मीडिया हकीकत दिखाए तो टीम अन्ना को बर्दाश्त नहीं

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तेजवानी गिरधर

अब तक तो माना जाता था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा की घोर प्रतिक्रियावादी संगठन हैं और उन्हें अपने प्रतिकूल कोई प्रतिक्रिया बर्दाश्त नहीं होती, मगर टीम अन्ना उनसे एक कदम आगे निकल गई प्रतीत होती है। मीडिया और खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर उसकी तारीफ की जाए अथवा उसकी गतिविधियों को पूरा कवरेज दिया जाए तो वह खुश रहती है और जैसे ही कवरेज में संयोगवश अथवा घटना के अनुरूप कवरेज में कमी हो अथवा कवरेज में उनके प्रतिकूल दृश्य उभर कर आए तो उसे कत्तई बर्दाश्त नहीं होता।

विभिन्न विवादों की वजह से दिन-ब-दिन घट रही लोकप्रियता के चलते जब इन दिनों दिल्ली में चल रहे टीम अन्ना के धरने व अनशन में भीड़ कम आई और उसे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिखाया तो अन्ना समर्थक बौखला गए। उन्हें तब मिर्ची और ज्यादा लगी, जब यह दिखाया गया कि बाबा रामदेव के आने पर भीड़ जुटी और उनके जाते ही भीड़ भी गायब हो गई। शनिवार को हालात ये थी कि जब खुद अन्ना संबोधित कर रहे थे तो मात्र तीस सौ लोग ही मौजूद थे। इतनी कम भीड़ को जब टीवी पर दिखाए जाने लगा तो अन्ना समर्थकों ने मीडिया वालों को कवरेज करने से रोकने की कोशिश तक की।

टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी तो इतनी बौखलाई कि उन्होंने यह आरोप लगाने में जरा भी देरी नहीं की कि यूपीए सरकार ने मीडिया को आंदोलन को अंडरप्ले करने को कहा है। उन्होंने कहा कि इसके लिए केंद्र सरकार ने बाकायदा चि_ी लिखी है। उसे आंदोलन से खतरा महसूस हो रहा है। ऐसा कह कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि टीम अन्ना आंदोलन धरातल पर कम, जबकि टीवी और सोशल मीडिया पर ही ज्यादा चल रहा है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि टीवी और सोशल मीडिया के सहारे ही आंदोलन को बड़ा करके दिखाया जा रहा है। इससे भी गंभीर बात ये कि जैसे ही खुद के विवादों व कमजोरियों के चलते आंदोलन का बुखार कम होने लगा तो उसके लिए आत्मविश्लेषण करने की बजाया पूरा दोष ही मीडिया पर जड़ दिया। ऐसा कह कर उन्होंने सरकार को घेरा या नहीं, पर मीडिया को गाली जरूर दे दी। उसी मीडिया को, जिसकी बदौलत आंदोलन शिखर पर पहुंचा। यह दीगर बात है कि खुद अपनी घटिया हरकतों के चलते आंदोलन की हवा निकलती जा रही है। ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि क्या वाकई मीडिया सरकार के कहने पर चलता है? यदि यह सही है तो क्या वजह थी कि अन्ना आंदोलन के पहले चरण में तमाम मीडिया अन्ना हजारे को दूसरा गांधी बताने को तुला था और सरकार की जम की बखिया उधेड़ रहा था? हकीकत तो ये है कि मीडिया पर तब ये आरोप तक लगने लगा था कि वह सुनियोजित तरीके से अन्ना आंदोलन को सौ गुणा बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है।

मीडिया ने जब अन्ना समर्थकों को उनका आइना दिखाया तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बौखलाते हुए मीडिया को जम कर गालियां दी गईं। एक कार्टून में कुत्तों की शक्ल में तमाम न्यूज चैनलों के लोगो लगा कर दर्शाया गया कि उनको कटोरों में सोनिया गांधी टुकड़े डाल रही है। मीडिया को इससे बड़ी कोई गाली नहीं हो सकती।

एक बानगी और देखिए। एक अन्ना समर्थक ने एक न्यूज पोर्टल पर इस तरह की प्रतिक्रिया दी है:-

