-अरविंद जयतिलक

कोलकाता में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो
के दौरान जिस तरह पथराव, आगजनी और लाठीचार्ज का भयानक मंजर
उपस्थित हुआ वह रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि राज्य में कानून-
व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गयी है। चूंकि संविधान के संघीय ढांचे के
तहत कानून-व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकार की है लिहाजा ममता
सरकार कुतर्कों का हवाला देकर अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती। राज्य
सरकार की नाकामी का ही नतीजा है कि वह अमित शाह के रोड शो के दौरान
कानून-व्यवस्था को दुरुस्त नहीं रख सकी और उसका नतीजा यह हुआ कि
अमित शाह जिस वाहन पर सवार थे उस पर भी डंडे फेंके गए। सरकार चाहे
जितनी सफाई और दुहाई दे लेकिन यह प्रमाणित होता दिख रहा है कि राज
सत्ता विरोधियों के दमन के लिए हर स्तर पर उतर आयी है। यह सामान्य नहीं
कि विपक्षी दल के नेता और उम्मीदवार अपने क्षेत्र में रोड शो करने जाए या
क्षेत्र के लोगों से मिलने जाए उस पर सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता हमला बोल दें।
यह सरकार की तानाशाही भरे आचरण को ही निरुपित करता है। अब तो ऐसा
प्रतीत होने लगा है कि राज्य सरकार विपक्षी दलों के नेताओं को सुरक्षा देने के
बजाए अपने कार्यकर्ताओं को उन पर हमला करने की छूट दे रखी है। अमित
शाह के रोड शोर से इतर जिस तरह घाटल सीट से भाजपा उम्मीदवार और पूर्व
आइपीएस अधिकारी भारती घोष पर स्थानीय लोगों ने हमला बोला उसके बाद
कहने को कुछ रह नहीं जाता है। मतदान से पहले झारग्राम में भारतीय जनता
पार्टी के एक बूथ कार्यकर्ता का शव मिलना और पीड़ितों द्वारा आशंका जताया
जाना कि हत्या के पीछे तृणमूल कांग्र्रेस के कार्यकर्ताओं का हाथ है, बहुत कुछ
बयां कर देता है। चुनावी हिंसा को देखते हुए अब तो ऐसा लगने लगा है मानों
सत्ताधारी तृणमूल कांगे्रस ने अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव जीतने के लिए किसी
भी हद तक जाकर हिंसा करने की छूट दे दी है। अन्यथा क्या मजाल की राज्य
मशीनरी सतर्क रहे और कोई कार्यकर्ता कानून को हाथ में ले। देखा जा रहा है
कि चुनाव के हर चरण में गोला-बारुद और बंदूक का इस्तेमाल हो रहा है। यह
रेखांकित करता है कि सत्ता-सिस्टम नींद की गोलियां लेकर सो रहा है और
लोकतंत्र के शत्रु कहर बरपा रहे हैं।यहां समझना होगा कि देश के अन्य राज्यों
में भी आमचुनाव चुनाव हो रहे हैं लेकिन उस तरह का उत्पात और हिंसा का
दृश्य देखने को नहीं मिल रहा है जिस तरह पश्चिम बंगाल में देखा जा रहा है।
जब ममता बनर्जी 2011 में वामपंथी दलों के साढ़े तीन दशक के शासन को
उखाड़ फेंक सत्ता में आयी तो उम्मीद किया गया कि पश्चिम बंगाल में शांति
और भाईचारे के बीज प्रस्फुटित होंगे और लोकतंत्र मजबूत होगा। ममता ने वादा
भी किया था कि वे एक नई किस्म की सकारात्मक राजनीति की शुरुआत
करेंगी। लेकिन यह भ्रम शीध्र टूट गया। सत्ता पाते ही तृणमूल ने वामदलों की
तरह तुष्टीकरण की राह अपना ली और अपने कार्यकर्ताओं को हिंसक कृत्य
करने की छूट दे दी। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इन हिंसक कार्यकर्ताओं को पुलिस और
प्रशासन का संरक्षण भी मिलने लगा। पिछले कुछ वर्षों में विरोधी दलों के कई
नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या इस बात का जीता जागता सबूत है।
दुर्भाग्यपूर्ण यह भी कि हत्यारें सलाखों से बाहर हैं और आमजन भयभीत है।
बंगाल के नागरिकों की मानें तो विधि-शासन में तृणमूल कांग्रेस का यह
हस्तक्षेप ही राजनीतिक और चुनावी हिंसा के लिए जिम्मेदार है। लोगों का
कहना है कि तृणमूल कार्यकर्ताओं के मन में कानून का भय नहीं है और इस
स्थिति ने तृणमूल कांगे्रस और वामपंथ के फर्क को मिटा दिया है। आंकड़ों पर
गौर करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी पश्चिम बंगाल में जमकर
हिंसा हुई जिसमें 14 लोगों की जान गयी। हजारों लोग बुरी तरह घायल हुए।
1100 से ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं चुनाव आयोग द्वारा दर्ज की
गयी। इसी वजह से चुनाव आयोग ने 2016 में राज्य विधानसभा के चुनाव को 6
चरणों में संपन्न कराया। गत वर्ष संपन्न पंचायत चुनाव में भी तृणमूल के
