बल्ख न बुखारे

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choubaraबी  एन  गोयल

 

मंगलवार शाम  को बहन शकुन जी का फ़ोन आया की कल सुबह 9 बजे हमारी चौबारा की मीटिंग है अगर आप आ सकें तो अच्छा लगेगा. मैंने कहा कि चौबारा शब्द तो एक सन्दर्भ से हमारा यानी उत्तर भारत का शब्द है लेकिन मैंने उन से आने का वायदा कर दिया. उन्होंने स्थान का पता और फ़ोन नंबर दे दिया. बुधवार की सुबह नियत समय और स्थान पर हम पहुँच गए. यह वरिष्ठ सदस्यों के मिलने और अपने विचारों के आदान प्रदान का स्थान है. यह जान कर प्रसन्नता हुई कि इस मंच का नाम छज्जू का चौबारा रखा गया है. इस में संगीत भी होता है और संस्मरण भी होते  है. कला और साहित्य पर बातचीत होती है, कहानी और कविता पाठ होता है, कुछ बातें ज्ञान प्रदायक होती हैं तो कुछ मनोरंजक. इस में औपचारिकता भी है अनुशासन भी है.

इस बार की मेरे अमेरिका प्रवास की पहली उपलब्धि है – अमेरिका में हिंदी की लेखिका, कवियत्री और विदुषी बहन शकुंतला बहादुर से भेंट और लम्बी बातचीत. इस का प्रारंभ प्रवक्ता में प्रकाशित मेरे संगीत सम्बन्धी लेख से हुआ था. बहन जी ने इस पर अपनी प्रशंसा लिख कर भाई डॉ. मधुसूदन जी, (मेसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में निर्माण अभियांत्रिकी के प्रोफेसर) को मेल कर दी. मधुजी ने इसे मेरे पास भेज दिया और मैंने उन्हें सीधे ही धन्यवाद की मेल भेज दी. साथ ही मैंने उन्हें लिखा की अभी मैं कनाडा में हूँ और शीघ्र ही 5 दिस 2015 को आप के शहर सेन होज़े/ कूपरटिनो आने वाला हूँ – आने के तुरंत बाद ही मैंने उन्हें सूचित कर दिया.

 

चौबारे की बात पर मुझे अपने बचपन की याद आ गयी जब हमारे पिताजी यह कहावत सुनाया करते थे –  बल्ख न  बुखारे, जो बात छज्जू के चौबारे. इस का अर्थ बताते समय कहते थे कि पुराने ज़माने में बल्ख और बुखारा दो बहुत ही खूब सूरत शहर होते थे. उधर लाहौर के अनारकली बाज़ार में छज्जू भगत का चौबारा था जहाँ दिन भर बड़े बुज़ुर्ग लोगों की गप्प गोष्ठी जुडती थी, कहकहे लगते थे, हंसी ठठा होता था. दूध और लस्सी के गिलास चलते रहते थे. यहाँ आने वाले सभी एक आंतरिक तार से जुड़े हुए थे. इन में एक थे सूरज मल. उन का एक बार बलख – बुखारे घूमने जाने का मन हुआ और वे गए भी. गए थे तो  कम से कम एक महिना तो लगा कर आयेंगे, सब ने यही सोचा. लेकिन वे आठ दिन के बाद ही वापिस आ गए. मित्रों ने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि बुखारा तो वे जा नहीं सके. बल्ख से ही लौट आये. वहां उन का दिल नहीं लगा. बुखारा बल्ख से लगभग 400 किलो मीटर दूर था. इस लिए उन्होंने यह पंक्ति कही – ‘वो बल्ख ना बुखारे – जो बात छज्जू के चौबारे’ और यह कहावत के रूप में प्रसिद्द हो गयी.

 

इस की ऐतिहासिकता के बारे में अधिक तो कहीं नहीं मिलता. एक ब्लाग में  लिखा मिला है कि ‘इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ के अनुसार छज्जू भगत का असली नाम छज्जू भाटिया था। वे लाहौर के रहने वाले थे। मुगल बादशाह जहांगीर के समय वे सोने का व्यापार किया करते थे। 1640 में उनके निधन के बाद उनके अनुयायियों ने लाहौर के पुरानी अनारकली स्थित डेरे में उनकी समाधि बना दी’. इस का अर्थ यह है कि उन का समय जहाँगीर का समय था.

