ममता बनर्जी का नया पश्चिम बंग

 बिमल राय

परिवर्तन के नारे के बूते बंगाल की सत्ता में आईं ममता बनर्जी ने राज्य का नाम बदल दिया है. अब इसे पश्चिम बंगाल के बदले पश्चिम बंग कहा जाने वाला है. विधानसभा में प्रस्ताव पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी की औपचारिकता ही बाकी है.

इस तरह एक और परिवर्तन होने वाला है. हालांकि कुछ लोग इसे खोदा पहाड और निकली चुहिया जैसी कवायद बता रहे हैं तो कुछ इसे राज्य को क्षेत्रवाद की तंग गलियों में ले जाकर आत्ममुग्ध होने वाली बंगाली भावुकता का ही एक रूप कह रहे हैं. अंग्रेजी में वेस्ट बंगाल कहा जाता है और बांग्ला बोलचाल में नया प्रस्तावित नाम पहले से ही प्रचलित है.

तो फिर इसे तय करने के लिए तमाम बहस और बैठकों की क्या जरूरत थी? राज्य में चली खुली बहस में बंग, बंगाल, बंगभूमि, सोनार बांग्ला, बंग प्रदेश जैसे कई नाम सुझाये गये.

आखिर में एक सर्वदलीय बैठक हुई, जिसमें पश्चिम बंग पर आम राय बनी. हालांकि ममता ’बंगभूमि‘ के पक्ष में थी, पर आम राय का आदर कर उन्होंने नय्ो नाम पर सहमति दी.

बताना जरूरी है कि राज्य का नाम बदलने का प्रस्ताव वाममोर्चा ने ७७ में सत्ता के आने के कुछ समय बाद ही किया था, पर मामला ठंडे बस्ते में पडा रहा. मार्क्सवादियों के एजेंडे में नाम बदलने से ज्यादा अहम था यहां के निवासियों की माली हालत बदलना. भूमि सुधार और कानून व व्यवस्था की हालत सुधारना उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता रही, क्योंकि सिद्धार्थ शंकर राय के जमाने में उफने नक्सलवाद ने बंगाल को तबाह कर दिया था. इधर, ३४ सालों के लंबे इंतजार के बाद सत्ता में आईं ममता के सामने तुरंत कुछ बदलाव दिखाने की मजबूरी है. चुनावी फायदे के लिए लोकप्रिय बजट बनाने व दूसरी लोक-लुभावन योजनाओं में पैसा झोंकने की वजह से वाम सरकार भी खाली खजाना छोड़कर ही रुख्सत हुई. चुनावी मलाई के लिए ही पूरी तरह दूहकर रेल मंत्रालय को कंगाल बना देने वाली ममता में जल्दी-जल्दी कुछ नया करने की कुलबुलाहट है. पर वे करें क्या? सबसे पहले उन्होंने सिंगुर के अनिच्छुक किसानों की जमीन लौटाने के लिए तो भूमि अधिग्रहण कानून में ही संशोधन कर डाला. यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और कलकत्ता हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है. ठीक इसी वक्त ममता ने देश के नामी उद्योगपतियों के साथ एक बैठक कर बंगाल में निवेश बढाने का आह्वान किया. भोली ममता यह भूल गईं कि इन उद्योगपतियों ने देखा है कि कैसे खून के आंसू रोकर रतन टाटा अपनी नैनो गुजरात ले जाने पर मजबूर हुए और अब नुकसान की भरपाई के लिए अदालत के चक्कर लगा रहे हैं. एक उद्योगपति ने बंगाल की कुख्यात कार्यसंस्कृति (बंद, हडताल और उग्र ट्रेड यूनियनवाद) को लेकर चिंता जाहिर की तो ममता ने कहा कि अभी तो मैं कुर्सी पर तुरंत बैठी ही हूं. नये उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में ममता ने वामपंथियों की नाक में दम कर दिया था. अब वामपंथी भी भूमि अधिग्रहण के मामले में उन्हीं का ही हथियार चला रहे हैं और अनिच्छुक किसानों का एक समूह नये उद्योगों के खिलाफ खड़ा हो जा रहा है.

