मांसाहार बढ़ा रहा है कार्बन उत्सर्जन

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-प्रमोद भार्गव

 खानपान पर ऑक्सफोर्ड और मिनेसोटा विश्वविद्यालयों के संयुक्त अध्ययन के निष्कर्षों ने सारी दुनिया को चौंका दिया है। इसमें कहा गया है कि शाकाहारी भोजन के मुकाबले रेड मीट पर्यावरण के लिए 35 गुना अधिक घातक है। यदि लोग मांस खाना छोड़ दें तो दुनिया में खाद्य पदार्थों के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 60 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। इस अध्ययन में विभिन्न प्रकार के भोजन के कारण पड़ने वाले पर्यावरणीय बोझ और चिकित्सा खर्च का अनुमान लगाया है। शाकाहारी भोजन में प्रोटीन की मात्रा मांसाहार से अधिक होती है।

अध्ययन के अनुसार दुनिया में 14 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए मवेशी जिम्मेदार हैं। यह स्थिति इनके मल और चारे से पैदा हुई है। पोषण के लिहाज से देखें तो मांस, अंडा और दूध जैसे खाद्य उत्पादों से वैश्विक प्रोटीन की आपूर्ति 37 प्रतिशत होती है। यदि मवेशियों का एक देश बना दिया जाए तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वह चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर रहेगा। बीस बड़ी मांस और दुग्ध उत्पादन कंपनियों का कार्बन उत्सर्जन जर्मनी या ब्रिटेन जैसे देशों से कहीं ज्यादा है। यदि एक अमेरिकी व्यक्ति 2300 कैलोरी का मांसाहार करता है और यदि वह शकाहारी बन जाता है तो इससे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वार्षिक 70 प्रतिशत तक की कमी आएगी। यदि लोग डेयरी उत्पाद खाना बंद कर दें तो ग्रीन हाउस गैसें और कम उत्सर्जित होंगी। ‘ईट स्टाॅक होम फूड फोरम‘ के तहत भारत समेत 16 देशों के 37 विशेषज्ञों ने एक शोध रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इसमें खानपान में खासकर ‘रेड मीट’ के इस्तेमाल से भूमि की प्रकृति बदलने के निष्कर्ष निकले हैं। इससे जैव विविधता पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं और पानी का घोर संकट पैदा हो रहा है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली 25 प्रतिशत गैसें भी इन्हीं कारणों से उत्सर्जित हो रही हैं। इन निष्कर्षों पर जर्मन पर्यावरणविद् जोहान राॅकस्टोर्म का कहना है कि ‘मांस उद्योग को खत्म करने की पूरी दुनिया को पहल करनी होगी। बीज, छिलके, अनाज, फल एवं शाक-सब्जियों से युक्त भारत का पारंपरिक भोजन ही दुनिया को बता सकता है कि धरती को बर्बाद किए बिना हम कैसे पौष्टिक भोजन प्राप्त कर सकते हैं।’ खानपान पर भारत के लिए खुशी इस बात की है कि पश्चिमी देश भारतीय मनीषियों के जीवन दर्शन का अनुसरण कर अपने नागरिकों को शाकाहार अपनाने की सलाह दे रहे हैं। मगर विडंबना यह है कि हम यानी भारतीय, पश्चिमी जीवन शैली का अनुकरण कर पेट भरने के गलत उपायों को प्रोत्साहित कर मांसाहार को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत में जो दालें और मोटे अनाज की फसलें पैदा की जाती है। उनमें ज्वार, बाजरा, मक्का, कुट्टू और पसाई धान के चावल शामिल हैं। अनाज को प्रोटीन और पौष्टिक बनाने के सभी तत्व इनमें मौजूद हैं। इन्हें पैदा करने में पानी भी कम लगता है। आदिवासी व अन्य वंचित समाज इन्हें बड़ी मात्रा में अपने छोटे-छोटे खेतों में पैदा करते हैं, यदि इस अनाज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लिया जाए, तो एक हद तक भुखमरी से निजात पाई जा सकती है।

