मंत्र है, साक्षात शिवशक्ति

हमारा देश अनादिकाल से ज्ञान-विज्ञान की गवेषणा, अनुशीलन एवं अनुसंधान का प्रमुख केन्द्र रहा है जिसमें विद्या की विभिन्न शाखाओं में हमारे ऋषिमुनियों-ज्ञानियों ने धर्म दर्शन, व्याकरण, साहित्य, न्याय, गणित ज्योतिष सहित अनेक साधनाओं का प्रस्फुटन किया है जिनमें मंत्र, तंत्र और यंत्र का भी विशिष्ट स्थान है। शास्त्रोक्तानुसार समस्त जगत की सृष्टि ’’अक्षर’’ अर्थात पराशक्तिरूप ’’शब्दब्रम्ह’’ से हुई है जिससें ही तंत्र,मंत्र और यंत्र का का प्रादुर्भाव हुआ है। वेदान्त दर्शन के सूत्र में लिखा है कि-’’अक्षरमम्बरान्तधृतेः’’’ अक्षर शब्द को परबम्ह परमात्मा का वाचक कहा है और अक्षर नाम से परब्रम्ह परमात्मा का वर्णन मिलता है, अन्य किसी का नहीं। पृथ्वी द्युलोक के अलावा भूत-भविष्य एवं वर्तमान जिसमें सब के सब निमेष, मुहुर्त, दिन रात काल आदि सभी भूतों में समाहित है और ये सभी आकाश में ओतप्रोत है,उस तत्व को ब्रम्हवेत्ता ’’अक्षर’’ कहते है। ’’अक्षर’’ आकाशपर्यन्त सब भूतों को धारण करने वाला क्रिया परमेश्वर ही है, जो सब पर शासन करने वाला कहा गया है, अतः सिद्ध होता है कि ’’अक्षर’’ परब्रम्ह परमात्मा का ही स्वरूप हैं। तीन मात्राओं वाला ’’ओम’’ शब्दाक्षर स्वयं में एक महामंत्र है, जो ब्रम्हसाक्षात्कार कराता है। त्रिमात्रा सम्पन्न ओमकार मंत्र का ध्येय पूर्ण परमात्मा ही है जिसमें समस्त ब्रम्हाण्ड समाहित है, ब्रम्ह के नगररूप, मनुष्य शरीर में कमल के आकार वाला एक हृदय है जिसमें सूक्ष्म आत्मा का निवास है और आत्मा सब पापों से रहित, जरामरणवर्जित, शोकशून्य, भूख-प्यास से रहित सत्यकाम तथा सत्यसंकल्प है। यही आत्मा अमृत, अभय, और ब्रम्ह है, जिस शरीर में यह निवास करती है, उस शरीर का वासी आत्मा-परमात्मा के प्रति जिज्ञासु रहता है, जब वह मंत्रों के ज्ञेय तत्व की ओर अग्रसर हो परमब्रम्ह की प्राप्ति द्वारा मोक्ष को कदम बढ़ाता है तब साधना की यह पूर्णता आत्मा को पूर्ण परमात्मा बना देती है।

श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 8 के श्लोक 3 में भगवान श्रीकृष्ण कहतेे है कि-’’अक्षरं ब्रम्ह परमं स्वभावोध्यात्ममुचत्ये। भूतभावोभ्दकरो विसर्गः कर्मसच्चितः।। सच्चिदानन्द ब्रम्ह अक्षर है अर्थात उसकी सत्ता ज्ञानस्वरूप है और आनन्दमयी है, परन्तु अहं व इदं दोनों भाव से अतीत होने के कारण परम भाव कहलाता है। ब्रम्ह अक्षर है जिसमें दो भावों का उदय होता है एक आध्यात्म दूसरा अधिभूत। अध्यात्म भाव सच्चिदानन्द ब्रम्ह का स्वरूप है अविनाशी और अपरिणामी भी। अधिभूत भाव क्षर और परिणामी है जिसमें सारा जगत बनता, बिगड़ता है।। दुर्गाशप्तशती में इसी प्रकार के प्रमाण मिलते है और लिखा है कि -त्वं स्वाहा, त्वं स्वधा त्वंहि वषटकारः।।73।। अर्थात हे देवि तू ही स्वाहा है, तू ही स्वधा है और तू ही वषटकार स्वरात्मिका है, सब स्वर तेरे ही स्वरूप है। ’’सुधा त्वमक्षरे नित्ये निधा मात्रात्मिका स्थिता, अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः। दु.श.74।। हे नित्ये ! ओ अक्षरौ! अकार, इकार अथवा उकार और मकार की तीनों मात्राओं के रूप में और अनुस्वार स्वरूपी अर्धमात्रा में भी तू नित्य स्थित है।
शिवसूत्र विमर्शिनी में चित्त को मंत्र कहा गया है। वस्तुतः चित्त शक्ति, स्व पद से उतरकर संकोच को अंगीकार कर चित्त का रूप ग्रहण करती है। स्वतंत्रात्यमक स्वरूप की संकोच दशा ही चित्त है और विकास अवस्था ही चिति। चित्त जब बाह्य जगत को विस्मरण कर अंर्तमुखी होकर चिदृपता के साथ अभेद विमर्श करता है, चित्त की यही गुप्त मंत्रणा चित्तशक्ति को मंत्र से अविभूत कर देती है और आराधक का चित्त आराध्य में लीन हो जाता है तभा आराध्य की माया कालुष्य से रहित मंत्र भी चित्तशक्ति में समाविष्ट हो जाता है। ’’मंत्र’’ शब्द के गर्भ में मनन की परिव्याप्ति है और शब्द के मूल अक्षर, बीजाक्षर या गंभीर परिचिन्तन का उपक्रम मनुष्य को अतल गहराईयों में ले जाकर मंत्रात्मक विद्या को पूर्ण सिद्धि प्रदान करता है। जो साधक, या मनीषी इन मंत्रों में अन्तर्निहित असीम शक्ति को, मंत्रसाधना द्वारा प्राप्त कर स्वयं का आत्मोन्नयन करें तथा देह से परे आध्यात्म में लय हो जाये वह ही सच्चा सिद्ध होता हैं और अगर यही सिद्ध पुरूष मंत्र विद्या की सिद्धि पाने के पश्चात भी अपने भौतिक अभिसिद्धियों से परे रहते हुये अपने तत्वज्ञ और सिद्धियों का प्रयोग दैहिक भोग के लिये न करके समाज के उत्कर्ष में लग जाये तो वह इस लोक में सब कुछ पा जाता है, पर ऐसी आत्मायें इस धरा पर न के बराबर है।