कार्यकर्ताओं ने विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया। पंचायत चुनाव
में हुई धांधली और राजनीतिक हिंसा को लेकर सभी विपक्षी दलों ने सरकार पर
पक्षपातपूर्ण आरोप लगाया और कहा कि राज्य की पुलिस तृणमूल के काॅडरों
जैसा व्यवहार कर रही है। विपक्षी दलों ने यह भी आरोपल लगाया कि जो
अधिकारी राजनीतिक हिंसा की निष्पक्षता पूर्वक जांच करते हैं उनका
स्थानांतरण कर दिया जाता है। यानी उन्हें विधि सम्मत कार्य नहीं करने दिया
जाता। अतीत में जाएं तो 1960-70 के दशक में जब नक्सल आंदोलन की
शुरुआत हुई उसी समय से पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का दौर शुरु हुआ।
वामपंथी दलों ने चुनाव जीतने के लिए विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं
की हत्या की राजनीति अपनायी और स्थायी तौर पर इसे जीत का मंत्र बना
लिया। आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में 1977 से 2018 तक 29 हजार से
अधिक राजनीतिक हत्याएं हो चुकी हैं। इस दौर के बाद सिंगूर और नंदीग्राम के
आंदोलन के दौरान सत्ता नियोजित हत्या ने देश को दहला दिया। ममता बनर्जी
और वामपंथी दलों के बीच छत्तीस का आंकड़ा तब तक बना रहा जब तक कि
ममता ने वामपंथी दलों को सत्ता से उखाड़ नहीं फेंका। आज की तारीख में
ममता की सबसे बड़ी दुश्मन वामपंथी दल नहीं बल्कि भाजपा है। बंगाल की
भूमि पर भाजपा के उभार ने ममता को डरा दिया है। हालांकि 2014 के
लोकसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिली। लेकिन फिर भी ममता
भयभीत हैं तो उसका प्रमुख कारण यही है कि आज की तारीख में भाजपा के
लिए बंगाल की भूमि उर्वर बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा
अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी रैलियों के जरिए भाजपा के पक्ष में सकारात्मक
माहौल निर्मित किया है। इसी चिढ़ की वजह से ममता मर्यादा की लक्ष्मण रेखा
को लांघकर प्रधानमंत्री पर तल्ख से तल्ख टिप्पणियां कर रही हैं। कभी वह
प्रधानमंत्री को मिट्टी-कंकड़ से बनी मिठाई खिलाने की बात कर रही हैं तो कभी
उन्हें थप्पड़ लगाने की हुंकार भर रही हैं। लेकिन वे ऐसा कर न सिर्फ देश के
प्रधानमंत्री का उपहास नहीं उड़ा रही हैं बल्कि खुद की गरिमा भी मटियामेट कर
रही हैं। याद होगा दो वर्ष पहले उन्होंने राज्य के उत्तरी चैबीस परगना में
फेसबुक से फैले तनाव के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों पर कार्रवाई करने से बचने
की कोशिश में राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को ही निशाने पर ले लिया था।
तब वे कहती सुनी गयी थी कि टेलीफोन पर बातचीत के दौरान राज्यपाल उनसे
ऐसे बर्ताव कर रहे थे मानों वे भाजपा के ब्लाॅक प्रमुख हों। उनके एक अन्य
नेता डेरेक ओ ब्रायन ने तो यहां तक कह डाला कि पश्चिम बंगाल में राजभवन
आरएसएस शाखा में बदल चुका है। इस तरह का असंवैधानिक और
अलोकतांत्रिक बयान रेखांकित करता है कि राज्य में एक निर्वाचित लोकतांत्रिक
सरकार नहीं बल्कि एक तानाशाह की सरकार है जिसके लिए संविधान, राज्यपाल
और केंद्र-राज्य संबंध का कोई मुल्य-महत्व नहीं है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि
ममता बनर्जी को आमचुनाव में पराजय का अंदेशा हो गया है। यहीं वजह है कि
वह प्रधानमंत्री पर हमला बोल अपने प्रति जनता के बीच सहानुभूति पैदा करने
की कोशिश कर रही हैं। लेकिन उनकी इस राजनीतिक कलाबाजी को देश अच्छी
तरह समझ-परख रहा है। गत माह पहले जिस तरह उन्होंने शारदा चिटफंड
घोटाले की जांच में सीबीआइ का सहयोग करने के बजाए भ्रष्टाचारियों के पक्ष
में खुलकर खड़ी हुई और उनके इशारे पर जिस तरह कोलकाता पुलिस ने
सीबीआइ अधिकारियों के साथ बदसलूकी की, उन्हें थाने पर बिठाया और
कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ तक नहीं होने दी उससे
सहज ही सरकार की निष्पक्षता का अंदाजा लग जाता है। साथ ही यह भी
समझ में आ जाता है कि पश्चिम बंगाल की पुलिस चुनाव में अपना
उत्तरदायित्व निभाने के बजाए तृणमूल कांग्रेस के काॅडर के रुप में काम क्यों कर
रही है? सरकार का पक्ष क्यों ले रही है और विरोधी दलों पर कहर क्यों बरपा
रही है? अब यह अबूझ नहीं रह गया है। सच कहें तो ममता सरकार की यही
रीति-नीति ही चुनावों में राजनीतिक और चुनावी हिंसा के लिए जिम्मेदार है।