुरूषों से पांच फीसदी ज़्यादा मतदान करके चुनाव परिणामो का
अनुमान लगाने में चुनावी पंडितो का सारा गणित गड़बड़ा दिया था । राजनीति
मे महिलाओ की रिकार्ड हिस्सेदारी ने बतला दिया है कि वे बदलाव चाहती हैं,
बदलाव ऐसा जिसमें भ्रष्टाचार , जातपात, बाहुबल व अपराध न हो । पंचायतों
में मिले पचास प्रतिशत आरक्षण ने महिलाओं को राजनीति में प्रवेश के
दरवाजे खोले। पिछले दो दशकों में कुछ औरतों ने घर के दायरे से बाहर निकल
कर पंचायती राजनीति में कदम रखा है, चुनावों में सफलता भी पायी है, और
सरपंच बन कर ग्रामीण भारत को बदलने की कोशिश कर रही हैं। इसके बावजूद
महिलाएं जानती हैं कि मौजूदा राजनीति में जिस तरह पैसों और ताकत का
बोलबाला है, उससे निपटना आसान नहीं होगा। आजादी के बाद देश में जो
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव हुए उस बदलाव में स्त्रियों की
साझेदारी रही है। उसने घर और बाहर के मोर्चे पर दोहरी लड़ाई लड़ी। वह अपनी
क्षमता और कौशल को और अधिक तराश रही है। यह बात राजनीतिक दलों ने भी समझा
है और वे महिला वोटरों को आकर्षित करने के लिए अब महिलाओं के लिये पैकेज
के साथ चुनाव मैदान में उतरते हैं।वे जानते हैं इनका वोट उन्हें सत्ता
में ला सकता है और सत्ता के बाहर भी कर सकता है।मध्य प्रदेश ,राजस्थान
और बिहार के विधान सभा चुनावों मे ऐसा हो चुका है ।राजस्थान की सरकारी
बसों मे आज भी महिलाओं से 33 फीसउी कम किराया लिया जाता है । महिलाएं भी
अपनी ताकत को पहचान रही हैं। यही वजह है कि आज महिलाओं ने अपने अधिकार का
इस्तेमाल किया है। वे जानती है कि राजनीतिक ताकत के बगैर उन को उनके
हिस्से का आसमान उन्हें नहीं मिलेगा।
हाल ही में यूपी में संपन्न हुए ग्राम
प्रधान चुनावों में 44 फीसदी पदों पर महिलाओं ने कब्जा किया और इस
क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व तोड़ महिला सश्कितकरण की नई इबारत लिखी
है। प्रधान पदों पर आरक्षित कोटे से लगभग 11 प्रतिशत अधिक 43.86 फीसदी
सीटों पर विजय हासिल करके महिलाओं ने अपनी धाक बनाई है। जबकि, चुनावों
में महिलाओं का कोटा 33 प्रतिशत ही था।यानी उन्होने पुरूषों के हिस्से
की 11 फीसदी सीटें भी पुरूषों को हरा कर जीती हैं ।राजनीतिक हलके मे इसे
असल महिला सश्कितकरण कहा जा रहा है और इससे पता चलता है कि महिलाएं
भविष्य में राज्य में अपनी बड़ी भूमिका निभाएंगी ।यहां तक की मुस्लिम
महिलायों मे भी राजनीति की दिलचस्पी दिखी और मुस्लिम बाहुल्य जिलों
संभल, रामपुर एवं मुरादाबाद में भी महिलाएं आगे रहीं, यहां 50 फीसदी से
ज्यादा प्रधान पदों पर महिलाएं चुनी गईं। इस बार ऐसी महिलाएं भी प्रधान
बनी हैं जिनकी कोई राजनीतिक जमीन नहीं रही है।यही नही आजमगढ़ जिले में
112 साल की बुजुर्ग महिला ने भारी मतों से चुनाव जीत कर रिकॉर्ड बनाया
है। इनकी जीत का सबसे बड़ा कारण यह है कि इतनी बुजुर्ग होने के बाद भी
नौराजी देवी कभी घर में नहीं बैठती थी। गांव में किसी के यहां कोई भी
कार्यक्रम हो वह अपनी लाठी के सहारे पहुंच जाती और लोगों के सुख-दुख में
शरीक हुआ करती थी। सामाजिक व्यवस्था में गांव की सत्ता और विकास के
फैसलों में कुछ सम्पन्न एवं दबंग लोगों का ही वर्चस्व रहता आया है
।लेकिन महिलायें जागरूकता ,परिपक्वता और दूरदर्शिता से इसका मुकाबला कर
रही हैं ।जिसका नतीजा ये हो रहा है कि लोकतंत्र के प्रथम सोपान पंचायत मे
पैसे वाले प्रत्याशियों की चमक व धमक को नकारा जा रहा है ,करोड़पतियों
का असर कम हो रहा है और अपराधियों के चुनाव हारने का सिलसिला जोर पकड़
रहा है ।आगरा की मनियां ग्राम पंचायत मे सपेरा जाति की सविता प्रधान चुनी
गयी हैं ।सविता अपनी तरह की अकेली नही है उन जैसी कई युवतियां देश की
विभिन्न पंचायतों की कमान सम्भाल रही हैं ।चंदापुर से प्रधान बनी
कुसुमलता तो सरपत की डलिया बना कर ही चुनाव जीत गयीं ।तो वहीं धरैरा मे
21 साल की निलम देवी और कासिमपुर मे 22 बरस की पूजा को ग्राम सरकार का
मुखिया चुना गया ।राज्य र्निवाचन आयोग के मुताबिक 77 फीसदी से अधिक ऐसी
महिलाओं ने कामयाबी हासिल की है जिनकी चल सम्पत्ति 5 लाख से कम है