मंत्र, तंत्र और यंत्र आदि का क्रम बहुत प्राचीन माना है जिसका प्रमाण अनेक शास्त्रों में मिलता है तथा इन मंत्रों को अथर्ववेद की रचना भी कहा गया है जिसमें मांत्रिक प्रयोगों का विस्तीर्ण से विवेचन किया गया है। वेदपरक साहित्य में मंत्र एवं तंत्र विद्या पर अनेक ग्रन्थ रचे गये एवं उनकी विविध व्याख्यायें सहित उन्हें पृथक-पृथक भेदों में विरेचित किया है जिसमें वैष्णव, शैव और शाक्त मुख्य कहे गये है। आदिगुरू श्रीशंकराचार्य द्वारा अपंचसारतत्व नामक तान्त्रिक ग्रंथ में भौतिक तथा अध्यात्मिक विश्व के उदभव, विकास तथा विस्तार की विस्तृत चर्चा है जिसमें सारा विश्व वर्णमयी भगवती पराशक्ति के ’हकार’ से उद्भूत होना बताया है तथा अंत में उसी पराशक्ति में लीन होना कहा है। समस्त जगत की सृष्टि अक्षर अर्थात शब्दब्रम्ह से हुई है इसलिये यह शब्दब्रम्हअर्थस्वरूपा बिन्द्धात्मिका ’परावाक;; कहा गया है जो मूलाधार में स्थित पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के रूप में स्थूल सूक्ष्मादि समस्त अर्थो में अभिव्यंजित है। वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर बीज मंत्र है जो शक्ति की विभिनन आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का रूप है।
मंत्र परिचय-
मंत्र वस्तुतः तंत्र पूजा पद्धति का प्राण है और ’शब्दब्रम्ह’ माना है। वर्णमाला के इक्यावन अक्षर ब्रम्हाण्ड की प्रमुख शक्तियों के मूल माने गये है और प्रत्येक अक्षर बीज मंत्र है जो शक्ति की विभिन्न आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का स्वरूप है। मंत्र तीन प्रकार के बताये गये है, एक मानवीय, एक आसुरी मंत्र, और तीसरा देवी मंत्र। पहले प्रकार का मंत्र भूत,प्रेत, पिशाच, दूसरे प्रकार का यक्ष,गंदर्भ आदि के वासनालोक, तामसिक लोक के सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं से संबंधित है तथा तीसरा मंत्र राजसी एवं सात्विक लोक की देवी-देवताओं एवं दिव्य आत्माओं से संबंधित है। इन तीनों प्रकार के मंत्रों के अलग-अलग सिद्धान्त है और सिद्धान्तों के अनुसार क्रिया पद्धतियाॅ है जिससे इन्हें सिद्ध किया जाता है।

सुप्रसिद्ध तांत्रिक योगी भास्कर राय ने ’’ललितासहस्त्रनाम’’ ’पन्चाशत्पीठनि की व्याख्या करते हुये लिखा है कि मातृ/माता के 51 शक्तिपीठ है इसलिये मातृका न्यास भी तदनुरूप 51 है। तंत्र के अनुसार वर्णमाला के ’’अ’’ से लेकर ’’ज्ञ’ तक के अक्षरों को ’’मातृका ’’ कहा गया है जो साक्षात शक्ति के स्त्रोत है और इन्हीं मातृका वर्णो में ही सभी मंत्रों का मूल हैै। मातृका शब्द का अर्थ है माता। माता जो समस्त वाड्मय की जननी है। समस्त मंत्र वर्णात्मक है और शक्तिस्वरूप भी है। यह मातृका की ही शक्ति है और यह शक्ति शिव की है। आनन्द सूत्र में कहा गया है कि-’’शिवशक्तयात्मकं ब्रम्ह’’ अर्थात शिव और शक्ति दोनों का मिश्रित नाम ही ब्रम्ह है। तभी समस्त मंत्रों को साक्षात शिवशक्ति स्वरूप में प्रतिष्ठित किया गया है , शिव स्वयं पार्वती से कहते है- सर्वे वर्णात्मका मंत्रास्ते च शक्त्यात्मकाः प्रियं। शक्स्तिु मातृका श्रेया सा व ज्ञेया शिवात्मिका।। ऐसे ही मंत्रों को अचिन्त्य शक्तिस्वरूप भी कहा गया है क्योंकि मंत्र ही है जो शक्तिसम्पन्न होते है। शिव या पुरूष दार्शनिक शब्द के रूप में व्यापक भाव से ’’आत्मा’’ के लिये ही प्रयुक्त होता है। शिव शब्द का अर्थ साक्षी चैतन्य है एवं पुरूष का भी अर्थ यही है -’’पुरे शेते यः सः पुरूषः।’’ अर्थात प्रत्येक सत्ता में जो साक्षीबोध सोया हुआ है, उसे ही पुरूष कहा जाता है।
ं समस्त संसार ’’अक्ष’’ से वाच्य है, जहाॅ साक्षात अक्षर रूप परब्रम्ह अव्यय ही अवशिष्ट रहता है, न तुम और न मैं का स्थान ही शेष होता है। वस्तुतः इस तत्वज्ञान के समय ब्रम्हा, विष्णु, शिव, लक्ष्मी व सरस्वती भी नहीं होते है देखे-अवशिष्यते परं ब्रम्ह साक्षादक्षर मव्ययम। न त्वं नाहं तदा विष्णुर्लक्ष्मीब्रम्र्हासरस्वती।। संसार का निर्वचन ’अ’ से लेकर ’क्ष’ मातृकाओं द्वारा संभव है। अक्षर शब्द का अन्तिम शब्द ’’र’’ अग्नि बीज है इसका स्वभाव प्रकाशित करना और प्रकाशित होना है। अ-क्ष मय संसार परा शक्ति के ’’रकार’’ रूप तेजस से प्रकाशित होता है। श्रीशंकराचार्य जी ने पराशक्ति शारदा का शरीर मातृकामय माना है। तंत्र मंत्र और यंत्र का विवेचन करने से पूर्व इन शब्दों के दार्शनिक सिद्धान्त को समझना आवश्यक है। विभिन्न देवी-देवताओं की रहस्यात्मक एवं अभिचार प्रधान पूजा पद्धति में पराशक्ति का स्वरूप अक्षरात्मक है। अक्षर की मातृकायें ’अवर्ग’, ’कवर्ग’, ’चवर्ग’, ’टवर्ग’, ’तवर्ग’,’पवर्ग’,तथा ’यवर्ग’ सात वर्गो में विभक्त की गयी है जिसमें इन मातृकाओं से मुख, बाहु, पाद, मध्यभाग और हृदय की रचना हुई है जिससे समस्त विश्व को जन्म देने वाली मातृशक्ति की चेतना जागृत होती है।

