नेपाल के रूकुम जिले में माओवादियों ने एक महिला पत्रकार को बुरी तरह घायल कर दिया। बड़ी बेरहमी से माओवादी उस महिला पत्रकार के शरीर पर ब्लेड से चीरे लगाते रहे और वह महिला तड़पती रही, छटपटाती रही। माओवादी उस समय तक महिला पत्रकार को नोचते-खसोटते रहे जब तक वह लहुलुहान न हो गई। महिला के चिल्लाने पर स्थानीय लोगों की भीड जुटते देख माओवादी वहां से फरार हो गये। साम्यवाद में विचारों से असहमती अपराध माना जाता है और शायद यही कारण है कि उस महिला पत्रकार को माओवादी दरिंदों का शिकार होना पड़ा। माओवादियों के लाल किताब में न्याय की परिभाषा कुछ और ही है। ऐसे में माओवादी नेपाल में किस प्रकर का लोकतंत्र लाना चाहते हैं, उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। माओवादी महिला पत्रकार पर माओवाद के खिलाफ खबर छापने का आरोप लगा रहे हैं लेकिन जानकारों का मत है कि वह महिला, माओवादियों की वास्तविकता लोगों के सामने परोसती थी। वह किसी के खिलाफ नहीं, अपने उसूलों के लिए लिखा करती थी। जनता को यह बताना चाहती थी कि ये माओवादी किस प्रकार जनता के हित के खिलाफ जा रहे हैं? पहले से ही माओवादी उसे आंख पर चढा रखे थे। मौका मिलते महिला पत्रकार को घेर लिया तथा उसे निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। जब सफलता नहीं मिली तो महिला के शरीर पर चीरे लगाने लगे। महिला चिल्लाती रही, दर्द से तड़पती रही और माओवादी दरिंदें उसे ब्लेड से चीरते रहे। इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि जिस प्रकार जेहादी आतंकी अपने जेहाद के लिए और चरमपंथी ईसाई अपने पंथ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, उसी प्रकार चरम साम्यवादी अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले नेपाली माओवादियों ने काठमांडू में एक प्रतिष्ठित अखबार के दफ्तर पर हल्ला बोल दिया। नेपाल में इस प्रकार की घटना आजकल आम बात हो गई है। ऐसी परिस्थिति में नेपाल में लोकतंत्र की ताकत को कैसे बचाया जाये इस पर प्रश्न खड़ा हो गया है?
इस प्रकार की घटना साम्यवादी इतिहास की कोई नवीन घटना नहीं है। साम्यवाद भी अन्य सेमेटिक पंथों के तरह अपने से असहमति रखने वालों को मिटाने में विश्वास रखता है। इसके कई उदाहरण देश तथा देश के बाहर के हैं। उन दिनों दक्षिण बिहार के ग्रामीण इलाकों में माओवादी प्रभाव बढ़ गया था। गया जिले के शेरघाटी क्षेत्र में एक बूढ़े किसान को माओवादियों ने इतना मारा कि उसकी हालत खराब हो गई और उसे गया स्थित अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा। मामले की तहकीकात के दौरान पता चला कि घायल किसान भी पहले माओवादी संगठन से जुड़ा था लेकिन वृध्द होने के कारण वह अब माओवादी आपरेशन के लायक नहीं रहा। इसलिए माओवादियों ने उसे अपने साथ रखने से इन्कार कर दिया। फिर शेरघाटी क्षेत्र के लिए माओवादी कम्यूनिस्ट सेंटर ने नया एरिया कमांडर भी नियुक्त कर दिया था। इसी बीच उस वृध्द माओवादी ने एरिया कमांडर से हथियार और लेवी के पैसे का हिसाब मांगा। इससे नाराज तत्कालीन एरिया कमांडर ने जन अदालत लगा दी और उस बूढे किसान को उसमें बुलाया गया। जन अदालत के न्यायाधीश ने वृध्द को 50 कोड़े लगाकर छोड़ देने का आदेश सुना दिया। पूछने पर न्यायाधीश ने बताया कि तुम्हारे ऊपर संगठन के साथ छल तथा समझौतावादी होने का आरोप लगाया गया है। अभी भी समय है अपनी सोच में परिवर्तन कर लो अन्यथा हाथ-पैर भी काटने का आदेश दिए जा सकते हैं। उन दिनों खासकर दक्षिण बिहार में इस प्रकार की घटनाएं आम हो गई थीं। इस उदाहरण से चरमपंथी साम्यवाद को समझने में सहायता मिल सकती है। साम्यवादी यह मान कर चलते हैं कि वह अपने आप में पूर्ण है और दूसरा गलत। यही नहीं साम्यवादी अन्य सेमेटिक चिंतन की तरह संसाधनों के संपूर्ण उपभोग में विश्वास करते हैं। उनमें श्याद्वाद या अनेकांतवाद की परिकल्पना नहीं है।
