मनमोहन कुमार आर्य
मकर संक्रान्ति का पर्व प्रत्येक वर्ष 14 जनवरी को देश भर में मनाया जाता है। आजकल लोग पर्व तो मनाते हैं परन्तु बहुत से बन्धुओं को पर्व का महत्व व उससे जुड़ी हुई घटनाओं का ज्ञान नहीं होता। अतः यह आवश्यक है कि पर्व के सभी पक्षों को संक्षेप से जान लिया जाये। इस पर्व का पहला महत्व हमारे सौर मण्डल तथा मकर राशि से है। हम जानते हैं कि पृथिवी में दो प्रकार की गतियां होती हैं। एक तो यह अपने अक्ष परघूमती है। दूसरी गति इसके द्वारा सूर्य की परिक्रमा की जाती है जो एक वर्ष में पूरी होती है। एक परिक्रमा के काल वा समय को सौर वर्ष कहते हैं। पृथिवी का सूर्य की परिक्रमा का जो पथ होता है वह कुछ लम्बा वर्तुलाकार होता है। मकर संक्रान्ति के दिन से चल कर पुनः उसी स्थान पर आने वा सूर्य का एक पूरा चक्र करने के मार्ग व परिधि को ‘‘क्रान्तिवृत्त” कहते हैं। हमारे ज्योतिषियों द्वारा इस क्रान्तिवृत्त के 12 भाग कल्पित किए हुए हैं और उन 12 भागों के नाम उन-उन स्थानों पर आकाश के नक्षत्र पुंजों से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिये गए हैं। यह बारह नाम हैं, मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। क्रान्तिवृत पर कल्पित प्रत्येक भाग व नक्षत्रपुंजों की आकृति “राशि” कहलाती है। पृथिवी जब एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश व संक्रमण करती है तो इस संक्रमण को ही “संक्रान्ति” कहा जाता है। लोकाचार में पृथिवी के संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं। मकर संक्रान्ति का अर्थ हुआ कि सूर्य मकर संक्रान्ति के दिन मकर राशि में प्रवेश करता है। 6 महीनों तक सूर्य क्रान्तिवृत से उत्तर की ओर उदय होता है और 6 मास तक दक्षिण की ओर से निकलता रहता है। इन 6 मासों की अवधि का नाम ‘अयन’ है। सूर्य के उत्तर की ओर से उदय की 6 मास की अवधि का नाम ‘उत्तरायण’ और दक्षिण की ओर से उदय की अवधि को ‘दक्षिणायन’ कहते हैं। उत्तरायण काल में सूर्य उत्तर की ओर से उदय होता हुआ दीखता है और उस में दिन का काल बढ़ता जाता है तथा इस अवधि में दिन के बढ़ने से रात्रि का काल कम होने से रात्रि घटती है, इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया जाता है। दक्षिणायन में सूर्योदय क्रान्तिवृत्त के दक्षिण की ओर से उदय होता हुआ दृष्टिगोचर होता है और उसमें दिन की अवधि घटती है तथा रात्रि की अवधि में वृद्धि होती है। सूर्य जब मकर राशि में प्रवेश करता वा संक्रान्त होता है तो इसको उत्तरायण का आरम्भ होना तथा कर्क राशि में प्रवेश से दक्षिणायन का आरम्भ होना माना जाता है जिन दोनों अयनों की अवधि 6 माह होती है। उत्तरायण में दिन बढ़ने व रात्रि छोटी होने से पृथिवी पर प्रकाश की अधिकता होती है, इस कारण इस उत्तरायण का महत्व दक्षिणायन से अधिक माना जाता है। उत्तरायण के महत्व का आरम्भ मकर संक्रान्ति से होने के कारण मकर संक्रान्ति (14 जनवरी) के दिवस को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है और इस दिन को पर्व के रूप में मनायें जाने की प्रथा है। यह भी जानकारी दे दें कि ज्योतिष के आचार्य बतातें हैं कि उत्तरायण का आरम्भ मकर संकान्ति के दिन से पहले हो जाता है परन्तु मकर संक्रान्ति पर्व पर ही दोनों पर्व एक साथ मनाये जाने की परम्परा चली आ रही है। भविष्य में इन्हें अलग अलग तिथियों पर मनायें जाने पर विचार भी किया जा सकता है। जो भी हो इस पर्व को मनायें जाने का मुख्य उद्देश्य मकर संक्रान्ति का ज्ञान कराने सहित 6 माह की अवधि वाले उत्तरायण के आरम्भ से है जिससे लोग हमारे पूर्वजों के ज्योतिष विषयक ज्ञान व रुचि से परिचित हो सकें।
मकर संक्रान्ति पर्व मनायें जाने का दूसरा आधार व कारण इसका शीत ऋतु में आना है। मकर-संक्रान्ति के दिन 14 जनवरी को शीत अपने यौवन पर होती है। इस दिन मनुष्यों के आवास, वन, पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक सा रहता है। चराचर जगत् शीत ऋ़तु का लोहा मानता है। मनुष्य व वन्य आदि प्राणियों के हाथ पैर जाड़े से सिकुड़ जाते हैं। शरीर ठिळुरन से त्रस्त रहता है। बहुत से वृद्ध शीत की अधिकता से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। हृदय रोगियों के लिए भी शीत ़ऋतु कष्ट साध्य होती है ।