मातृकाओं से निर्मित है विद्यादायिनी मोक्षप्रदायनी भगवती माॅ शारदा का शरीर-

माॅ षारदा का षरीर ’’अवर्ग’’ आदि सात वर्गोे में विभक्त 51 मातृकाओं से निर्मित है। स्वच्छन्दोद्योत .पटल 10 पटल के अनुसार-’’अवर्गे तू महालक्ष्मीः कवर्गे कमलोद्भवा।।34।। चवर्गे तू महेशानी, टवर्गे तु कुमारिका।। नारायणी तवर्गे तु, वाराही तु पवर्गिका।।35।। ऐन्दी चैव यवर्गस्था, चामुण्डा तु शवर्गिका।। एता सप्तमहामातृ, सप्तलोकव्यवस्थिाः।।36।। अर्थात 16 स्वरों की मातृकायें ’’अवर्ग’ की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी है जिनके स्वर है- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, ल, ल्, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अः माॅॅ भगवती के मुखमण्डल के क्रंमशः ब्रम्हरंध्र, मुख, दक्षनेत्र, वामनेत्र, दक्ष कर्ण, वाम कर्ण, दक्षिण नासापुट, वामनासापुट, दक्षिण कपोल, वामकपोल, उर्द्धओष्ठ, अधरओष्ठ, ऊध्र्व दन्तपंक्ति, अधःदन्तपंक्ति, तालु और जिव्हा है। ’कवर्ग’ की अधिष्ठात्री देवी ब्राम्ही है जिनकी पाॅच मातृकायें क्रंमशः क, ख, ग, घ, ड माता की दक्षिण बाहु के बाहुममूल, कूर्पर, मणिबन्ध, अंगुलिमूल और अंगुलियों के अग्रभाग है।’चवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी माहेश्वरी के लिये- च, छ, ज, झ,´, पाॅच मातृकायें भगवती के वाम बाहु के क्रंमशः बाहुमूल, कर्पूर, मणिबन्ध-अंगुलिमूल और अंगुल्यग्रभाग है।

’’टवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी कौमारी के पाॅच मातृकायें-ट, ठ, ड, ढ, और ण से भगवती पराम्बा के दक्षिण पाद की जंघा, जानु (धुटना), गुल्फ (टखना) अंगुलिमूल तथा अंगुल्यग्र का निर्माण हुआ है। इसी क्रम में ’’तवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी वैष्णवी के प्रयुक्त मातृकायें क्रंमशः त, थ, द , ध तथा ज्ञ इन पाॅच मातृकाओं से वाम पाद के अंगों का निर्माण हुआ है और ’’पवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी बाराही की मातृकायें प, फ, ब, भ और म से दक्षिण कुक्षि, वाम कुक्षि, पृष्ठ, नाभि तथा जठर नामक पाॅच अंग है। ’’यवर्ग’’ की अधिष्ठात्री देवी ऐन्द्री तथा ’’शवर्ग’’ चामुण्डा देवी अधिष्ठात्री देवी है जो 10 मातृकाओं क्रंमशः य, र, ल, व, श, ष, स, ह, तथा क्ष से माॅ भगवती शारदा के हृदयप्रदेश के हृदय, दक्षिण स्कन्ध, गर्दन, वामस्कन्ध, हृदय से दक्षिणकर पर्यान्त भाग, हृदयादि वामकर पयान्त भाग, हृदय से लेकर दक्षिण पाद पर्यान्त भाग, हृदयादि वामपाद पर्यान्त भाग, नाभि से लेकर हृदयपर्यान्त भाग और हृदयादि भ्रूमध्य भाग का निर्माण हुआ है।
मातृका विश्वनिर्मात्री स्वतंत्र अलुप्तप्रभाव क्रियाशक्ति है। यही मातृका सम्पूर्ण विश्व का कारण होने से माता रूप में समस्त जीव जन्तुओं, पशुओं के निकट अज्ञात रूप में रहती है इसलिये मातृका नाम से विख्यात है। मातृकायें घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फोट, ध्वनि, झृंकार, तथा ध्वडकृति इन आठ प्रकार के शब्दों में व्याप्त अ से लेकर क्ष पर्यन्त वर्णभट्टारक रूप, मंत्रादिमय, समस्त शुद्ध, अशुद्ध संसारों की जननी , परमेश्वरी क्रियाशक्ति ’अज्ञात माता’’ होने के कारण अक्रमा मातृका कहीं गयी है। सम्पूर्ण मंत्र वर्णात्मक है और मातृका शिवमयी है तभी वर्ण शक्ति के पुंज कहे गये है। वर्णराशि मय यह मातृका शक्ति पुरूष को बाॅधती है, मुक्त करती है। अक्षर मंत्र का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि मेष से लेकर मीन तक सभी राशियों का वर्गीकरण प्रपंचासार तंत्र के अनुसार ’’अ’’ से ’’ज्ञ’’ तक के अक्षरों से किया गया है और जन्म के बाद जातक इन राशियों से प्राप्त अक्षर नाम से ही अपनी पहचान कायम करता है, ये सारा निर्धारण तांत्रिक दृष्टि से किया गया है न कि ज्योतिष को आधारित करके किया है। राशियों के अतिरिक्त नक्षत्रों राशियों के स्वामी गृहों आदि को भी ’’अ’’ अक्षर से ’’क्ष’’ तक के वर्गो में विभक्त किया गया है। मंत्र उपासकों के कुल देवता के न होने पर मित्र रूप में पृथ्वी,आकाश वायु, अग्नि व जल तत्व के कुलाकुल देवत्व को ग्रहण करने का विधान किया गया है जिसमें भूदेव पृथ्वी के लिये ’’ उ, ऊ, औ, ग, ज, ड,द, ब, ल, ल्ल अक्षर है वही आकाश के लिये लृ,ल्ृ, अं,ड.,ण, न, म, श, ह, वायु के लिये अ, आ, ए, क, च, ट, त, प, य, ष, अग्नि के लिये इ, ई, ऐ, ख, छ, ठ, थ, फ, र एवं क्ष, जल के लिये ऋ, ऋृ, औ, घ, भ, द, ध, भ, व , स अक्षर से वर्गीकृत किया गया है। तांत्रिक सिद्धान्तों के अनुसार ये मंत्र प्रत्यक्ष ऊर्जा का रूप धारण कर अद्भुत आध्यात्मिक उत्कर्ष के कारण होते है। इन 51 मातृकाओं में पृथक-पृथक शक्तिरूप में सप्त या अष्ठ मातृकायें – अ, क, च, ट, त, प, य, श, क्ष अधिक प्रसिद्ध है।