क्या इसलिए हो प्रेस की आजादी? अरे ऐसी आजादी से तो प्रेस की आजादी पर प्रतिबन्ध ही सही होगा । ऐसी मीडिया से सडऩे की बू आने लगी है। सड़ चुकी है ये मीडिया। ये वही मीडिया थी, जब पिछली बार अन्ना के आन्दोलन को दिन-रात एक कर कवर किया था। आज ये वही मीडिया जिसे सांप सूंघ गया है। ये इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की कुछ लोग इस देश की भलाई के लिए अपना सब कुछ छोड़ कर लगे है, वही हमारी मीडिया पता नहीं क्यों सच्चाई को नजरंदाज कर रही है। इससे लोगों का भ्रम विश्वास में बदलने लगा है। कहीं हमारी मीडिया मैनेज तो नहीं हो गई है? अगर मीडिया आम लोगों से जुडी सच्चाई, इस देश की भलाई से जुड़ी खबरों को छापने के बजाय छुपाने लगे तो ऐसी मीडिया का कोई औचित्य नहीं। आज की मीडिया सिर्फ पैसे के ही बारे में ज्यादा सोचने लगी है। देश और देश के लोगों से इनका कोई लेना-देना नहीं। आज की मीडिया प्रायोजित समाचार को ज्यादा प्राथमिकता देने लगी है।

रविवार को जब छुट्टी के कारण भीड़ बढ़ी और उसे भी दिखाया तो एक महिला ने खुशी जाहिर करते हुए तमाम टीवी चैनलों से शिकायत की वह आंदोलन का लगातार लाइट प्रसारण क्यों नहीं करता? गनीमत है कि मीडिया ने संयम बरतते हुए दूसरे दिन भीड़ बढऩे पर उसे भी उल्लेखित किया। यदि वह भी प्रतिक्रिया में कवरेज दिखाना बंद कर देता तो आंदोलन का क्या हश्र होता, इसकी कल्पना की जा सकती है।

कुल मिला कर ऐसा प्रतीत होता है कि टीम अन्ना व उनके समर्थक घोर प्रतिक्रियावादी हैं। उन्हें अपनी बुराई सुनना कत्तई बर्दाश्त नहीं है। यदि यकीन न हो तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जरा टीम अन्ना की थोड़ी सी वास्तविक बुराई करके देखिए, पूरे दिन इसी काम के लिए लगे उनके समर्थक आपको फाड़ कर खा जाने तो उतारु हो जाएंगे।

वस्तुत: टीम अन्ना व उनके समर्थक हताश हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि जिस आंदोलन ने पूरे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था, आज उसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी कम क्यों हो रही है।

15 COMMENTS

  1. बढ़िया आलेख बधाई! हालाँकि अन्ना ,केजरीवाल और कुछ और एन जी ओ चलाने वालों को निठल्ले लोगों की भीड़ ने बौरा दिया था. ये लोग मिश्र,सीरिया,लीबिया और यमन की दिग्भ्रमित सत्ता की छीना झपटी को क्रांति समझ बैठे और भारत की जनता को भी उसी चश्में से देखने का शौक पाल बैठे ,एस एम् एस और जंतर-मंतर के चुनिन्दा फोटो शूट आउट पर क्षणिक जोश पर विशाल भारत की जनता को एकजुट नहीं किया जा सकता . भले ही भृष्टाचार और कदाचार अपनी सीमाओं को तोड़ डाले. देश को चलाना आसान काम नहीं.वेशक यूपीए सरकार पर कई आरोप हैं किन्तु यह सत्य है कि प्रधान मंत्री जी ने जान बूझकर कोई गलत काम नहीं किया सिवाय उन आर्थिक नीतियों को आगे बढाने के जिन पर चलकर अमीर और अमीर होते जाते हैं और गरीब और ज्यादा गरीब .इस लड़ाई को लड़ने के लिए राजनीतिक रूप से नीतिगत बदलाव की आवश्यकता है. इस बदरंग व्यवस्था का सृजन राजनीती से हुआ है और राजनीती ही इसे दुरुस्त करेगी. अन्ना एंड कम्पनी को शायद यह समझ आ गई होगी.नहीं आई तो इतिहास का कूड़ेदान उनका इंतज़ार कर रहा है.मेने अपने ब्लॉग-WWW . JANWADI .BLOGSPOT .कॉम और प्रवक्ता.कॉम पर अन्ना एंड कम्पनी के बारे में कई मर्तवा साफ़-साफ़ लिखा है कि ”ऐ इश्क नहीं आशान,इतना तो समझ लीजे ,इक आग का दरिया है और डूबके जाना है’

