मनोरञ्जक संस्कृत रचनाएं

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-डॉ. मधुसूदन – sanskritam
***ऐसा कवि जिसने, “ठठं ठठं ठं, ठठठं ठठं ठ” पर कविता रचकर दिखाई;
***ऐसा बलवान, जिसे शीत की बाधा नहीं होती;
***एक साँकल जिस से बंधा पागल दौड़ते फिरता है;
***और खटमल के डर से शिवजी, विष्णुजी और ब्रह्माजी कहां-कहां जा बैठे हैं
***और पढ़िए “चाय-गीता” में पिता-पुत्र का संवाद

आज संस्कृत साहित्य से चुनी हुयी सरल और मनोरञ्जक रचनाओं को प्रस्तुत करता हूं। ये रचनाएं प्रतिभाशाली रचनाकारों की है। अलग अलग रसों से प्रभावित हैं। यह संकलन ही है, मूल लेखकों के नाम भी नहीं मिलते।

(एक) संस्कृत के विद्वान रचनाकार
संस्कृत के विद्वान रचनाकारों ने अनेक अलंकारिक रचनाओं से संस्कृत साहित्य  को समृद्ध किया है। ऐसी रचनाओं की  अलंकारिता समझकर, उसका आनन्द उठाने के लिए भी कुछ संस्कृत शब्दों की और व्याकरण की जानकारी आवश्यक है। किस कुशलता से विद्वानों ने ऐसी रचनाएं की होंगी, इसका अनुमान तभी हो सकता है, जब उसका कुछ अर्थ भी पाठक समझ पाए। आप इसे समझे बिना, केवल जान भी जाए कि ऐसे गुण संस्कृत में है, पर्याप्त नहीं है। उसका अर्थ समझकर आनंद भी ले सकें तब  ही आप को ऐसे गुणों का, सही अनुमान हो सकेगा, ऐसा मेरा मत है। जैसे मात्र आम मीठा है, ऐसी जानकारी आप को आम की मीठास का अनुभव नहीं करा सकती। वैसे संस्कृत साहित्य में असीम सौंदर्य है, ऐसी कोरी जानकारी भी आप को उस की अलंकारिता एवं सुन्दरता की सही कल्पना नहीं करा सकती।

(दो) आलेख की सीमा
पर एक लाभप्रद बात यह है ही, कि अच्छी हिंदी का अभ्यास होनेपर भी कुछ सरल संस्कृत सहजता से समझी  जा सकती है। इस लिए लेखक, कुछ सरल, समझ में आए ऐसे ही उदाहरण चुनकर प्रस्तुत करने का प्रयास कर  सकता है। और यह लाभ भारत की प्रायः सारी प्रादेशिक भाषाओं के जानकारों को भी न्यूनाधिक मात्रा में होगा ही, ऐसा लेखक मानता है।
यही इस आलेख की सीमा भी है। इसलिए प्रयास करूंगा कि संस्कृत की, निम्नतम जानकारी के आधार पर ही, कुछ अच्छी हिन्दी जानने वालों को भी इस आनंद की अनुभूति करा पाऊं। इन मर्यादाओं के बीच यह आलेख बनाने का प्रयास है। एक हमारी सांस्कृतिक सच्चाई यह भी है कि आनन्द को बांटने से आनंद बहुगुणित हो जाता है। प्रवक्ता के कुछ पाठकों के सुझाव पर ही ऐसा साहस करता हूं। जहां हमने हमारी अपनी हिंदीको भी उपेक्षित किया है, वहां संस्कृत की अलंकारिक रचनाएं कैसे प्रस्तुत की जाए, यह एक समस्या ही है।