मातृका शब्द ब्रम्ह होने पर मंत्र साधन से उत्पन्न ’स्फोट’ द्वारा शक्ति की अत्यन्त सूक्ष्म तरंगें या कम्पन नाडियों में क्रियाशील होती है जो साधक को उसके लक्ष्य की ओर ले जाती है। स्फोटक शब्दों के सार्थक और निरर्थक क्रम को जल्प एवं वर्णमाला के अक्षरों के उच्चारण को एकाक्षरी मंत्र कहा गया है। वर्णो के संयोजन से निर्मित बीजमंत्र प्राणी को ही नहीं अपितु ईश्वर को भी अपने अधीन बना लेते है-मंत्राधीनास्तु देवताः। अतएव मंत्रों से उत्पन्न शक्तिपुंज बीजों में साररूप से अवतरित होता है और साधक को उत्तरोत्तर शक्तिवैशिष्ट्य से फलप्रदायक बनता है। गुरू का अपने शिष्य को मंत्र देना कन्यादान जैसा ही है। शास्त्रों ने मंत्र का और मंत्रग्रहिता का कुलाकुल निश्चत किया है जिसमें पृथ्वी तत्व से जल तत्व तक के ’अ’ से ज्ञ तक के पचास अक्षरों को वर्गीकृत किया है।

मंत्र साधना के लिये साधक को अपने नाम की जन्मराशि या प्रचलित नाम से राशि चक्र के कोष्ठक में आने वाली पहली, पाॅचवी और नवीं राशि के अक्षर से शुरू होने वाले मंत्र मित्रवत व हितकर माने है वही दूसरी,छठी और दसवी राशि के अक्षर से शुरू होने वाले मंत्र उसे सिद्धि देने वाले एवं तीसरी और सातवी और ग्यारहवी राशि के अक्षरों से शुरू होने वाले मंत्र पुष्टिकर, चैथी, आठवी, बारहवी राशि के अक्षर से शुरू होने वाले मंत्र घातक कहे गये है। धारणा है कि इन कोष्टकों को लग्न, धन, भाई, बंधु, पुत्र, शत्रु, स्त्री, मृत्य, धर्म, कर्म, आय और व्यय के प्रतीक होने से मंत्रों की साधना का फलादेश निश्चित किया गया है। ऐसे ही नक्षत्र चक्र की गणना का विधान को विस्तारित किया गया हैं, जिसे इस प्रकार देखा जा सकता है।

मंत्र और उनके वर्ण ( जाति) को लेकर धारणा-
सतयुग, द्वापर और त्रेता युग में यह व्यवस्था देखने को मिलती है कि ब्राम्हण के न होने पर अपने सजातीय अथवा उच्च वर्ग से मंत्र ग्रहण किया जा सकता था अर्थात क्षत्रिय क्षत्रिय से वैश्य क्षत्रिय और वैश्य से और शूद्र वैश्य से दीक्षा ले सकता था और इसी प्रचलित वर्ण व्यवस्था के अनुसार मंत्रों को ब्राम्ॅहण मंत्र, क्षत्रिय मंत्र, वैश्य मंत्र और शूद्र मंत्र ये चार प्रकार के मंत्र चारों वर्णो में दीक्षा और उपासना योग्य माने गये। मंत्रों का यह वर्गीकरण उनके अंत में जोड़े जाने वाले बीज मंत्रों के आधार पर किये गये जिसमें जिस मंत्र में चार बीजाक्षर के लिये ब्राम्हण, तीन बीजाक्षर वाले मंत्रों के लिये क्षत्रिय , द्विबीजाक्षर वाले मंत्र के लिये वैश्य तथा एक बीजाक्षर वाले मंत्र के लिये शूद्र उपयुक्त रहता है।
मंत्रों का वर्गीकरण स्त्री, पुरूष तथा नपुसंक रूप में किया गया जिस मंत्र के अंत में ’’हुफट्’ का उपयोग होता है वह पुरूष मंत्र जिसमें ’’स्वाहा’’ अन्त में हो वह स्त्री और ’’नमः’’ अन्त वाला नपुसंक मंत्र की श्रेणी में रखा गया। कुलाकुल चक्र से मिलान करने के लिये अकार से क्ष तक के पचास वर्ण पृथ्वी, जल आदि तत्वों के साथ वर्गीकरण करके लिये गये है और मंत्र ग्रहण करने वाले व्यक्ति के नाम का पहला अक्षर और मंत्र का पहला अक्षर मिलान किया जाता है जिसमें यदि दोनों अक्षर एक ही कोष्ठक के हो तो वे मंत्र स्वकुल की श्रेणी में आते है अन्यथा अकुल के होते है।
यदि मंत्र और उपासक का कुल या देवता न मिले तो मित्रकुल का मंत्र ले लेना चाहिये। स्वकुल का मंत्र नहीं मिलने पर जल देवता अथवा वरूण कुल के साथ पृथ्वी तत्व अथवा भू दैवत की मित्रता होती है अतः उपासक को चाहिये कि वह पृथ्वी तत्व के कोष्ठक वाले अक्षरों के नाम वााला होने पर मंत्र का प्रथमाक्षर जल तत्व वाले कोष्ठक के अक्षरों में से प्राप्त करें जो मित्रकुल का होगा। मंत्र के और साधक के शत्रुवर्ग की स्थिति में उपासना से बचना चाहिये। वायु तत्व के अक्षर अगर किसी मंत्र या साधक के प्रथमाक्षर हो तो उसे पृथ्वी तत्व से आरम्भ होने वाले अक्षरों का मंत्र ग्रहण नहीं करना चाहिये, यही स्थिति अग्नि या तैजस और जल तत्व से शुरू होने वाले अक्षरों में शत्रुता होने से इन अक्षरों के मंत्र नहीं ग्रहण करना चाहिये।