  2. आदरणीय तापस जी आपने सच कहा मुख्य बात भीड़ नहीं भ्रष्टाचार है।और एक बात-गलत कार्य करने के लिए के किसी शुभ दिन की जरुरत नहीं है,जबकि सही कार्य के लिए पञ्चाङ्ग देखना पड़ता है।भारत भ्रष्टाचार से जूझ रहा है,यह स्थिति सिर्फ और सिर्फ नेताओं की वजह से है (कुछ हदतक और हम लोगों की बजह से भी है)।फिर भी अन्ना जी उन्हीं से लोकपाल पास कराने की जिद में अड़ें है।कौन सा नेता भ्रष्ट नहीं,कौन सी पार्टी भ्रष्ट नहीं और कौन सी सरकार भ्रष्ट नहीं है?इतना ही नहीं यह भ्रष्टाचार कमोबेश हर मन में मौजूद है।जाहिर है इसे समाप्त करना नामुमकिन नहीं तो कठिन जरुर है।इसके जरुरी है सर्वप्रथम खुद के जीवन से भ्रष्टाचार को निकाला जाय।

  3. अनिल गुप्ता जी आप अभी भी आधी अधूरी बात पर बहस कर रहेहैं.पहले जन लोकपाल के ड्राफ्ट को पढ़िए.उसमें सबसे महत्त्व पूर्ण बात है सी.बी.आई को सरकार के मंत्रियों के पंजों से मुक्त होना.जाँच एगेंसी के रूप में सी.बी.आई. के असफलता का मुख्या कारण है,उस का गृह मंत्री और प्रधान मंत्री के प्रति उत्तरदायी होना.आप सी बी आई को जब तक स्वायतता नहीं देंगे या जबतक उसे जन लोकपाल जैसी संस्था के अधीन नहीं करेंगे,तब तक वह निष्पक्ष जांच कर ही नहीं सकती.
    अदालतों में भी सुधार की आवश्यकता है.जन लोकपाल बिल के प्रारूप में इसका भी प्रावधान किया गया है. आप सब लोग जानते हैं की न्याय में देर न न्याय करने के बराबर है.इस तरह अगर देखा जाए तो भारत में न्याय होता हीं नहीं.आखिर यह स्थिति कब तक चलेगी और कब तक भारत की जनता न्याय के लिए तड़पती रहेगी? सबसे बड़ी बात यह है की प्रजातंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए इस तरह का प्रावधान आवश्यक है..जब मुलायम सिंह कहते हैं कि जन लोकपाल आने से एक दारोगा भी उन्हें जेल भेज देगा तो वे अपनी असलियत बयान करते हैं.
    अंत में मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि जिसको भी भ्रष्टाचार का लाभ नहीं मिल रहा है,कम से कम वह तो अपनी अज्ञानता के कारण व्यवस्था परिवर्तन के लिए किये जाने वाले इस आन्दोलन के विरुद्ध न बोले.

  4. मीडिया का कम जो सही है उसे दिखाना है
    संघ से परहेज के कारन लोग घाट गए
    अन्ना को कोई भी जो ब्रस्ताचार विरोधी हो की मदद लेनी चाहिए अपने पूर्वाग्रहों को छोड़

  5. श्री आर सिंह जी, आपने जो कहा है वो हमारे अदालती सिस्टम के बारे में बिलकुल सही है. लेकिन जनलोकपाल कानून बनने पर भी सजा देने का काम तो अदालतें ही करेंगी या या काम भी जन अदालत बनाकर किया जायेगा? जन अदालतें लोकतान्त्रिक समाजों में प्रचलित नहीं हैं और केवल कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं में या तानाशाही में ही हो सकती हैं.ये तो ऐसे ही होगा की कहीं पर भी एक भीड़ इकट्ठी होकर किसी को भी अपराधी घोषित करदे और सजा सुना दे. लेकिन भारत मेरे विचार में सेंकडों साल पहले ही इस प्रकार की अराजक अदालतों से आगे बढ़ कर एक व्यवस्थित न्याय प्रणाली को अपना चूका है. डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर किये मुकदमों की जांच भी गृह मंत्री के निर्देशों से नहीं बल्कि अदालत, वो भी देश की सर्वोच्च अदालत, की निगरानी में हो रही है. और ये सब मौजूदा कानूनों से ही संभव हो गया है. जन लोकपाल का मुद्दा केवल एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है. लेकिन उसके अंतर्गत भी अदालतें तो यही रहेंगी या सीआर पी सी भी बदल जाएगी? क्या केस दर्ज होते ही काम निबट जायेगा? नहीं. जाँच होगी. मुक़दमा इन्ही अदालतों में चलेगा. मुकदमों में वर्षों लगेंगे. क्योंकि लगभग तीन करोड़ मुकदमों की पेंडेंसी के चलते त्वरित कारवाही तब तक संभव नहीं है जब तक अदालतों की संख्या कई सौ गुना न बधाई जाये. क्या ऐसा करना संभव है? क्या किसी को बचाव के लिए अपना वकील करने से वंचित कर सकते हैं?यदि नहीं, तो फिर जन लोकपाल से क्या फर्क पड़ेगा, सिवाय इसके की लोगों का इससे भी मोह भंग हो जायेगा. और समाज में निराशा की भावना और जयादा बलवती होगी.लोगों में सुन्दर, सुखद और न्यायसंगत भविष्य के लिए आशा जगाने की आवश्यकता है न की निराशा भरने की. कृपया गहराई से और गंभीरता से दूर तक सोचिये.स्वामी केद्वारा दायर मुकदमों में सुनवाई और गवाही चालू हो चुकी हैं और जल्दी ही मामला तार्किक अंजाम तक पहुँच जायेगा जबकि हम और आप जन लोकपाल पर आन्दोलन और भूख हड़ताल ही करते रहेने. तो सफल कौन कहलायेगा? स्वामी या जा लोकपाल पर आन्दोलनकारी?