(तीन) एक प्रश्न देखिए। 
प्रश्न है : कं बलवंतं न बाधते शीतं?
अर्थात, किस बलवान को शीत (जाडे की) की बाधा नहीं होती?
इस प्रश्न का उत्तर उसी प्रश्न में छिपा है। पर कुछ इसी वाक्य की पुनर्रचना अवश्य करनी पड़ेगी।
उत्तर है, कम्बलवंतं न बाधते शीतं।
अर्थ: कम्बलवाले (कम्बल ओढ़ के बैठे) व्यक्ति को शीत की बाधा नहीं होती।
शीत की बाधा होने का सरल अर्थ है, जाड़े से पीड़ित होना।
दोनों वाक्यों को दूबारा पढें। पहले में “कं बलवंतं” तो  दूसरे में “कंबलवंतं” एक शब्द को अलग करने से  दो अलग अर्थवाले वाक्य रचे गए। पहला प्रश्न है, दूसरा उत्तर है।

(चार) आशा नाम मनुष्याणां।
दूसरा सुभाषित देखिए।
आशा नाम मनुष्याणां। काचित्  आश्चर्य श्रृंखला॥
यया बद्धाः प्रधावन्ति। मुक्ताः तिष्ठन्ति पङ्गुवत॥

आशा नामक मनुष्यों की, कोई अचरज भरी सांकल है। जिस से बंधा हुआ दौडते फिरता है, पर मुक्त (आशा ना रहने पर) किसी पंगु की भांति खड़ा रहता है। कवि ने एक सच्चाई चतुराई से प्रस्तुत की है। बात सही है कि आशा से बंधा हुआ, व्यक्ति दौड़ते फिरता है और आशा से मुक्त (आशा न रहने पर), पंगु की भांति खड़ा रह जाता है। मेरे एक घनिष्ठ मित्र की पत्नी का नाम आशा है। तो उन्हें भी एक परिहास के अर्थ  इन पंक्तियों को सुनाया था।
आशा नाम मनुष्याणां काचित् आश्चर्य श्रृंखला।
सारे संसार में लोग आशा से बंधकर ही दौड़ते फिरते हैं। सुभाषितकार ने सच ही लिखा है।

(पांच) खटमल महाराज 
पाठकों को क्या पता कि खटमल महाराज का राज, इस संसार के प्रत्येक व्यक्ति पर चलता है। प्रधान मंत्री क्या, और राष्ट्र के अध्यक्ष क्या, किसी को खटमल महाराज छोडते नहीं है। मनमोहन सिंह हो, या प्रणव मुखर्जी हो, कोई इन के प्रभाव से छूटता नहीं। और ये खटमल महाराज हमें भी सोने नहीं देते। संस्कृत सुभाषितकार कहते हैं कि खटमल के डरसे भाग कर तो शिवजी, विष्णु और ब्रह्माजी कहां-कहां जा बैठे हैं?
सुनिए। सुभाषितकार कहते हैं।
कमले ब्रह्मा शेते, हरः शेते हिमालये।
क्षीरब्धौ च हरिः शेते, मन्ये मत्कुणशंकया ॥

ब्रह्माजी कमल में (जा) बैठे, शिवजी हिमालय में सोते हैं। और क्षीर सागर में जाकर सोते हैं, विष्णु तो कवि को इसका कारण लगता है, कि ये सारे खटमलों (मत्कुण) से डरते हैं।

(छः) यम के सहोदर (भाई)
वैद्य राज को यम राज के भाई कहने वाला सुभाषित देखिए।
वैद्यराज नमस्तुभ्यं, यमराजसहोदर।
यमः तु हरति प्राणान्, वैद्यराजः धनानि च॥ 

कहा है, डॉक्टर (वैद्यराज) को मेरा नमस्कार, तुम यमराज के भाई (सहोदर) ही हो। यम तो प्राण ही मात्र हरण करते हैं, पर तुम डाक्टर तो (प्राण और धन दोनों हर लेते हो।

