मनु स्मृति और वर्ण व्यवस्था

-विनायक कुमार विनायक
जी हां!मनु स्मृति को पढ़ते हुए ऐसा लगता
कि तुम पिछड़े और कमजोर लघुमानवों के
भविष्य को अबभी मुट्ठी में बंद किए हुए
सत्तर वर्ष पूर्व राजेन्द्र-अम्बेडकर ने
भृगु-वशिष्ठ के उस संविधान को बदला
जो मानव पिता मनु नहीं,
बाबाभृगुकी कृति मनुस्मृति थी!

मनु नेपहले अध्याय में ही कहा है
ये भृगु इस संपूर्ण शास्त्र को तुम्हें सुनाएंगे
‘एतद्वोऽयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः।(मनु.1/59)
और बाबा भृगुने मनु के बहाने
अपने मन की बातें सुनाई!

‘उस महा तेजस्वीपरमात्मा ने
इस सृष्टि की रक्षा के लिए
मुख,बाहु,जंघा और चरणों से उत्पन्न वर्णोंके लिए
अलग-अलग कर्म बनाए’(मनु.1/87)

‘ब्राह्मण जन्म लेते ही पृथ्वी के
समस्त जीवों में श्रेष्ठ हो जाते
और इस जगत की समस्त सम्पत्ति
ब्राह्मणों की हो जाती’
‘ब्राह्मणो जाएमानोहिपृथिव्यामधि जायते।(मनु.1/99)
सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किंचित जगती गतम।‘(मनु.1/100)!

भृगु बाबा केशब्द शासन से
तुम महामानव/अतिमानव बने
हजारों वर्षों तक आरक्षित थे
भोजन, वस्त्र, आवास और सहवास की
मुफ्तखोर व्यवस्था थी!

लेकिन ये प्रजाजन विश;वैश्य और शूद्र
‘यो वैश्यः स्याद् बहुपशुर्हिनक्रतु रसोमपः/
कुटुम्बात्तस्य तद्र्जव्यमाहरेद्यज्ञसिद्धये’।(11/12मनु.)
आहरेत्रीणि वा द्वे वा कामं शूद्रस्य वेश्मनः।
न हि शूद्रस्य यज्ञेषु कश्चिदस्ति परिग्रहः।(मनु.11/13)

मनुस्मृति के शब्द विधान से
वैश्यजन केपशुधन को
तुम तबतक लुटते रहे जबतक
वे वैश्यत्व की सीमा रेखा को पारकर
शूद्रत्व को नहीं प्राप्तकर लेते थे!

धनहीन वैश्य शूद्र नहीं तो क्या?
यदि शूद्र होकर धनवानरहे
तो ब्राह्मण यज्ञ पूर्णाहुति के लिए
राजा को धार्मिक कहकर शूद्र के धन को
बलपूर्वकक्षत्रिय से हरण कराते थे!

जो क्षत्रिय राजा ऐसा नहीं करते
उन्हें तुम सहस्त्रार्जुनवंशी कहकर
इक्कीस बारसंहारते रहे थे
अपने पौत्र भार्गव परशुराम के हाथों!

वाह!लूट का विधान बनाने वालेभृगु
और उसे कार्यान्वित करने वाले
उनके पौत्रभार्गव परशुराम कीब्राह्मणी सेना
परशुराम ने ब्राह्मण वर्ण को एक जाति
और तीन वर्णों को एक वर्ण संकर
जातिसमूहशूद्र बना डाला!

क्यों न पूछ लें व्यास देव से
‘वर्धकी नापिता गोपः आशापः कुम्भकारकः
वणिक्किरात कायस्थ मालाकार कुटुम्बिन।
वेरटो मेद चांडाल दासश्वपच कोलकाः
एते अन्त्यजाःसमाख्यायाता ये चान्ये च गवाशनाः।
एषां संभाषणात्त्स्नानं दर्शनादर्क वीक्षणम्।‘
वाह!बनिए चले थे ब्राह्मण बनने,बन गए अन्त्यज!

क्या समझा बाबा भृगु का जमाना
जब चांदी चमकाते और द्विज कहलाते थे
‘ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पंचमः।(मनु.10/4)
‘ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ये तीनों वर्ण द्विज जाति हैं
चतुर्थ शूद्र एक जाति है,इसके सिवा पांचवां कुछ नहीं है!

भृगु बाबा के वर्षों बाद व्यास देव के युग में
द्विजत्व अधिकार की पुनरावृत्ति चाहते हो?
क्या ब्रह्मा जी समस्त कारु के
खजाने की जागीरतुम्हें लिख गए थे?
जो तुम इतने सारे वर्ष तक धन लुटा-लुटा के
द्विजत्व बचाने की बात सोच लेते?

बेवश बनिए!संविधान के ठेकेदारों ने
तुम्हें तब तक लूटा जब तक
तुमने शिखा बांधना नहीं छोड़ा!
जनेऊ बंधननहीं तोड़ा!
दासता की चादर नहीं ओढ़ी!

सुनो धनोष्मित बनिए!
बंदरबांट और लूटपाट के युग में
अर्थाधिकार और धनार्जन क्या संभव था?
जब धन ही नहीं फिर वैश्य का अस्तित्व कहां?

इतिहास के पन्नों में वैश्य की खाल ओढ़े
क्या शूद्र ही शूद्र यहां नहींथे!
जी हां ब्राह्मण और सत्ता के नीचे शासित
भारत जनसभी शूद्र थे!

वैश्य नहीं शूद्दर!
क्षत्रिय नहीं खत्री,सोढ़ी,कलचुरी,कलाल, कलवार!
भुइयां-खेतौरी-घटवारशुद्र नहीं तो क्या?
आज भी मिलतानहींइनको समर्थजन का आदर!

‘सुपच,किरात,कोल,कलवारा/वर्णाधम तेली,कुम्हारा’
यह तुलसी ने मानस मेंतब लिखा
जब भामाशाह ने वीर महाराणा प्रताप को
सर्वस्व न्योछावर किया था!

हाँवही शूद्र! जिनका तन-मन-धन
कुछ नहीं अपना था
जिनका मनुजत्वमात्र एक सपना था
जिनकी माता-भार्या-अनुजा-तनुजा
सर्वथा हरण योग्यस्वामी की थी भोग्या
उनकी आम गलती की खास सजा
मृत्युदंड-सूली का, फांसी का!

वह मुमुक्षु था, वह मुर्मुक्षु था
किंतु मरता, नहीं जीता था
जूठन खाकर!स्वत्व लुटाकर!
पशुता पाकर!पशुवत्!

द्विज और दासों में
एक नहीं, सौ-सौ विभेद था
शस्त्र ग्रहण और शास्त्र अध्ययन,
श्रवण-मनन और ज्ञानार्जन से वंचित
इन्हें खुद ही खुद पर खेद था!

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