मानव निर्मित आपदा: दुनिया में मंदी के साथ महंगाई की मार

  केवल कृष्ण पनगोत्रा

श्रीलंका में आर्थिक संकट के चलते जिस हाहाकार को दुनिया ने देखा, उसी प्रकार का हाहाकार और जनाक्रोश अब पश्चिमी एशियाई देश लेबनान में देखने को मिल रहा है.
अगर हम लेबनान की बात करें तो 1960 की दहाई में यह देश आर्थिक विकास के शिखर पर था.2019 से अब 2022 तक इस देश में मौद्रिक और आर्थिक संकट चरमोत्कर्ष पर है. लेबनानी पाउंड की कीमत में 90 प्रतिशत गिरावट आ गयी है. एक लेबनानी सिपाही की मासिक तनख्वाह, जो कभी $ 900 के बराबर होती थी, अब $50 के बराबर रह गयी है. 10 रोटियों की कीमत लगभग 40000 लेबनानी पाउंड है. एक हिसाब से डेढ़ डॉलर की एक रोटी मिल रही है. भारतीय मुद्रा के हिसाब से देखें तो लेबनान में एक रोटी 120 रुपये की हुई.
*लेबनान में स्थिति: 
लेबनान की स्थिति के लिए लंबे समय तक आर्थिक मंदी जिम्मेदार है.
अक्टूबर 2019 में लेबनानी सरकार  ने नए कर लगाए. बढ़ते राष्ट्रीय ऋण से चिंतित और व्यापक भ्रष्टाचार से निराश होकर जनता ने राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन किया.
4 अगस्त 2020 को बेरूत के बंदरगाह में विनाशकारी विस्फोट ने स्थिति को और गंभीर कर दिया. 10 सितंबर 2021 को जब प्रधान मंत्री नजीब मिकाती ने अपनी नई सरकार पेश की, तब तक देश आर्थिक संकट में डूब चुका था. लेबनान में गरीबी पिछले एक साल में नाटकीय रूप से फैल गई है और अब लगभग 74% आबादी को प्रभावित करती है. लेबनान में लगभग 1.5 मिलियन सीरियाई शरणार्थी रहते हैं. जिनमें से 90% अत्यधिक गरीबी में रहते हैं. 210 000 से अधिक अन्य शरणार्थी भी हैं. पिछले दो वर्षों में लेबनानी पाउंड ने अपने मूल्य का 90% खो दिया है. अधिकांश लोगों के पास प्रति दिन केवल दो घंटे बिजली है. स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र ब्रेकिंग पॉइंट पर है.
मध्यम वर्ग का सफाया कर दिया गया है. कई लोगों ने देश छोड़ दिया है या ऐसा करने की योजना बना रहे हैं.
इस बीच यूक्रेन में युद्ध का लेबनान पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है. लेबनान यूक्रेन और रूस से अपने गेहूं का लगभग 90% आयात करता है. यूरोपीय संघ ने देश की मदद के लिए पिछले एक दशक में € 2.77 बिलियन के साथ लेबनान का समर्थन किया है.
यूरोपीय संसद ने लेबनान की वर्तमान स्थिति को ‘राजनीतिक वर्ग में मुट्ठी भर पुरुषों के कारण मानव निर्मित आपदा’ कहा है.
आर्थिक संकट के चलते श्रीलंका और लेबनान में जनाक्रोश की कमोबेश एक समान तस्वीर दिखाई देती है. अभावग्रस्त प्रदर्शनकारी जनता ने संसद भवनों पर कब्जा कर लिया. श्रीलंका में गोटाप्या राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा. ये दोनों देश दीवालिया जैसी आर्थिक स्थिति में हैं.
उधर ईराक में भी स्थिति संतुष्टजनक नहीं है. ईराक में हालांकि आर्थिक संकट जैसी स्थिति तो नहीं है मगर राजनैतिक संकट के चलते जनाक्रोश के तेवर लंका जैसे ही हैं. प्रदर्शनकारियों ने बग़दाद स्थित संसद पर धावा बोल दिया है.
भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान और म्यांमार की आर्थिक स्थिति भी डावाँडोल है. पाकिस्तानी मुद्रा भी चिंताजनक गिरावट झेल रही है. एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 234 पाकिस्तानी रुपये है. महंगाई, भ्रष्टाचार और राजनीतिक संकटकाल से देश त्रस्त है.
श्रीलंका की तरह एशिया के कई देशों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है. विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से कम हो रहा है. वहीं विदेशी कर्ज को चुकाने के लिए भी इनके पास पैसे नहीं बचे हैं. इनमें सबसे ऊपर म्यांमार देश का नाम है जो श्रीलंका की तरह डूब रहा है. आर्थिक अव्यवस्था के चलते एक तरफ लंका बर्बाद हुआ वहीं म्यांमार की अर्थव्यवस्था भी चरमरा गई है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 महामारी और राजनैतिक संकट के बाद पिछले दो साल के दौरान स्कूलों में दाख़िल छात्रों की संख्या में, 80 प्रतिशत तक की कमी आई है और लगभग 78 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर हो गए हैं. वहीं 10 लाख से अधिक रोहिंग्या मुस्लिमों को पड़ोसी देश बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में शरण लेनी पड़ी है.
*वैश्वीक आर्थिक मंदी के कारण:
अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने पहली बार वैश्विक मंदी को लेकर स्‍पष्‍ट रूप से कुछ बोला है. आईएमएफ के मुख्‍य इकनॉमिस्‍ट पियरे ऑलिवर गोरिंकस ने कहा कि दुनिया एक बार फिर मंदी के मुहाने पर खड़ी है.
उन्‍होंने 26 जुलाई को एक लेख में बताया कि वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था एक और मंदी के करीब पहुंच गई है. अप्रैल के बाद से हालात बेहद खराब हो गए हैं. हम जल्‍द वैश्विक मंदी का सामना कर सकते हैं. आईएमएफ ने अपनी हालिया रिपोर्ट में 2022 के लिए वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था का विकास दर अनुमान 0.40 फीसदी घटाकर 3.2 फीसदी, जबकि 2023 के लिए 0.7 फीसदी घटाकर 2.9 लगाया है.
हालांकि, भारत का परिदृश्‍य मंदी के लिहाज से काफी बेहतर है. यहां खुद का विशाल बाजार और उपभोक्‍ता आधार होने के साथ विनिर्माण और उत्‍पादन की लंबी शृंखला है, जिससे वैश्विक मंदी का खास असर नहीं दिखेगा. हालांकि, निर्यात पर असर पड़ सकता है जिससे विकास दर कुछ सुस्‍त हो जाएगी.
मगर भारत के संदर्भ में निश्चिंत होकर भी नहीं रहा जा सकता. वर्तमान में दृष्टिगोचर हो रहे आर्थिक संकट को समझने के कई नुक्तानज़र हैं. लेकिन आर्थिक नीतियों की विफलता को दरकिनार नहीं किया जा सकता.
जैसा कि यूरोपीय संसद ने लेबनान की वर्तमान स्थिति को ‘राजनीतिक वर्ग में मुट्ठी भर पुरुषों के कारण मानव निर्मित आपदा’ कहा है. ठीक उसी तरह दुनिया के हर ऐसे देश में, जहां हम आर्थिक संकट देख रहे हैं, राजनैतिक वर्ग में मुट्ठी भर लोगों द्वारा पैदा किया गया संकट कह सकते हैं.
अब सवाल पैदा होता है कि क्या हमें फिर से उस बौद्धिक वर्ग के पाठ पढ़ने होंगे, जिन्हें हमारी पाठ्यपुस्तकों से धीरे-धीरे निकाला जा रहा है? •

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