कुछ नहीं कर पाने की मजबूरी से अच्छा है कुछ करते हुए दिखना. नाम परिवर्तन के संबंध में भी यही सच है. गायिका ऊषा उत्थुप ने पूछा है कि अगर सरकार के खजाने में पैसे नहीं हैं तो वह इस तरह के खर्चीले काम क्यों हाथ में ले रही हैं? पैसे की चिंता है, नहीं तो ममता अब तक अपने वादे के मुताबिक विधानपरिषद का गठन कर चुकी होतीं, जिसे अनावश्यक मानकर वाममोर्चा सरकार ने छुआ तक नहीं.

बताने की जरूरत नहीं कि ममता भी बंगाल को एक अलग तरह के क्षेत्रवाद की ओर ले जा रही हैं. मां, माटी, मानुष के उनके नारे से ही इसकी गंध आ रही थी और अब धीरे-धीरे धुंध हट रही है.

राज्य के बहुसंख्यक लोग सबसे अच्छे नाम-बंगाल- के पक्ष में दिख रहे हैं. लोगों का एक बडा हिस्सा नाम से पश्चिम शब्द हटाने के पक्ष में इसलिए था कि जब पूर्वी बंगाल बांग्लादेश नाम से एक अलग देश बन गया तो पश्चिम को बंगाल से जोड़े रखने का कोई तुक नहीं है. कुछ लोग वेस्ट को अंग्रेजी शासन की याद दिलाने वाला मान रहे थे. पर सब पर भारी पडा बंगाली क्षेत्रवाद.

ममता के साथ वामपंथी भी नहीं चाहते हैं कि पूर्व-पश्चिम की विभाजन रेखा को बिसरा दिया जाये. तब ए पार बांग्ला, ओ पार बांग्ला की महकती अनुभूति का क्या होगा? एक बार पूर्व मुख्यमंत्री बुद्ध्देव भट्टाचार्य ने कोलकाता प्रेस क्लब में ए पार बांग्ला वाला जुमला दोहराया था और बंगाली पत्रकारों को एक अप्रत्यक्ष संदेश दिया था कि वे बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे सवाल पर अपना माथा न खपायें. यह हकीकत है कि बंगाल के राजनेताओं का एक अच्छा हिस्सा बंगाल विभाजन के बाद यहां आया. एक भावात्मक बंधन दोनों इलाकों के लाखों लोगों को अब भी बांधे हुए है. अब यह आरोप नहीं रहा कि वाममोर्चा सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के तहत बांग्लादेशी घुसपैठियों को लगातार यहां पनाह दी. उनके लिए राशन कार्ड से लेकर वोटर कार्ड तक मुहैया कराया. ममता भी कम नहीं हैं. पिछले रेल बजट में उन्होंने बंगाल में रेलवे किनारे बसे लोगों के लिए घर मुहैया करवाने तक की घोषणा कर दी. यहां के निवासी जानते हैं कि रेलवे किनारे बसे हुए लोगों में ९० फीसदी बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं. जाहिर था यह वादा उनका वोट लेने के लिए ही किया गया.

अब ममता भी बंगाली भावुकता को भुनाकर अपने पांव और मजबूत करना चाहती हैं. यह भावुकता कभी-कभी प्रवासी हिंदीभाषियों और दूसरे राज्यों के लोगों के लिए क्षुब्ध करने वाली तो कभी मनोरंजक बनती रही है. बंगाल टाइगर (अब तो पश्चिम बंग टाइगर कहना होगा) सौरभ गांगुली के आईपीएल में नहीं बिकने से हताश लोगों के सड़क पर उतरने का नजारा कौन भूल सकता है.

यहां यह बताना जरूरी है कि बंगाल की क्षेत्रीयता की तुलना कतई राज ठाकरे वाली मानसिकता से नहीं की जा सकती. वाममोर्चा के शासन में इस क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति कुछ अलग तरह की थी.