पहले हम अपने पिता जी से पूछते थे – बल्ख और बुखारा कहाँ हैं – अब हमारे बच्चों के बच्चे हम से पूछते हैं – चौबारा क्या होता है? क्योंकि अब चौबारे नहीं होते. अब फ्लैट होते हैं – बालकनी होती है. मैं बैठ कर उन्हें बताता हूँ.

‘चौबारा घर के एक विशेष स्थान को कहते हैं. प्रायः यह घर के मुख्य द्वार के ऊपर / दहलीज़ के ऊपर  पहली मंजिल पर बने एक छोटे कमरे का नाम होता है. इस के एक दरवाज़े अथवा खिड़की का रुख सड़क की तरफ होना चाहिए. इस का उपयोग भी अलग तरह से होता है. इस में घर के युवा और उन की मित्र मंडली की बैठक जमती है. हंसी मजाक चलता है,  ताश की बाज़ी भी लगती है.  इस कमरे की पूरी कार्यवाही एक अनौपचारिक वातावरण में होती है.  इस कमरे में कोई ताला आदि नहीं लगता.

 

बल्ख और बुखारे की कहावत से लगता था कि जैसे ये दो शहर पास पास ही हैं और युग्म शब्द बन गए हैं. जैसे उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ – सुलतानपुर, राजस्थान के कोटा – बूंदी, अथवा आंध्र  के हैदराबाद – सिकंदराबाद. दो शहरों के इस तरह जुड़वां नाम से इन की भौगोलिक पहचान बनती है. लेकिन बल्ख – बुखारा शहरों की दूरी में काफी अंतर है. 400 किलोमीटर यानी 250 मील का फर्क है दोनों में और अब तो ये दो शहर दो अलग देशों में है.  बल्ख अफगानिस्तान में है और बुखारा उज्बेकिस्तान में – जो पहले सोवियत रूस का एक भाग था. हाँ दोनों ही सिल्क मार्ग पर हैं. यह एक बड़ी बात थी कि एक चौबारे के तुलना दूर दराज के दो शहरों से की जाये.

 

गहराई से देखने पर मालूम होता है कि भारतीय लोक संस्कृति में कुछ ऐसे शब्द हैं जो न केवल एक स्थान विशेष के द्योतक हैं वरन इन में उन के शहरों की आतंरिक भावनात्मक पहचान भी है जैसे लखनऊ का चौक, मेरठ का बेगम पुल, देहरादून का घंटाघर, सहारनपुर का रानी बाज़ार चौक, अमदाबाद का भद्र काली चौराहा, बुढाना गेट चौपला, हैदराबाद के चार मीनार पर पानवाले की दूकान, मथुरा का होली गेट, नुक्कड़, घंटाघर, अड्डा, आदि. हर पुराने शहर में इस तरह के स्थान होते थे.  अब यह सब पुराने ज़माने की बातें लगती हैं. सूचना क्रांति के परिणाम स्वरुप अब हम डिजिटल हो गए हैं, चिठ्ठी पत्री का युग बीत गया.

 

ई-मेल भी जाने की तैय्यारी में है, SMS समाप्ति के क़गार पर है, अब तो अप्प्स पर इशारों में बातें होने लगी है. अंगूठा ऊपर कर दो- इस का मतलब – हाँ हो गयी. फेस बुक ने एक नयी संस्कृति को जन्म दिया है. एक ही स्थान पर एक ही पंक्ति से एक ही समय में 50 व्यक्तियों से से जुड़ सकते हो..अब किसी के पास मिलने की फुर्सत नहीं है और न ही आवश्यकता है. अब हमारी संस्कृति ipod/ ipad/ smartphone में सिमट गयी है. देखना यह है कि अगला पड़ाव कहाँ होगा. फेस बुक से ही एक शेर–

 

अगर फुर्सत के लम्हों में मुझे याद करते  हो तो अब मत करना,
क्योंकि मैं तन्हा जरूर हूँ.   मगर फ़िज़ूल बिलकुल नहीँ…..

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लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

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