मंत्र ग्रहण करने में मास,दिवस एवं तिथि का फलादेश विचार-
वर्ष 1973 में प्रकाशित तंत्र विज्ञान के लेखक गोविन्द शास्त्री ने फलादेशें का वर्णन करते लिखा है कि मंत्र ग्रहण का समय चयन करने के लिये महिनों का विशेष महत्व है और चैत्र माह में मंत्र ग्रहण करने से सर्व सिद्धि, वैेशाख में धन लाभ, ज्येष्ठ में मरण, आषाढ में स्वजन हानि, श्रावण में दीर्घायु, भादों में संतान नाश, आश्विन में रत्नलाभ, कार्तिक और मार्गशीर्ष में मंत्रसिद्धि, पोष में शत्रुवृद्धि और पीड़ा, माघ में बुद्धि का विकास और फाल्गुन में सर्व मनोरथ सिद्धि होती है तथा मल मास में कोई मंत्र नहीं लेना चाहिये । अपवाद के रूप में शास्त्रों में व्यवस्था दी गयी है कि चैत्र मास में केवल गोपाल मंत्र लेना ही श्रेयस्कर रहता है, आषाढ मास में भी विद्या का मंत्र ग्रहण करना ही अनुचित है शेष मंत्र नहीं।
सप्ताह के किस दिन मंत्र ग्रहण करने से क्या फलादेश है, उसे ऐसे देखा जा सकता है कि दिन रविवार को मंत्र लेने से धनलाभ, सोमवार को शांति, मंगलवार को आयुक्षय, बुधवार को श्रीबृद्धि, गुरूवार को ज्ञान लाभ, शुक्रवार को सौभाग्य हानि एवं शनिवार को अपकीर्ति मिलती है। इसी प्रकार तिथियों के प्रतिफल को लेकर कहा गया है कि प्रतिपदा में मंत्र लेने से ज्ञान नाश का दोष, दूज में ज्ञानवृद्धि, तीज में शीलवृद्धि, चतुर्थी में धन हानि, पंचमी में वृद्धि विकास, षष्ठी में सुख प्राप्ति, अष्टमी में बुद्धि विनाश, नवमी में स्वास्थ्य हानि, दशमी में राज्य व सम्मान लाभ, एकादशी में पवित्रता लाभ, द्वादशी में सर्वार्थसिद्धि, त्रयोदशी में दरिद्रता, चर्तुदशी में पक्षी योनि में जन्म, अमावश में कार्य हानि और पूर्णिमा में धर्मवृद्धि होती हैं। शुक्ल पक्ष में मंत्र लेना शुभ होता है तथा कृष्ण पक्ष की पंचमी तक मंत्र लेना शुभफलदायी होता है तथा जो साधक सम्पत्ति एवं भौतिक सिद्धि प्राप्त करने को आतुर हो उसे शुक्ल पक्ष में तथा मुक्ति चाहने वाले को कृष्ण पक्ष में मंत्र ग्रहण करना उचित माना है।

साधक की राशि चक्र और नक्षत्र चक्र के फलादेश-
आप सभी ने अपना-अपना राशिचक्र अवश्य देखा होगा जिसके कोष्टकों में मेष से लेकर मीन तक सभी राशि और उन राशियों के नाम से शुरू होने वाले अक्षरों पर विचार किया गया है। इसलिये साधना करने वाले व्यक्ति को अपने जन्मराशि का नाम नाम ज्ञात न हो तो प्रचलित नाम से राशि का ज्ञान कर ले और अपनी जन्म राशि से पहली, पाॅचवी और नवी राशि पर स्थित मंत्र ग्रहण करें जो मित्रवत हित का रहता है, दूसरी, छटी, दशवी राशि स्थित मंत्र सिद्धिदाता, तीसरी, सातवी और ग्यारहवी राशि स्थित मंत्र पुष्टिकर, चैथी, आठवी, बारहवी राशि का मंत्र घातक होता हैं। इन बारह कोष्ठकों को लग्न, धन, भाई, बन्धु, पुत्र, शत्रु, स्त्री, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय और व्यय के प्रतीक है इसलिये जिस कोष्ठक में जो स्थान माना गया है, उस मंत्र के जपने से वहीं सिद्ध प्राप्त होती है।
इसी प्रकार की व्यवस्था नक्षत्र चक्र में है और इसकी गणना दो प्रकार से की गयी है जिसके तहत मंत्र ग्रहण करने वाले व्यक्ति का जन्म नक्षत्र और उस मंत्र के प्रथमाक्षर वाले कोष्ठकों का गण मिलता है तो वह अति श्रेष्ठ माना गया है। अश्विनी नक्षत्र में मंत्र ग्रहण करना शुभ माना है, भरणी नक्षत्र में मरण, कृतिका में दुख, रोहिणी में ज्ञानलाभ, मृगशिरा में सुख, आद्रा में बन्धुनाश, पुनर्वसु में धनलाभ, पुष्य में शत्रुनाश, अश्लेषा में मृत्यु, मधा में दुखनाश, पु. फाल्गुनी में श्रीवृद्धि, उ. फाल्गुनी में ज्ञान, हस्त में धन लाभ, चित्रा में ज्ञान लाभ, स्वाति में शत्रुनाश, विशाखा में दुख, अनुराधा में बन्धुलाभ, ज्येष्ठा में पुत्र हानि, मूल में यशलाभ, श्रवण में दुख, धनिष्ठा में दरिद्रता, शतभिषा में बुद्धिलाभ, पू.भाद्रपद में सुख और रवती नक्षम में मंत्र गहण करने से कीर्ति के साथ लाभ की प्राप्ति होती है। आद्रा और कृतिका नक्षत्र में शिव और सूर्य मंत्र की तथा ज्येष्ठा और भरणी में राम मंत्र को लेने से विशेष फल मिलता है। देवगण वाला देवगण वर्ग का मंत्र लेता हो तो असाध्य सिद्धि मिलती है तथा राक्षण गणवाला राक्षस गण का मंत्र ले तो भी देवगण वाला मनुष्य गण के मंत्र को ग्रहण कर सकता है किन्तु साधक और मंत्र के गण मानुष और राक्षस हो तो विनाश तथा देव और राक्षस गण हो तो शत्रुता होती है। मंत्र और नक्षत्र मिलाने का विधि में साधक अथवा मंत्र के नक्षत्र से मंत्र अथवा साधक के नक्षत्र तक की गणना करें, नौ के बाद फिर एक से करें, ऐसा करने पर तीसरे, पाॅचवे और सातवे नक्षत्र पर आवे तो उसका परित्याग कर दे। दूसरे, चैथे, छठे, आॅठवे और नवे नक्षत्र स्थित मंत्र शुभाशुभ फलदायी होते है।