(सात) चाय गीता
अब एक हास्य-व्यंग्य की रचना लेते हैं।

यत्र पेयेश टी-देवो यत्र कप्प धरा नराः।
तत्राल्पायुर्विपद् रोगा वाऽनीतिर्मतिर्मम॥

जहाँ पर पेय के ईश्वर टी-देव है, और हाथ में कप लिए नर खड़े हैं।
वहाँ अल्पायु की विपत्ति या रोग होंगे, यह नीति-मति है मेरी।
आगे इसी चाय गीता में पिता-पुत्र का संवाद दिया गया है।

पिता: धूम्र पानं कुतो वत्स? (पिता : पुत्र, सिगरेट क्यों पीते हो ?)
पुत्र: जलं तेन न बाधते। (पुत्र: उस से जल की बाधा नहीं होती।)
पिता: कस्मात् क्रॉप ?  (पिता: बाल लंबे क्यों रखे ?)
पुत्र: वर्तते तेन मस्तिष्कं शीतलं सदा।  (पुत्र: उस के कारण सर ठंडा रहता है।)
पिता: कुतः क्यापम् ?  (पिता: सरपर हॅट क्यों?)
पुत्र: रुमालस्य भारेण व्यथते शिरः। (पुत्र: रुमाल के बोझ से सर दुखता है।)
पिता: चहा पानेन किं? (पिता :चाय क्यों पीते हो?)
पुत्र: तेन, तन्द्रालुर्न नरो भवेत।   (पुत्र: उससे (दुपहरको) नींद(तंद्रा)   नहीं आती
पिता: टाइट कोटादिभिः किं? (पिता चुस्त कोट आदि क्यों?)
पुत्र: न स्यान्नरस्तेन तुन्दिलः। ( पुत्र उस से बडा पेट ढक जाता है।)
पिता: सेवते मदिरां कस्मात् ?  (पिता: मदिरा (दारु) सेवन  क्यों करते हो?)
पुत्र: सा प्लेग प्रतिबन्धिका। (पुत्र: वह प्लेग प्रतिबंधक है।)
टिये नमः टिये नमः टियेः
नमो बिडी स्वामिने टिये।
झुर्  झुर्  भुस्
सोडा वाटराय फट्। 

यह व्यंग्य होने से, अशुद्ध भाषा का प्रयोग हुआ है।
संस्कृतज्ञ, पद्मश्री विद्वान वर्णेकर जी ने अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख भी किया है।

(आठ) समस्यापूर्ति 
कवियों की, रचना क्षमता की, परीक्षा हुआ करती थी। ऐसी परीक्षा में, समस्यापूर्ति नामक एक परीक्षा होती थी। इस परीक्षा में कवियों को एक पंक्ति दी जाती थीं। और उस पंक्ति को कविता में गूथकर एक कड़ी रचकर बतानी होती थी। कठिन से कठिन कडी देकर दिग्गज कवियों की परीक्षा ली जाती थी। अब राजा भोज ने अपनी राजसभा में एक बार ऐसा कठिन कड़ी प्रस्तुत की, कि कोई भी कवि उस शब्द-गुच्छ पर कविता रचने का साहस  नहीं कर सका।
वह शब्द समूह था, ठठं ठठं ठं, ठठठं ठठं ठ |
अब भला ऐसे ठठं ठठं ठं, ठठठं ठठं ठ पर कौन कवि कविता रचकर दिखाएगा?
पर कालिदास कालिदास ही तो थे, उन्होंने इस पर भी कविता रचकर दिखाई। जानते हो, क्या पंक्तियां थीं वें? वे पक्तियां थीं।

रामाभिषेके जलमाहरन्त्याः हस्ताच्च्युतो हेमघटो युवत्याः |
सोपानमार्गेण करोति शब्दं ठठं ठठं ठं, ठठठं ठठं ठ ||