  6. अनिल गुप्ता जी आपकी भावनाओं का कद्र करता हूँ,पर बुरा मत मानिए तो सुब्रमनियम स्वामी द्वारा दायर किये गए मुकदमें के नतीजों पर आपका विश्वास ये दर्शाता है कि आप इन दगाबाजों,तिकड़म बाजों ,हत्यारों और लूटेरों को,जिन्हें भारत में नेता कहा जाता है अच्छी तरह से समझे नहीं है.
    शिंदे आदर्श सोसईटी से जुड़े हैं.वे अब गृह मंत्री बन गए.आदर्श सोसाईटी घोटाला समाप्त.ऐसे भी वे महाराष्ट से हैं.आदर्श सोसाईटी के घोटाले को आगे बढाने से उनका हस्र क्या होगा,यह आप भी समझ सकते हैं
    .श्री सुब्रिमानियम स्वामी के अनुसार चिदम्बरम भी २ जी घोटाले में अपराधी हैं.अब वे वित् मंत्री हैं.२जी घोटाले के सब मुकदमे ख़त्म.ऐसे भी कोयला घोटाला सामने आने पर और उसमे कोई भी कार्रवाई न किये जाने से,२जी घोटाला का मुकदमा पहले ही कमजोर हो गया है.
    कारगर क़ानून के अभाव में ये सब मुकदमे ऐसे भी जल्द समाप्त होने वाले नहीं हैं.सब अपराधी बाहर आ हीं गए हैं .वे फिर चुनाव जीतेंगे..लालू प्रसाद यादव का उदाहरण आप लोगों के सामने है.
    अगर जन लोक पाल आ जाए और सीबी आई उसके अधीन हो तो इन सबको जेल जाने और इनके विरुद्ध फैसले में देर लगेगी क्या?