मंत्र, योग, करण और अपवाद-
शिव ब्रम्हा और इन्द्र की प्रधानता मंत्रों में 16 योग के नाम से प्राप्त होती है जो क्रंमशः सौभाग्य, धृति, वृद्धि, प्रीति, आयुष्मान, वरीयान, हर्षण, ध्रुव, सुकर्मा साध्य, शुक्र, शिव, ब्रम्हा और इन्द ये योग मंत्र ग्रहण करने को शुभ एवं सिद्धिदाता एवं सर्वश्रेष्ठ कहा है वहीं करण का विवेचन करते हुये मंत्र ग्रहण करने हेतु शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष की पंचमी तक मंत्र लेना शुभफलदायी होना कहा है। जो साधक सम्पत्ति एवं भौतिक सिद्धि प्राप्त करने वाले है उन्हें शुक्ल पक्ष में मुक्ति की चाह रखने वाले कृष्ण पक्ष में मंत्र ग्रहण कर अपनी अभीप्सा पूर्ण कर सकते हैं रत्नावली तंत्र में इसका अपपाद दिखाई देता है जहाॅ निषिद्ध मास में भी विशिष्ट तिथियों में मंत्र ग्रहण करने की व्यवस्था का उल्लेख किया है कि भाद्रपद मास की दोनों पक्ष की षष्ठी, आश्विन की कृष्ण चतुर्दशी, कार्तिक की शुक्ल नवमी, चैत की काम चतुर्दशी, वैशाख की अक्ष तृतीया, ज्येष्ठ मास की दशमी, आषाण की शुक्ल पंचमी, श्रावण की कृष्ण पंचमी में अनुकूल नक्षत्र होने पर मंत्र देने में दोष नहीं बताया है। चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वैशाख शुक्ल एकादशी, ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, आषाढ की नागपंचमी, श्रावण की एकादशी, भाद्रपद की जन्माष्टमी, आश्विन कृष्ण अष्टमी, कार्तिक शुक्ल नवमी, मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठ, पौष की चतुर्दशी, माघ शुक्ल एकादशी, फाल्गुन शुक्ल षष्ठी में मंत्र ग्रहण करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है वही संक्राति के समय चन्द्र, सूर्य ग्रहण के समय और युगादया तथा मन्वन्तरा तिथि ये सभी स्वभावतया पवित्र होने से मंत्र ग्रहण करने हेतु अत्यन्त शुभ है। सोमवती अमावस्या, मंगलवार के दिन की चतुर्दशी और रविवार के दिन सप्तमी तिथि होने पर मंत्र ग्रहण करने में विशेष फलदायी कहा है, जिसमें नक्षत्रादि की गणना नहीं की जाती हैं।

रूद्रयामल तंत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि गंगातट, कुरूक्षेत्र, प्रयागराज,काशी, नर्मदा तट,यमुना तट आदि पवित्र तीर्थस्थल पर किसी तिथि नक्षत्र आदि का विचार मंत्र ग्रहण करने हेतु नहीं किया जाता है। यहाॅ तक की गौशाला, गुरू का घर, देवमंदिर, जंगल, बगीचा, तीर्थक्षेत्र, इमली के पेड के निकट, पहाड की चोटी, पर्वत की गुफा आदि सभी मंत्र ग्रहण करने हेतु सर्वश्रेष्ठ स्थान है जहाॅ ग्रहण किये मंत्र सफलता की कुंजी होते है वहीं गया, सूर्यक्षेत्र, विरजातीर्थ, चन्द्र पर्वत, चट्टग्राम, मातंग देश और अपनी पुत्री के घर मंत्र ग्रहण करना निषेधित किया गया है जो सभी ओर निराशा एवं असफलता देते है। इसके अतिरिक्त शास्त्रों में निर्देशित किया गया है कि गुरू किसी भी साधक को किसी भी तिथि, वार, नक्षत्र, स्थान आदि का विचार किये बिना मंत्र दे सकता है, क्योंकि इसमें गुरू साधक के हित को सर्वाधिक स्थान देकर मंत्र दीक्षा में अशुभ समय की भूल नहीं कर सकता। आपातकालीन स्थिति में गुरू मंत्रोपदेश करें तो शिष्य का धर्म है कि वह बिना विचार किये श्रद्धापूर्वक मंत्र ग्रहण करें , गुरू द्वारा दिया मंत्र सिद्ध होता है और उसकी तपस्या के कारण सभी ग्रह नक्षत्रादि अनुकूल होते है।

भारतीय लिपियों का तांत्रिक आधार के लेखक डाक्टर भानुशंकर मेहता के अनुसार मातृका के अक्षर को अक्षरमात्र नहीं मानना चाहिये बल्कि हर मातृका अक्षर देवतामूर्ति है जिसका अपना वेश है, श्रृंगार है। एक बार इस तत्व को समझ लेने पर भिन्न भिन्न लिपियों में रूपभेद की बात समझी जा सकती है। एक ही व्यक्ति की मूर्ति भिन्न भिन्न कलाकार ,भिन्न-भिन्न रूप से बनाते है, क्योंकि उनमें दृष्टिभेद होता है। किसी की दृष्टि अग्र भाग पर होती है, किसी की पृष्ठ भाग पर, कोई दाये से तो कोई बाये से, इस तरह हरेक दृष्टि से देखा जाने से उसके स्वरूप का पृथक-पृथक वर्णन मिलता है, ऐसा ही साधक देवता-देवियों का पृथक-पृथक श्रृंगार करते है, जिनके उतने ही भेद और दृष्टियाॅ होती है।