अर्थ  : श्री राम (भगवान) के  राज्याभिषेक के (अवसर पर) सुवर्ण गगरी में जल लाती हुयी युवति के हाथ से गगरी जो छूट गयी, तो (सोपान मार्गेण) सीढ़ीयों पर गिरती गिरती, एक एक सीढ़ी पर शब्द-घोष ठठं ठठं ठं, ठठं ठठं ठ; करती करती चली। जिस सीढ़ी पर दो धक्के लगे वहां ठठं, जहां एक धक्का लगा वहां ठं और अंत में ठ कर के हो गई शांत।

ऐसी ऐसी चमत्कृति-भरी रचनाएं संस्कृत साहित्य में भरी पड़ी हैं। साथ-साथ, जीवन की  सफलता के लिए, लिखे गए उपदेशात्मक सुभाषितों का भी प्रचण्ड भण्डार है।पर मनोरंजक रचनाएं भी अत्र-तत्र फैली हुयी है। कुछ इसी का आस्वाद प्रवक्ता के पाठकों को कराने उद्देश्य से सदा की लीक से हटकर आज का आलेख बनाया है।
और अनुवाद करते समय हिंदी की प्रकृति के अनुसार कुछ बदलाव किया है। सुभाषितों के विषय में लिखे गए सुभाषित से अंत करता हूं।
भाषासु मुख्या मधुरा, दिव्या गिर्वाण भारती .
तस्माद्भिः काव्यं मधुरं, तस्मादपि सुभाषितम्

7 COMMENTS

  1. माननीय मधु जी,

    बहुत सुन्दर ! आज मेरठ में संस्कृत का एक वर्ग पढ़ाना है । उसमें आपके इन मनोरञ्जक उदाहरणों में से कुछ देकर छात्रों के रुचिवर्धन का प्रयास करूँगा ।

    आपका मानव ।

  2. आदरणीय आचार्य जी
    आपके लेख से प्रोत्साहित हो कर एक पुराना चुटकुला स्मरण हो आया। कहते हैं कि महाकवि कालिदास को समस्या दी गई कि क ख ग घ पर कोई कविता सुनाएँ। महाकवि ने समस्यापूर्ति में यह कविता सुना दी ;–
    को ते बाले ? कंचनमाला
    कस्याम पुत्री ?कनकलतायाम्
    कुत आगच्छत ?शालायां
    किम अपठत ?क ख ग घ
    मेरा संस्कृत का ज्ञान शून्य के बराबर है अतः त्रुटियों के लिए क्षमा करें
    एक और सुभाषित जो मैंने बचपन में सुना था इस प्रकार है
    काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम
    विषयाणां च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।

  3. कामधुरा, काशीतलागंगा। कंसंजघान कृष्णः, कम्बलवन्तं न बाधते शीतम्॥
    का मधुरा = काम-धुरा । का शीतला गंगा = काशीतला गंगा। कं सं जघान कृष्णः = कंसं जघान कृष्णः। कम् बलवन्तं न बाधते शीतम् = कम्बलवन्तं न बाधते शीतम्।
    प्रश्न-का शम्भु-भार्या, किमु नेत्र रम्यं। शुकार्भकः किं कुरुते फलानि, मोक्षस्य दाता स्मरणेन कोऽपि। उत्तर-गौरीमुखं चुम्बति वासुदेवः।

    • नमस्कार उपाध्याय जी।
      अनुगृहीत हूँ।
      बहुत सुंदर।
      मेरे अध्यापक रानडे शास्त्री १८ वर्ष काशी जाकर, गुरूकुल प्रणाली में, मात्र संस्कृत ही सीखकर आये थे। कभी उनपर भी आलेख बनाने का विचार अवश्य है। पढाते पढाते आपने एक पंक्ति सुनाई थी।
      आप से निवेदन कि, कोई आलेख डालनेकी कृपा करें। प्रवक्ता के सभी पाठक (और मैं भी) अनुगृहीत होंगे।

  4. अति सुन्दर.आशा है इस श्रिन्खला मे समय समय पर नये लेख भेज कर पाथको के ग्यान तथाआनन्द् मे व्रिद्धि करने की क्रिपा कर् ते रहेन्गे

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