मनोज कुमार
मेरी सवालिया बेटी के आज एक और सवाल ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। उसका मासूम सा सवाल था कि क्या चाय पीने से दिल की दूरियां खत्म हो जाती है? सवाल गहरा था और एकाएक जवाब देना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल था लेकिन मेरा संकट यह था कि तत्काल जवाब नहीं दिया तो उसके मन में जाने कौन सा संदेह घर कर जाए और अपने आगे के दिनों में वह समाज में वैसा ही बर्ताव करने लगे, जैसा कि टेलीविजन के विज्ञापन को देखने के बाद उसके मन में आया था। बात शुरू हुई थी टेलीविजन के पर्दे पर प्रसारित हो रहे एक चायपत्ती कम्पनी के विज्ञापन से।चाय में मिठास होती है और लेकिन इस विज्ञापन की शुरूआत कडुवाहट से होती है। विज्ञापन के आरंभ में पुरुष अपनी पड़ोसी स्त्री के घर चाय पीने से पहले इसलिए इंकार कर देता है कि वह उनके सम्प्रदाय की नहीं है। इस तरह विद्वेष से विज्ञापन की शुरूआत होती है। हालांकि पत्नी के आग्रह पर वह लगभग बेबसी में उस स्त्री के घर चाय पीने चला जाता है लेकिन मन उसका अभी भी साफ नहीं है।चाय का पहला प्याला पीने के बाद उसका मन खुश हो जाता है और वह उसी स्त्री से एक और चाय के प्याले का आग्रह करता है जिसके प्रति कुछ पल पहले उसके मन में दुराग्र था। यहीं पर मेरी बिटिया का सवाल था कि पापा एक प्याली चाय से यह साम्प्रदायिक विद्वेष खत्म हो जाता है?
बिटिया का सवाल कठिन था। इस विज्ञापन को देखते हुए मैं भी कई बार विचलित हुआ था लेकिन एक भारतीय कि तरह चलो, चलता है, कहकर टालता रहा और आज यही टालना मेरे लिए यक्ष प्रश्र बनकर खड़ा था। पत्रकार होने के नाते तत्काल में बिटिया का समर्थन करते हुए कहा कि चाय पीने से सामाजिक विद्वेष दूर होते तो आज हम इस सवाल पर बात ही नहीं करते। ऐसा विज्ञापन बनाकर कम्पनी की आय में कहीं इजाफा हो रहा होगा लेकिन समाज में जो कडुवाहट आ रही है, उसका अंदाजा शायद इस कम्पनी को नहीं है। कुछ गोलमोल कर मैंने उसका समाधान करने का प्रयास किया लेकिन मेरा मन खदबदाने लगा। लगा कि यह सवाल हजारों और लाखों लोगों के मन को मथ रहा होगा। कोई सवाल का जवाब पाने के लिए जुटा होगा तो कोई इस विद्वेष के समर्थन में खड़ा होगा। इस चायपत्ती की कम्पनी ने भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर जो बट्टा लगाया है, उसकी भरपाई कैसे होगी। दुर्भाग्य है कि यह चायपत्ती बनाने वाली कम्पनी अपने विज्ञापन में पहले सामाजिक विद्वेष स्टेबलिश करती है और बाद में यह जताती है कि उस कम्पनी की एक प्याली चाय कैसे साम्प्रदायिक सद्भाव का रास्ता बनाती है। यह विज्ञापन न केवल शर्मनाक है बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष छवि पर आघात करती है। इस विज्ञापन बिलकुल वैसा ही है जैसा कि आपकी प्रतिष्ठा के विपरीत जब कोई कुछ बोले तो जिस तरह दिमाग पर चोट करती है।
इस तरह की स्थिति और सवाल से लगभग हर बार मैं प्रताडऩा से गुजरता रहा हंू। जिस तरह मेरा विरोध चायपत्ती के इस विज्ञापन से उसी तरह का सख्त विरोध उन खबरों से है जिसमें बार बार बताया जाता है कि अमुक मुस्लिम हिन्दू धर्म का अनुरागी है अथवा अमुक हिन्दु दरगाह पर जाकर इबादत करता है। ऐसी खबरें खासतौर पर उत्सव के समय आती है। निश्चित रूप से इन खबरों का मकसद लोगों के मन को साफ कर एक-दूसरे के धर्म के प्रति सम्मान बनाये रखने की है लेकिन अनजाने में ही यह खबर हमें एक-दूसरे के बीच दूरी उत्पन्न करती है। यह देश भारत है और हर व्यक्ति को इस बात की आजादी है कि वह अपने विश्वास के अनुकूल किसी भी धर्म को माने, पूजे, इबादत करे और सद्भाव के साथ जिये। इससे इतर मेरा एक सवाल यह भी है कि धर्म, सम्प्रदाय के लिए लीक से हटकर आ रही खबरें ही खबरें हैं? क्या आजादी के 70 साल बाद भी हम ऐसे बेतुके सवालों और खबरों से घिरे रहेंगे? क्या हमारा मन आज भी 16वीं-18वीं शताब्दी में जी रहा होगा? क्या हम कबीर, गांधी, अटल, कलाम की नसीहतें भूल जाएंगे? क्या हम सुभाष, पटेल और भगतसिंह की बातों को विस्मृत कर देंगे? क्या हमें पराडकर, विद्यार्थी की खींची लकीरों का अनुसरण नहीं करेंगे?
चायपत्ती का यह बकवास विज्ञापन पर तत्काल रोक लगे, इस बात की मांग करनी चाहिए। इस बात के लिए हमारे मन की खिडक़ी खुलनी चाहिए कि विकास हमारा एजेंडा हो। हम इस बात के लिए जोर दें कि स्त्री शिक्षा के लिए फुले ने जो रास्ता दिखाया, उस पर चलकर महिलाओं को सशक्त बनायें। मन की बंद खिड़कियों को खोलकर हम एक और सिर्फ एक धर्म की बात करें और वह धर्म मानवता का धर्म है। यही धर्म हमें जिंदा रखेगा और यही धर्म हमारी पहचान होगी।