केंद्र सरकार से लगातार लडते-भिड़ते रहने, जरूरत पड़ने पर उसे समर्थन देने और अपने को लीक से हटकर दिखते रहने जैसे कारकों के जरिये वाममोर्चा लोगों में गर्व बोध कराता रहा. यही कारण था कि जब ज्योति बसु कभी-कभी हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्रियों का स्वागत करने खुद नहीं जाते थे, तो इससे बंगाली अहं की तुष्टि होती थी. ममता ने इस अहं की तुष्टि के लिए थोडा शार्टकट अपनाया है.

हालांकि विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर की १५० वीं सालगिरह पर वह अगर अपने राज्य को कोई राष्ट्रीय प्रतीक देतीं तो और अच्छा लगता. सुभाषचंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानियों, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस और अरविंद जैसे ऋषियों और बंकिमचंद, नजरूल इस्लाम व शरतचंद जैसे महान लेखकों की भूमि बंगाल में क्षेत्रीयता का कोई भी प्रतीक इसे पीछे ही ले जायेगा. कलकत्ता हाईकोर्ट के भ्रष्ट न्यायमूर्ति सौमित्र सेन को हटाने के लिए संसद में चल रही महाभियोग प्रक्रिया से तृणमूल ने अपने को अलग कर लिया है, क्योंकि इसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने पेश किया है. इससे ममता क्या संदेश देना चाहती हैं? आज जब पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन में कूद पडा है, एक भ्रष्ट जज से सहानुभूति दिखाकर ममता बंगालियों को क्या संदेश देना चाहती हैं?

बंगाल में परिवर्तन का आह्वान करती एक बांग्ला फिल्म भी सिनेमाघरों में चल रही है-आमि सुभाष बोलछी (मैं सुभाष बोल रहा हूं.), जिसमें बंगालियों को अपना पुराना गौरव हासिल करने के लिए ललकारा गया है. हालांकि इसमें भी क्षेत्रीय भावुकता से उबरने की कोशिश नहीं दिखती. इसमें एक संवाद है कि बंगालियों को मारवाडियों की गुलामी छोड़कर खुद मालिक बनने के लिए उठ खडा होना चाहिए. यह बताने की जरूरत नहीं देश भर में मारवाडी समुदाय के लोगों ने अपनी मेहनत और बुद्धि से व्यवसाय के क्षेत्र में शिखर को छुआ है.

यही बात दूसरे प्रवासी हिंदीभाषियों की कामयाबी पर भी लागू होती है. आज जरूरत है बंगाली समुदाय के राष्ट्र की मुख्यधारा में और घुलने-मिलने की और इसके लिए हिंदी सबसे कारगर माध्यम हो सकती है, जिससे यहां के लोग जब हिंदीभाषी राज्यों में जायें तो अलग-थलग न महसूस करें. लेकिन हिंदी के प्रति ममता का नजरिया क्या है, इसकी एक झलक हिंदी अकादमी के गठन से मिलती है. ममता ने इसमें ऐसे लोगों को रखा है, जिनमें से ज्यादातर को शुद्ध हिंदी नहीं आती. हिंदी के साथ ऐसा मजाक क्या वे बांग्ला अकादमी से कर सकती थीं?

तो अब आगे-आगे देखिये, बंगाल में परिवर्तन के नाम पर क्या-क्या होता है. वैसे ममता को अब सरकारी प्रशासनिक भवन राईटर्स बिल्डंग को ’लेखोकदेर बाडी‘(लेखकों का घर) और मिलेनियम पार्क को शताब्दी उद्यान व इडेन गार्डन को स्वर्गीय उद्यान कर देना चाहिए.

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

1 COMMENT

  1. अच्छा लेख है. संतुलित और सही विवेचन है. जब बंगाली अन्य भारतवासियों को हिन्दुस्तानी और साथ ही अपने को बंगाली कहते हैं तो अटपटा लगता है. वोट बटोरना एक संकीर्ण सोच है . आज के नेताओं का स्वांग तो इसी फूहड आधार पर टिका है . जो कहते थे की हम सौ साल आगे की सोचते हैं वह तीन चार साल आगे की नहीं देख पाते और चूक जाते हैं .

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