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 19.5 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। यह स्थिति उस कृषि-प्रधान देश की है, जो खाद्यान्न उत्पादन के मामले में तो आत्मनिर्भर है ही, अनाज की कई किस्मों का निर्यात भी करता है। दुनिया के कई देश अपनी भुखमरी से निपटने के लिए भारत से ही अनाज खरीदते हैं। साफ है, देश में भुखमरी व कुपोषण की समस्या खाद्यान्न की कमी से नहीं, बल्कि प्रशासन के कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार का परिणाम है। बावजूद देश की नौकरशाही भुखमरी से निपटने के लिए मांस से बने उत्पादों को जन वितरण केंद्रों (पीडीएस) के माध्यम से गरीबों को उपलब्ध कराने का उपाय करने जा रही है। इसका मकसद है कि लोगों को ज्यादा प्रोटीन युक्त भोजन मिले। जबकि सरकार को मांस वितरण के सिलसिले में जो सब्सिडी देनी पड़ेगी, वह सरकार के बजट घाटे को और बढ़ाएगी। फिलहाल 2019-20 में खाद्यान पर जो सब्सिडी दी जा रही है, वह 1.84 लाख करोड़ रुपये है। मांसाहार को बढ़ावा देने से इस सब्सिडी का आंकड़ा कहां ठहरेगा, यह तो कोई अर्थशास्त्री ही बता सकता है ? यह प्रस्ताव नीति आयोग ने भारत सरकार को दिया है। यह प्रस्ताव  स्वीकार होता है तो पीडीएस के जरिए चिकन, मटन, मछली और अंडा रियायती दरों पर उपलब्ध होगा। यदि ऐसा होता है तो समस्या से निजात मिलने की बजाय, कुपोषण की समस्या और भयावह रूप धारण करेगी क्योंकि मांस उत्पादन में अनाज ज्यादा खर्च होता है और दूसरे इसे वितरण के लिए हर पीडीएस केंद्र पर बिजली की 24 घंटे उपलब्धता के साथ रेफ्रिजरेटरों की जरूरत पड़ेगी। इन उत्पादों को केंद्रों तक पहुंचाने के लिए भी वातानुकूलित वाहनों की जरूरत होगी। इससे कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि तय है। हमारे  योजनाकारों को यह समझना होगा कि मांस से ज्यादा प्रोटीन दूध एवं शहद में होता है। दूध और शहद को संपूर्ण आहार भी माना गया है।  महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि 100 कैलोरी के बराबर मांस (बकरों और मुर्गियों के पालन) तैयार करने के लिए 700 कैलोरी के बराबर अनाज खर्च होता है। अगर यह अनाज सीधे भोजन के रूप में प्रयोग में लाया जाए तो कहीं ज्यादा लोगों की भूख मिटा सकता है। 

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  1. प्रमोद भार्गव जी द्वारा सूचनात्मक व, मैं तो कहूँगा, समयोचित निबंध देश में शासकीय एवं अशासकीय खाद्य नीति निर्माताओं के लिए एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जो परंपरागत भारत में वैश्विकता के कारण उत्पन्न वर्तमान परिस्थितियों से जूझते भारतीयों को पर्यावरण पर प्रभाव से अलग, शाकाहारी पौष्टिक आहार की महत्वता समझाने में सहायक है|

    निबंध पढ़ मुझे यह जानने की जिज्ञासा हुई कि क्या नीति आयोग (अधिकारी-तंत्र) द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अंडे, मच्छी, व मांस की प्रस्तावित उपलब्धि का विरोध हुआ है? किसी पुरस्कार-वापसी-टोली ने ही कहा हो क्यों रियायती अंडे, मच्छी, और मांस के प्रलोभन द्वारा शाकाहारी को मांसाहारी बना रहे हो? स्वयं मुझे विषय पर आधुनिकता के वातावरण में परंपरागत भारत की ओर लौटती भाजपा का दृष्टिकोण जानने की उत्सुकता बनी हुई है|

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