तंत्रशास्त्र में मंत्र-विशिष्ट प्रभावक शब्दों से निर्मित वाक्य मंत्र होता है जो बार-बार जाप करने पर इन शब्दों के परस्पर संघर्षण से उत्पन्न विद्युत्त तरंगों से साधक को इच्छित भावों की शक्ति प्राप्त होने लगती है। मंत्रों के विषय में कहा गया है कि उनका जाप एक निश्चित सॅख्या में तब फलित होने लगता है जब मंत्रों के शब्द, अंक तथा विभिन्न प्रकार के फल-फूल, विभिन्न आसन, दिशायें, क्रियायें निर्धारित नियमों के तहत की जाये तब मंत्र के साधक को चमत्कारिक परिणामों की अनुभूति होने लगती है। सूक्ष्म प्रकृति और प्रवृत्ति की गति के अनुसार नाममय शब्द तथा भावमय रूप के अवलम्बन से जो योग साधन किया जाता है वह मंत्रयोग कहलाता है।
मंत्रमहोदधि एवं ’’शारदातिलक’’ तंत्र में मंत्रों के स्वरूप का विवेचन तीन जातियों एवं चार मुख्य प्रकार का दर्शाया है – पुंरस्त्रीनपुंसकात्मनो मंन्त्राः सर्वे समीरिताः। मन्त्राः पुंदेवता ज्ञेया विद्या स्त्री देवता समृता।। अर्थात मंत्र स्त्री, पुरूष एवं नपुसक तीन जातियों के होते है। मंत्र पुरूष देवतात्मक होते है एवं महाविद्या, श्रीविद्या आदि विद्याओं के मंत्र स्त्री देवतात्मक कहे गये है। एक अक्षर वाले मंत्र को ’’पिण्ड’’ दो अक्षर को ’’कर्तरी’’ तीन अक्षर से नौ अक्षर तक के मंत्रों को ’’बीज’’ मंत्र की संज्ञा दी गयी है तथा दस अक्षर से बीच अक्षर तक का मंत्र नाम होता है और बीस अक्षर से अधिक सॅख्या वाले मंत्रों को ’’माला’’ मंत्र कहा गया है। साधक के नाम के साथ इन मंत्रों के मित्र, शत्रु, साध्य, सिद्ध, सुसिद्ध आदि सम्बन्ध होते है इसलिये साधक को मेलापक प्रक्रिया से विचार करके मंत्र ग्रहण करने से ही अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है। कामना-परक मंत्रों का अविचारित रूप से अनुष्ठान करना साधक के लिये नुकसानदायक हो सकता हैं। मंत्रसिद्धि के तीन प्रकार के लक्षण बताये है-उत्तम, मध्यम और अधम। साधना के लिये पन्चाग पुरश्चरण आवश्यक है। मनुष्य सर्वशक्तिमान से अपनी आत्मा केे सम्बन्ध स्थापित करने के लिये योग का मार्ग चुन सकता है जिसमें मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग प्रमुख है। मंत्रयोग स्थूल, हठयोग सूक्ष्म, लययोग सूक्ष्मतर और राजयोग सूक्ष्मतम है अर्थात सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, इन चारों का संक्षिप्त स्वरूप -शब्द (मंत्र एवं अर्थ) तथा मूर्ति इन दोनों के अवलम्बन से जो योग साधा जाता है वह मंत्रयोग कहलाता हैं जिन क्रियाओं से चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है वह ’’हठयोग’ है। पुरूष (आत्मा) में प्रकृति (माया) का लय ’’लययोग’’ है जो अन्तःकरण के द्वारा साधना’’राजयोग’’ होता है।
गुरू द्वारा मंत्र दान एवं साधना विधि-
शास्त्रीय व्यवस्था में गुरू जिस दिन मंत्र देते है उससे एक दिन पूर्व शिष्य को अपने पास बुलाकर उसका चित्त निर्मल कर मंत्रदान करते है जो भगवान सदाशिव शूलपाणि को समर्पित होने से साधक के अनुकूल होता है और गुरूकृपा से सिद्धिदायक होता है। तंत्र आगम शास्त्र में गुरू से विधिवत मंत्रदीक्षा प्राप्त करने के पश्चात उनसे प्राप्त मंत्र को अपने इष्टदेव का स्वरूप ही मानकर साधना की शुरूआत की जाती है।’’मंत्रा वर्णात्मकाः सर्वे वर्णाः शिवात्मकाः।’’ साधना करने से पूर्व साधक को चाहिये कि वह अपने गुरू के प्रति पूर्ण श्रद्धा की भावना रखते हुये उनके चरणों में बैठकर उनके मुखारविन्द से निकले मंत्र को अपने हृदय में धारण कर उसे जाप द्वारा सिद्ध करें ।
ज्ञानी गुरू की खोज परोक्षज्ञानी ही नहीं अपितु अनुभवी तत्व ज्ञानी को भी होती है स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे ही ज्ञानी गुरू की शरण में जाने का आदेश गीता में दिया है-यथा, तद्धिद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।। ज्ञानी गुरू योगी तो होना ही चाहिये, क्योंकि बिना योग संसिद्धि के ज्ञान ही नहीं होता, वे आगे स्वयं कहते है-’’तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।। परन्तु योग से भोग और भोग से रोग भी होते हैं, इसलिये यदि गुरू में योग के साथ-साथ भोग भी हो तो हर्ष की बात है, क्योंकि योगी के पास भोगों की समृद्धि उसकी सिद्धियों का परिचय देती है परन्तु भोगों के साथ रोगी गुरू की सेवा में आ जाये तो रोगों के निवारणार्थ गुरू घबराकर साधारण डाक्टरों का आश्रय तलाशता रहे तो उसके योग का महत्व ही क्या? ज्ञानी गुरू भोगासक्त और रोगासक्त को अपने योगबल से परास्त कर देता है अगर ऐसा होता नहीं दिखे तो गुरू की योगशक्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता हैं और शिष्य की श्रद्धा गुरू के प्रति भंग होने के साथ साधना के दुष्परिणाम में शिष्य को घोरक्षति उठानी पड़ सकती है।दीक्षित होना और मंत्र देना दोनों ही बड़े पुण्य के कार्य है रूद्रयामल तंत्र में लिखा गया है कि जो द्विजातियों को मंत्रोपदेश करता है वह सब पापों से मुक्त होकर पुण्य का फल प्राप्त करता हैं । यहाॅ साधना के तीन स्वरूप बताये गये है- नित्यकर्म, नैमित्त्किकर्म और काम्यकर्म।
नित्यकर्म –
प्रातःस्मरण, शौच दन्तधावन, स्नान, संध्या, पूजा स्त्रोतपाठ आदि शास्त्रसम्मत विधान से अथवा गुरू के मार्गदर्शन में करें तथा तथा प्रातःकाल से शयनपर्यन्त सभी नित्य चर्याओं को नियमानुसार सम्पन्न करें। नित्यकर्म आदि सम्पन्न करने में आलस्य या अन्य कारणोे से न कर पाने पर इस गल्ती पर प्रायश्चित करें।
नैमित्तिककर्म-