।प्रधानी का ताज उच्च शिक्षित महिलाओं ने भी पहना है जिसमे पीसीएस की
तैयारी रही र्मिजापुर के दुबारकला से जीती माया सिंह जैसी महिलायें भी
शामिल हैं ।
महिलायें बड़े कामों को भी अंजाम दे
रही है ।ऐसी ही एक मिसाल मध्यप्रदेश के धार जिले की जानीबाई भूरिया की भी
है । उन्होंने पूरे गांव में नशे पर पाबंदी लगा दी, फिर पहले घर-घर जाकर
लोगों को समझाया, नहीं मानने पर सार्वजनिक स्थल पर धूम्रपान करते पकड़े
जाने पर 200 रु. का जुर्माना लगा दिया गया। गुटखा-पाउच जब्त किए गये,
इसके लिए उन्हें खासा विरोध झेलना पड़ा लेकिन वे इसपर कायम रहीं, आज उनके
इस अभियान का असर गावं में दिखने लगा है ।ऐसी मिसालें दक्षिण भारत के
कर्नाटक ,केरल और राजस्थान की पंचायतों मे भी देखने को मिलती हैं ।भारत
की मुस्लिम महिलायें भी जम कर चुनौतियां पेश कर रही है ।कभी कभी तो वह
मौलवियों के तुगलकी फरमान को भी नजर अंदाज कर देती हैं । जैसा की
महाराष्ट्र के कोल्हापुर मे देखने को मिला था ,जब नगर निगम चुनाव में
मुस्लिम महिलाओं के भाग लेने पर मुस्लिम मौलवियों ने रोक लगा दी थी।लेकिन
महिलाओं ने एक नही सुनी और पूरे महाराष्ट्र की करीब 200 सीटों पर फतह भी
हासिल कर ली । यह धारणा अब खत्म हो रही है कि राजनीति महिलाओं की रुचि का
विषय नहीं है।लेकिन इसका ये मतलब कतई नही है कि सब कुछ 24 करैट सोने की
तरह ही है। दहेज के लिए पीड़ित होने वाली या जला दी जाने वाली औरतों की भी
कहानी इसी देश की है । अल्ट्रासाउंड जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से
भ्रूण हत्याओं भी यहीं होती है।देश की राजधानी मे भी औरतें महफूज़ नही
हैं और निर्भया जैसा दर्दनाक हादसा हो जाता है ।फिर कानूनी पेंच से एक
आरोपी रेडिकलाइज होने के बाद भी बच निकलता है ।जिससे पीड़िता की मां को
ये कहना पड़ता है कि जुर्म जीत गया और हम हार गये ।
तस्वीर का दूसरा रूख ये भी है कि भारत
में ही नागालैंड और पुडुचेरी की गिनती ऐसे राज्यों में है, जहां एक भी
महिला विधायक नहीं है ।त्रिस्तरीय पंचायत से इतर भारतीय राजनीति में
महिलाओं की मौजूदगी को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। चुनाव में
महिलाओं के मैदान में उतरने और मतदाता के रूप मे संख्या तो बढ़ती गई
लेकिन उस अनुपात में वे लोकसभा तक नहीं पहुंच सकीं। आजादी के बाद जब 1951
में पहली लोकसभा बैठी तो उसमें सिर्फ 22 महिलाएं थीं और अब पिछले चुनाव
में 66 महिलाएं लोकसभा सांसद चुनी गईं। यानी 63 साल में सिर्फ तीन गुना
महिला सांसद बढ़ीं। ये अब तक की सबसे अधिक संख्या है। इंटर
पार्लियामेंट्री यूनियन ने भारत को महिला सांसदों के मामले में दुनिया के
देशों में 103वें नंबर पर रखा है।जबकि सीरिया, नाइजर, बांग्लादेश, नेपाल
व पाकिस्तान के अलावा चीन व सिएरा लियोन जैसे देश इस मामले में भारत से
आगे हैं। वैश्विक आंकड़े आधी आबादी के लिए निराशाजनक है। खास तौर से तब
जब मतदान में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। वजह साफ है कि
राजनीतिक पार्टियां महिलाओं को ज्यादा उम्मीदवार बनाने में विशेष रूचि
नहीं लेती। इस लिये आईपीयू की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है।
महिला सशक्तिकरण पर जब भी विचार होता है, अक्सर राजनीति में महिलाओं के
कम प्रतिनिधित्व पर अफसोस जताया जाता है। महिलाओं को लोकसभा व राज्यों
की विधानसभाओं में 33 फीसद आरक्षण देने के लिए लगभग हर पार्टी सैद्धांतिक
रूप से सालो से सहमत है। सार्वजनिक मंच पर इसे वैचारिक बहस का मुद्दा
जरूर बना दिया जाता है लेकिन जब इस पर कानून बनाने की बात आती है तो सभी
बगले झांकने लगते हैं। आधे अधूरे तर्कों के सहारे महिला आरक्षण का विरोध
किया जाता है और उसके पैरोकार इसी को बहाना बना कर कदम पीछे खींच लेते
हैं।जबकि असल मे महिला आरक्षण बिल से कुछ बात बन सकती है, लेकिन यह ठंडे
बस्ते में पड़ा है। यह बिल 2010 में राज्यसभा में पारित हो चुका था, लेकिन
लोकसभा में हार गया।उम्मीद की जानी चाहिये कि नये साल का सूरज अपने साथ
महिलाओं के लिये नया सवेरा ले कर आयेगा ।
** शाहिद नकवी **