मनुष्य जीवन का उद्देश्य

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य को मनुष्य मननशील होने के कारण से कहा जाता है। मनन का अर्थ है विचार करना है। विचार सत्य व असत्य, उचित व अनुचित, लाभ व हानि सहित करणीय व अकरणीय आदि का किया जाता है। मनुष्य विचार अपनी शरीरस्थ जीवात्मा द्वारा शरीर के करणों वा साधनों मन व बुद्धि आदि की सहायता से करता है। आत्मा शरीर से पृथक एक चेतन तत्व है। यह एक सूक्ष्म चेतन तत्व है तथा एकदेशी व अल्पज्ञ होने के साथ सनातन व शाश्वत् अर्थात् अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर व नित्य है। आत्मा में ज्ञान की प्राप्ति एवं कर्म करने की शक्ति वा गुण है। एकदेशी होने के कारण यह सीमित ज्ञान व सीमित कर्म ही कर सकता है। सर्वव्यापक ईश्वर का ज्ञान व शक्ति असीम है। इसी लिए उसे सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान कहा जाता है। आत्मा मनुष्य शरीर में रहकर ज्ञान प्राप्ति व सद्कर्म करे, यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य प्रतीत होता है। इसी की शिक्षा वेद व अन्य शास्त्रों में दी गई है। सद्ज्ञान व सद्कर्म क्या हैं? इसका उत्तर है कि वेदानुकूल आचरण ही सद्कर्म एवं वेद निषिद्ध कर्म ही मिथ्या आचरण कहलाते हैं जो कि वेदाज्ञानुसार त्याज्य हैं। अज्ञान व असद् कर्मों से जीवात्मा दुःखों में फंसता व बंधता है ओर शुभ ज्ञान व तदनुरूप कर्मों को करके वह बन्धनों वा दुःखों से मुक्त होकर सुख वा आनन्द की प्राप्ति करता है। अतः सद्ज्ञान की प्राप्ति सहित सद्कर्मों का आचरण ही मनुष्य के कर्तव्य हैं। इनके करने से ही जीवन उन्नत होता है। इसी को अभ्युदय व निःरेयस की प्राप्ति में साधक भी कहा जाता है।

 

मनुष्य जीवन का उद्देश्य संसारस्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति के स्वरूप को यथार्थतः जानना है। ईश्वर को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी है। भौतिक सुखों का त्यागपूर्वक उपभोग करना है। परसेवा, परोपकार, सत्पात्रों को दान, ब्रह्म ज्ञान वा वेदप्रचार, यज्ञ व अग्निहोत्र कर्मों को करना कर्तव्य है। दान के लिए सत्पात्रों का चयन अति कठिन व दुष्कर कार्य है। ऋषियों ने जो पंचमहायज्ञों का विधान किया है उसे जानकर सब मनुष्यों को श्रद्धापूर्वक करना है। यह सब करने के लिए वेदाध्ययन व विद्वानों की संगति आवश्यक है। यदि करेंगे तो मिथ्या आचरण से बच सकते हैं अन्यथा काम, क्रोध व लोभ आदि से ग्रस्त व त्रस्त हो सकते हैं। इन पर नियंत्रण पाने के लिए सन्ध्या व यज्ञ सहित सभी वैदिक विधानों को करना है। तभी हम सभी बुराईयों से बच सकते हैं। महर्षि दयानन्द व उनके बाद के प्रमुख आर्य विद्वान नेताओं के जीवनों का अनुकरण कर भी हम अपने जीवन को श्रेय मार्ग पर चला सकते हैं।

 

आईये, वेदाध्ययन सहित सत्यार्थप्रकाश आदि सभी ऋषि ग्रन्थों के अध्ययन व उनकी शिक्षा के अनुसार आचरण का व्रत लें। यही हमें मनुष्य जीवन के उद्देश्य से परिचित कराकर जीवन के उद्देश्य वा लक्ष्य तक पहुंचानें में सहायक होगा। ओ३म् शम्।

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