  7. हकीकत यही है की अन्ना का आन्दोलन वास्तव में पिछले वर्ष बाबा रामदेव की फरवरी में रामलीला मैदान में हुई सफल रेली की पतिक्रिया में कड़ी की गयी थी और शुरू में इसे सर्कार व मिडिया से भरपूर तवज्जो मिली. ऐसा लगता था जैसे सर्कार और अन्नाजी के बीच नूरा कुश्ती हो रही है लेकिन मिडिया की कवरेज ने जो माहौल बनाया और जिसे लोगों के अंतर्मन में बसे भ्रष्टाचार विरोधी भावनाओं से ताकत मिली उससे अन्नाजी की टीम में शामिल हो चुके कुछ स्वयंभू ठेकदारों ने आन्दोलन को हाईजेक कर लिया और अन्नाजी भी उससे प्रभावित नजर आये और अपने काफी समर्थकों को ठेस पहुंचाई. भारत माता के चित्र को मंच से हटाना, भारतमाता की जय के नारों से परहेज और वोही हिन्दू मुस्लिम एकता का दिखावा राष्ट्रवादियों को दुखी करता है. इसके विपरीत बाबाजी ने केवल एक गलती की की वो चार पांच जून २०११ की रात्रि में महिला वेश में धरना स्थल से भागने के प्रयास में पकडे गए और मिडिया ने महिला वेश में दिखाकर उनकी छवि बिगाड़ने का पूरा प्रयास किया.बाबा का आन्दोलन एक ज्यादा बड़े मुद्दे पर है. विदेशों में जमा काले धन को देश में वापस लाना. लेकिन इन सब से अलग एक और रास्ता भी है जिसके लिए भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किसी लोकपाल या जन्लोकपाल की आवश्यकता नहीं है. वो रास्ता सुब्रमण्यम स्वामी जी का है. जिन्होंने मौजूदा कानूनों से ही अदालतों का सहारा लेकर ऐ रजा और अन्य बड़े बड़ों को जेल की हवा खिलाडी और सी बी आई को अदालत की निगरानी में कार्यवाही के लिए मजबूर होना पड़ा और सी बी आई पर सर्कार का नियंत्रण भी कुछ काम न आ सका.अगर लड़ने की इक्षाशक्ति है, सही रास्ते की समझ है और कानून की बारीकियों को समझने और इस्तेमाल करने की योग्यता है तो लडाई वर्तमान कानूनों से भी सफलतापूर्वक लड़ी जा सकती है.खाली अनशन और आन्दोलनों ने इस देश के अनुशासन को समाप्त कर दिया है और देश में कानून का राज लगभग समाप्त हो चूका है. देश में अनुशाशन स्थापित करने के लिए कोशिश करनी चाहिए.सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था की देश की अज्ज़दी के बाद देश में दस साल के लिए मिलिटरी का राज कायम कर देना चाहिए ताकि देश में अनुशाशन की भावना आ सके.

  8. अगर दिल्ली का सर्वाधिक पढ़े जाने वाला अंग्रेजी समाचार पत्र एन.डी.तिवारी के बाप बनने की खबर अखबार के पहले पन्ने पर देता है और आन्दोलन की खबर छठे पृष्ठ पर ,तो इसे क्या कहा जाएगा.अब यह बात भी साफ़ होती जा रही है कि भ्रष्टाचार के जो समर्थक जनता की भीड़ देख कर इस आन्दोलन के विरुद्ध मुँह नहीं खोल पा रहे थे,अब उन लोगों ने अपना रंग दिखाना आरम्भ कर दिया है.
    मैंने पहले भी लिखा है कि अगर यह आन्दोलन असफल हो गया तो अन्ना और उनके टीम का क्या बिगड़ेगा? परेशानी तो उस जनता की बढ़ेगी ,जिनको आशा की एक किरण दिखलाई पड़ रही थी.ऐसे तो मेरा मानना है कि अनशन का समय ख़त्म हो चूका है.अब टीम अन्ना को चुनाव के मैदान में उतरना चाहिए.अगर जनता को लगता है कि वे सही में जनता की भलाई के लिए काम कर रहे हैं तो जनता उनकोखुले दिल से समर्थन देगी.अगर जनता यह समझती है कि टीम अन्ना का आन्दोलन जनता की भलाई के लिए नहीं है ,तो फिर यह सारा ताम झाम किसलिए?

  9. तेजवानी जी ,
    काफी सही लिखा है … टीम अन्ना को हकीकत को स्वीकार करना पड़ेगा की इस बार लोग वाकई में कम है .. बैंगलोर के फ्रीडम पार्क में जहा पिछले साल हजारो की भीड़ थी इस बार सिर्फ १००-२०० लोग थे .

    और बात रही मीडिया की तो उस पर भी दबाव है .. यह भी सच्ची कडवाई है सोमवार के TOI बैंगलोर संस्करण में टीम अन्ना पहले पन्ने से ही गायब है उसे छठे पन्ने पर जगह दी गयी है .. अब कोन कहेगा की मीडिया बिकाऊ नही है … माना सभी ऐसे नही है पर कुछ लोग ऐसे जरूर है

    ये तो बात हो गयी दोनों पक्षों की पर यहाँ लड़ाई भीड़ की नही है … मामला है भ्रष्टाचार से लड़ने का … अगर सरकार के लिए भीड़ ही मायना होती तो पिछले साल ही बिल पारित हो जाता .. न ही बाबा रामदेव का आन्दोलन क्रूरता से कुचला जाता …!!! इसलिए न तो मीडिया और न ही टीम अन्ना को भीड़ देखनी चाहिए … मुद्दा मुख्य है….
    सरकार की नियत नही ही है की वह बिल पास करे … उसके लिए तो यह स्थिति ठीक वेसी ही है जैसे बिल्ली द्वारा खुद के गले में घंटी बांधना 🙂

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