इन दिनों सूर्योदय से दिन का आरम्भ होता है परन्तु सूर्य शीघ्र ही अस्त हो जाता है अर्थात् सूर्योदय और उसके अस्त होने के बीच कम समय होता जबकि लोग अधिक समय तक सूर्य के प्रकाश व उष्णता की अपेक्षा करते हैं। मकर संक्रान्ति से पूर्व रात्रि की अवधि अधिक होती है जिससे लोगों में क्लेश रहता है परन्तु मकर संक्रान्ति के दिन से रात्रि का समय बढ़ने और दिन का घटने का क्रम बन्द हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है मकर संक्रान्ति के मकर ने उस लम्बी रात्रि को निगलना आरम्भ कर दिया है। इस दिन सूर्य देव उत्तरायण में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रन्थों पर्यन्त विशेष रूप से वर्णन की गई है। वैदिक ग्रन्थों में उत्तरायण को ‘देवयान’ कहा जाता है और ज्ञानी लोग अपने शरीर त्याग तक की अभिलाषा इसी उत्तरायण वा देवयान में रखते हैं। उनका मानना होता है कि उत्तरायण में देह त्यागने से उन की आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करेगी। आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन तक शर-शय्या पर शयन करते हुए देहत्याग वा प्राणोत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी। मकर संक्रान्ति के ऐसे प्रशस्त महत्व वा समय को पर्व बनने से वंचित नहीं रखा जा सकता। आर्य पर्व पद्धति के लेखक पं. भवानी प्रसाद जी ने लिखा है कि आर्य जाति के प्राचीन नेताओं ने मकर-संक्रान्ति (सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि) को पर्व निर्धारित कर दिया।
मकर संक्रान्ति का पर्व चिरकाल से मनाया जाता है। यह पर्व प्रायः भारत के सभी प्रान्तों में प्रचलित है। सर्वत्र इस पर्व पर शीत के प्रभाव को दूर करने के उपाय किये जाते दिखाई देते हैं। वैद्यक शास्त्र ने शीत के प्रतीकार के लिए तिल, तेल, तूल (रूई) का प्रयोग बताया है। तिल इन तीनों में मुख्य हैं। पुराणों में तिल के महत्व के कारण कुछ अतिश्योक्ति कर इसे पापनाशक तक कह दिया गया। किसी पुराण का प्रसिद्ध श्लोक है ‘तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमो तिलोदकी। तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला पापनाशनाः।।’ अर्थात् तिल-मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छः तिल के प्रयोग पापनाशक हैं। मकर संक्रान्ति के दिन भारत के सब प्रान्तों में तिल और गुड़ के लड्डू बनाकर दान किये जाते हैं और इष्ट मित्रों में बांटे जाते हैं। तिल को कूट कर उसमें खांड मिलाकर भी खाते हैं। यह एक प्रकार से मिष्ठान्न की भांति रुचिकर होता है। महाराष्ट्र में इस दिन तिलों का ‘तिलगूल’ नामक हलवा बांटने की प्रथा है और सौभाग्यवती स्त्रियां तथा कन्याएं अपनी सखी-सहेलियों से मिलकर उन को हल्दी, रोली, तिल और गुड़ भेंट करती हैं। यह पर्व प्राचीन भारत की संस्कृति का दिग्दर्शन कराता है जिसका प्रचलन स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर भी किया गया है। आज के समय में जो मिष्ठान्न हैं वह प्रायः स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि प्राचीन ग्रीक लोग भी वधू-वर को सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पक्वान्न बांटते थे। इससे ज्ञात होता है कि तिलों का प्रयोग प्राचीनकाल में विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने इष्ट मित्रों को भेंट देने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्वत्रिकता और प्राचीनता का परिचायक है।
अतः मकर संक्रान्ति का पर्व अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसे मनाते समय इससे जुड़ी उपर्युक्त सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिये। ऐसा कर हम स्वयं भी इनसे परिचित रहेंगे और हमारी भावी पीढ़ियां भी इन्हें जानकर उसे अपनी आगामी पीढ़ियों को जना सकेंगी। इस दिन यज्ञ करने का भी विधान किया गया है। यज्ञ करने से वातावरण दुर्गन्धमुक्त होकर सर्वत्र सुगन्ध का प्रसार करने वाला होता है। यज्ञ स्वास्थ्य के लिए तो यह लाभप्रद होता ही है इसके साथ ही इससे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना भी सम्पन्न होती है। यज्ञ के गोघृत व अन्न-वनस्पतियों की आहुतियों का सूक्ष्म भाग वायुमण्डल को हमारे व दूसरे सभी के लिए सुख प्रदान करने में सहायक होता है। आर्यपर्व पद्धति में यज्ञ करते हुए हेमन्त और शिशिर ऋतुओं की वर्णनपरक ऋचाओं से विशेष आहुतियों का विधान किया गया है जिससे यज्ञकर्ता व गृहस्थी उनसे परिचित हो सकें। भारत की प्राचीन वैदिक धर्म व संस्कृति विश्व के सभी मनुष्यों के पूर्वजों की धर्म व संस्कृति रही है। इसका संरक्षण और प्रसार सभी मनष्ुयों का पावन कर्तव्य है। हमें प्रत्येक कार्य करते हुए यह भी ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। हम ऐसा कोई कार्य न करें जिससे इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा हो और ऐसा कोई काम करना न छोड़े जो इन उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं। मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाओं सहित।