विशेष पर्वाें में नैमित्तिक कर्म करने का विधान परशुराम कल्पसूत्र में मिलता है जिसमे पाॅच मुख्य पर्व बतलाये गये है। रात्रिव्यापिनी, कृष्णाष्टमी,कृष्णचतुर्दशी, अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति इन पर्वो पर व्रत रखकर रात्रि में विशेष पूजा सामग्री से अर्चन का विधान है एवं गुरू का जन्मदिन, व्याप्तिदिन, स्वविद्याग्रहण दिन, पुष्पार्क, नवरात्र आदि पर्वो पर अपनी शक्ति के अुनसार व्रतपूर्वक यथाविधि विशेष उत्सव का आयोजन करने का विधान है, जो इसे कर्ता है वह साधक नैमित्तिक कर्म करके अपनी मनोकामना पूर्ण करता है।
काम्यकर्म-
सांसारिक व्यक्ति जब भी किसी विशेष कामना पूर्ति के लिये या पृथक पृथक कामनाओं अथवा वस्तु प्राप्ति के लिये मंत्रजाप के पश्चात होम करता है, वह काम्यकर्म कहीं गयी है, किन्तु शास्त्रों में काम्यकर्म करने का निषेध है और शुभ या अशुभ अभिचारादि काम्यकर्म में जिस मंत्र से कार्य सिद्धि होती है वही मंत्र शत्रु भावापन्न हो जाता है- शंुभ वाप्यशुभं वापि काम्यं कर्म करोचित यः। तस्यारित्वं ब्रजेन्मत्रस्तस्मान्न तत्परो भवेत।। कोई बहुत ही आवश्यक हो तो कदापि इसे करने का विधान है, तदापि काम्यकर्म से बचना ज्यादा ठीक है।
मंत्र के अन्य तत्व एवं न्यास-
ऋषि- जगत में जिस साधक ने पहली बार शिवजी के मुख से मंत्र सुनकर विधिपूर्वक उन्हें सिद्ध किया , वह उस मंत्र के ऋषि कहलाये, साधक को उस ऋषि को उस मंत्र का गुरूमानकर श्रद्धापूर्वक उनका मस्तक में न्यास करना होता है।ं देवता- इस ब्रम्हाण्ड में जीव मात्र के समस्त क्रिया क्लापों को प्रेरित, संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणशक्ति को ’’देवता’’ कहलाई, तभी साधक इस शक्ति को अपने हृदय में स्थित होने से हृदय में देवता का न्यास करता है। छन्द- ’’मत्र’’ को सर्वतोभावने अच्छादित करने की विधि को ’’छन्द’’ कहा गया है। अक्षर या पदों से छन्द बनता है जिसका उच्चारण मुख से होता है, अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता हैं। बीज- मंत्र शक्ति को उदभावित करने वाला तत्व ’’बीज’’ कहलाता है। अतः बीज का गुप्तांग/सृजनांक में न्यास किया जाता है। शक्ति-जिसकी सहायता से बीज मंत्र बन जाता है वह तत्व शक्ति कहलाता है ,उसके पादस्थान में न्यास करता है।
विनियोग-
ऋषि एवं छन्द का ज्ञान न होने पर मत्र का फल नहीं मिलता तथा उसका विनियोग न करके मात्र जप करने से मंत्र दुर्बल हो जाता हं मंत्र का फल की दिशा का निपर्देश देना ’’विनियोग’’ कहलाता हैं गोतमीय तंत्र के अनुसार तांत्रिक परम्परा में ऋषि आदि की जानकारी के साथ-साथ उसका यथार्थ विनियोग करना आवश्यक माना गया हैं विनियोग में ऋषि, छन्द,देवता, बीज एवं शक्ति के अलावा एक और भी तत्व होता है जिसे कीलक कहते है मंत्र को धारण करने वाला या मंत्र शक्ति को संतुलित रखने वाला तत्व ’’कीलक’’ कहलाता है इसका सर्वांग न्यास किया जाता है। न्यास- बिना न्यास के मंत्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। एक एक अक्षर का पादादि अंगों से न्याय करने की व्यवस्था है। अंगन्यास- कुलार्णव तंत्र के अनुसार जो व्यक्ति न्यासरूपी कवच से आच्छादित होकर मंत्र का जप करता है, उसकी साधना में विध्यन बाधायें स्वयं दूर हो जाती है तथा उसे निश्चित सिद्धि प्राप्त होती है। जो साधक अज्ञान या प्रमादवश न्यास नहीं करता उसे पग पग पर विध्नों का सामना करना पड़ता है। हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र एवं करतल इन अंगों में मंत्र का न्यास करना अंगन्यास कहा गया हैं
निष्काम उपासना-
अपने इष्टदेव के समक्ष निष्काम भक्तिभाव से समर्पित होकर शरणागत होने को निष्काम भाव कहा गया है जिसमें साधक अपने ईष्ट-देव के समीप रहते हुये, उनकी सेवा करना पाद्य, अध्र्य, स्नान, धूप, दीप, नैवेत्र आदि पन्चोपचार या षोडशेपचार कायिक पूजा, स्त्रोतपाठ वाचिक पूजा सहित मानसिक पूजा में ध्यान जपादि से अर्चन करता है और निरन्तर प्रभु के चरणों में लीन रहते हुये मंत्र का जाप करता है वह बिना कामना के ही अपने सभी मनोरथ पा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे उपासकों के लिये श्रीमदभागवत गीता में कहा है- नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भया।। 2-40।। अर्थात-कर्म का सर्वोच्च दिव्य गुण है ईष्टदेव के चरणकमलों में पूर्ण सर्मपण भाव से कर्म करना या इन्द्रियतृप्ति की आशा न करके उनके चरणों में अनुराग रखना, ऐसे कर्म का लघु आरम्भ होने से भी बाधा नहीं आती है और न कभी इस आरम्भ का विनाश होता है। ऐसी पूजा या अनुष्ठान करने वाले को कोई हानि नहीं होती है , चाहे उसका कर्म अधूरा ही क्यों न रह जाये। ऐसे निष्काम कर्म का स्वल्परूप आचरण करने से महाभय से परित्राण होता है और मंत्र चैतन्य के लिये पुरश्चरणादि अनुष्ठान के बाद मंत्र-सिद्धि हो जोने पर ऐहिक और पारलौकिक कार्य स्वयं सिद्ध होते है जबकि भौतिक स्तर पर प्रारम्भ किये जाने वाले किसी भी कार्य को पूरा करना होता है, अन्यथा सारा प्रयास निष्फल हो जाता है।
गुरू को यह बात सदैव स्मरण रखकर अपने शिष्यों का विश्वास अर्जित करना चाहिये कि वे जिस श्रद्धा के साथ उनकी शरण आकर मंत्र विद्या की सफलता चाहते है विश्वास कायम रखे ताकि शिष्य की पूर्ण जिज्ञासा मंत्र दीक्षा, यज्ञ, अनुष्ठान कर्मकाण्ड में पूरी अविधानता धारण करने पर सिद्धि प्राप्त हो सके। कष्ट निवारण के लिये, सुख शान्ति की वृद्धि के लिये, आत्मकल्याण के लिये, सौभाग्यवृद्धि आदि के लिये इनकी उपादेयता को समझ साधक योगप्राण तत्व का संयम साधना का प्रकार अपनाते समय मायामोह से ग्रस्त दुर्बलता को मध्य न आने दे तभी उसे तीव्रतम फलदायी एवं सुगमता से सफलता मिलती है।

आत्‍माराम यादव पीव

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