अपने विरोधियों को बेरहमी से मारना और उसके खिलाफ अभियान चलाना उनके यहां अच्छा माना जाता है। अपने खिलाफ चिंतन रखने वालों को झट-पट वे वर्ग शत्रु या समझौतावादी घोषित कर उसकी हत्या का फतवा जारी कर देते हैं। अन्य साम्यवादी गुटों की तुलना में माओवादियों में यह मनोवृति और घनीभूत होती है। ये सभी बातें साम्यवाद के इतिहास के साथ जुड़ी हई हैं। रूसी क्रांति के बाद मेनसेविकों ने रूस की सत्ता संभाली। इस समय रूस में बोलसेविकों की संख्या कम थी और वे राजनीतिक दृष्टि से उतने प्रशिक्षित भी नहीं थे लेकिन यूरोपीय देश, खासकर फ्रांस की सहायता से लेनिन ने मेनसेविकों को सत्ता से बेदखल कर दिया। फिर देश में जार निकोलस तथा मेनसेविकों के समर्थकों की हत्या का अंतहीन सिलसिला प्रारंभ हुआ। पहले तो राजा के हितचिंतकों को मौत के घाट उतारा गया। फिर चुन-चुन कर मेनसेविकों की हत्या की जाने लगी। इस काम के लिए बोलसेविकों ने बाकायदा ‘चेका’ नामक संगठन की स्थापना की। कालांतर में उस संगठन में अपराधियों तथा असामाजिक तत्वों की भर्ती की गई। वही ‘चेका’ नामक संगठन आगे चलकर सोवियत यूनियन का केजीबी नामक जासूसी संगठन बना। साम्यवादी सम्राज्यवाद के विरोध के कारण रूसी क्रांति के महान नायक ट्राटस्की को देश छोड़ना पड़ा तथा अंत में उसकी हत्या कर दी गई। लेनिन के सहयोगी कैपकाया का भी वही हश्र हुआ। यहां तक की लेनिन की मौत पर भी रहस्य बना हुआ है। कुछ लोग लेनिन की मौत को सामान्य मृत्यु नहीं मनते। बंगाल में सरकार चला रहे मार्क्सवादियों के काले कारनामें जगजाहिर है। किस प्रकार वहां सत्ता और साम्यवादी गुंडों के हाथों समाचार जगत प्रताड़ित होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। ज्योति बसु पर टिप्पणी करने के कारण नृपेन्द्र चक्रवर्ती जैसे निष्ठावान साम्यवादी को जलील करके पार्टी से निकाल दिया गया।
नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद का. विनोद मिश्रा और का. विनयन शर्मा बिहार के भोजपुर में अपना अड्डा जमाया। कुछ समय तक तो दोनों साथ रहे लेकिन बाद मे अन्तर्विरोध उभरने लगा। विनयन शर्मा को भोजपुर छोड़ कर जहानाबाद जाना पडा। इस द्वंद्व के कारण कई चरमपंथी मौत के घाट उतार दिये गए। विनयन शर्मा ने पहले मजदूर किसान संग्राम समिति फिर पार्टी युनिटी की स्थापना की। विनयन यहां भी अपने रूढ़ सोच के कारण सफल नहीं हो सके और नगमा गांव के कुछ चरमपंथियों ने एक अलग ही संगठन बनाकर विनयन को चुनौती दे डाली। इस संघर्ष में भी कई चरमपंथी मारे गये। आज भी माओवादी संगठन में एक मत नहीं हैऔर समय-समय पर साम्यवादी चरमपंथी गुट बना-बना कर एक दूसरे को चुनौती देते रहते हैं। साम्यवाद का इतिहास दूसरे के मतों से असहमती का इतिहास है। अपने विरोधियों को ये बड़े बेरहमी से मौत के घाट उतारते हैं। ये अपने संगठन के लोगों को भी नहीं छोड़ते संगठन के नेता के खिलाफ जायज बात रखने वालों को भी नहीं छोड़ा जाता है। नेपाल में माओवाद के मजबूत होते ही जनतंत्र की ताकत कमजोर होने लगी है। माओवादी जनतंत्र के उस सभी उपादानों पर आक्रमण कर रहे हैं जिससे आम जन ताकत प्राप्त करता है। थोड़े माओवादी लड़ाके देश को चीन की ताकत के बदौलत गुलाम बनाने के फिराक में हैं। माओवादियों ने नेपाल की न्यायपालिका पर आक्रमण किया, चुनी गयी सरकार को परेशान किया, सैन्य हमला बोला, देश के संवैधनिक प्रधान राष्ट्रपति पर हल्ला बोला और अंत में बिना किसी बात के विश्व प्रसिध्द भगवान पशुपतिनाथ मंदिर में जाकर हुडदंग किया। अब माओवादी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को धमकाने में लगे हैं। माओवादियों के द्वारा महिला पत्रकार पर किया गया ताजा हमला एक बार फिर माओवादियों को बेनकाब कर दिया है। माओवाद के चरित्र और चेहरे से लाल पर्दा हटा दिया है और आज माओवाद का श्याह पक्ष दुनिया के सामने है। इसकी भरपूर भर्त्सना होनी चाहिए। समाचार माध्यमों को भी माओवाद पर नरम रूख रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अब यह गरीबी-अमीरी की खाई पाटने वाला संगठन नहीं रहा इसे किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए, क्योंकि सत्ता का स्वाद इसके मुख लग गया है, जो इसने भोग लिया है। इसलिए मीडिया को माओवाद की वास्तविक जानकारी जनता तक पहुंचानी चाहिए।
– गौतम चौधरी
यही कडवी सच्चाई है साम्यवाद की, बहुत खूब गौतम जी, ये कहने के और, और दिखने के कुछ और ही होते हैं.