बच्चों में मानसिक विकृतियाँ

परमात्मा की सभी कृतियों में मानव को श्रेष्ठ माना गया है. मानव जीवन में विलक्षण विशेषताएं होना स्वाभाविक है I परिवार में शिशु के आगमन की कल्पना से प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता I बच्चे से , अपने अपने सम्बन्ध के अनुसार सबके ह्रदय में नयी नयी कल्पनाएँ होती हैं I जन्म के पश्चात परिवारों में अपनी सामर्थ्य के अनुरूप खुशियाँ मनाई जाती हैं I जब बच्चे में कोई गंभीर शारीरिक या मानसिक विकृति दृष्टिगोचर होती है तो कुछ परिवारों में उत्साह विलुप्त हो जाता है I कुछ शारीरिक विकृति प्राय एकदम दिख जाती हैं , परन्तु कुछ का पता कुछ समय के पश्चात ही चल पाता है I मानसिक विकृतियाँ कुछ और अन्तराल के पश्चात ही संज्ञान में आ पाती हैं- यथा अविकसित मस्तिष्क , मंद बुद्धि या फिर विक्षिप्तता I विकलांगता से प्रभावित कुछ बच्चों का आंशिक या पूर्ण उपचार संभव होता है और कुछ के लिए चिकित्सक भी हाथ खड़े कर देते हैं I प्रकृति की मार से पीड़ित इन बच्चों व इनके माता-पिता का अपना जीवन भी अभिशाप बन जाता है I माता-पिता ऐसे बच्चों के उपचार में अपना तन-मन-धन सबकुछ लुटा कर भी यथासंभव सामान्य जीवन जीने योग्य बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं I कष्ठप्रद स्थिति तो वह होती है जिसमें या तो उपचार संभव नहीं या माता-पिता की सामर्थ्य नहीं I कुछ मामलों में तो शारीरिक विकलांगता प्राय दूर भी हो जाती है या यथासंभव आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है I

मानसिक विकलांगता और भी अधिक कष्ठ्प्रद होता है I ये बच्चे स्वयं अभिशप्त जीवन व्यतीत करते ही हैं I इनके माता-पिता भी आजीवन इसी चिंता में व्यथित रहते हैं I उनके बाद इनका क्या होगा ? शारीरिक विकलांगता में दृष्ठिहीनों , मूक वधिरों या फिर हाथ पैरों की विकलांगता से पीड़ित बच्चों के लिए तो व्यवस्थाएं हैं ,परन्तु इन अभिशप्त बच्चों के लिए कुछ व्यवस्थाएं नहीं हैं I घर से बाहर इनको कुछ सहृदय लोग दया दृष्टि से देखते हैं ,परन्तु अधिकांश लोग तो मज़ाक उड़ाते हैं I कुछ लोग अवसर मिलने पर पत्थर आदि मारने से भी नहीं चूकते I घर में भी इन बच्चों को बेकार समझकर उपेक्षित व्यवहार होता है I

mentalएक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रति १० बच्चों में एक अविकसित मस्तिष्क या अपंगता से पीड़ित होता है I पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले पता चले जहाँ सम्पत्ति के लोभ में ऐसे बच्चों को किसी किसी न रूप में जीवन से वछित कर दिया जाता है I मानव जीवन स्वार्थ अहंकार आदि गुणों का भण्डार होता है I परिवार का कोई बच्चा उपेक्षित दिखे तो कुछ अजीब अनुभूति होती है I ऐसा व्यवहार प्राय परिवारों में होता है I उनकी प्रताड़ना भी की जाती है I यदि उसके माता-पिता नहीं है, तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है I

मानव अपने जीवन में अपने हित के लिए सोचना , कुछ करना , अपने लाभ के लिए प्रयत्न और चिंतनशील रहता है I मानवीय दृष्टि से यह एक स्वाभाविक या नैसर्गिक क्रिया है , परन्तु जब स्वार्थ और दुर्भावना का कुसंयोग हो तो स्थिति गंभीर हो जाती है I मानव अपने हित के लिए किसी भी चरम पर पहुँच जाता है I मानवता को ही विस्मृत कर बैठे तो मानव’, मानव नहीं दानव बन जाता है I उसके लिए किसी रिश्ते नाते को मोल नहीं रहता I ऐसे उदाहरण अब प्राय: प्रतिदिन सुनने को मिलते हैं I मानव ये भुला देता है कि विधाता के दिए गये किसी दंड स्वरूप ही शायद पीड़ित बच्चा या व्यक्ति परिवारों में होता है I यह हर उस व्यक्ति के लिए एक शिक्षा है ,एक सबक है, जो स्वयं को स्वयंभू मान बैठता है I कहा गया है : उस पीड़ित की लाठी में आवाज़ नहीं होती है I

पीड़ित बच्चा या व्यक्ति आत्म निर्भर नहीं रहता है I सम्पत्ति में उसके लिए बड़ा भाग भी उन्होंने सुरक्षित कर दिया जाता है, परन्तु उसके भविष्य के विषय में वो राहत की सांस नहीं ले पाता है I ऐसी स्थिति में समस्या लड़का या लडकी दोनों के साथ होता है, परन्तु लडकी होने के कारण उसको समाज के भेडियों से भी बचाया जाना आवश्यक है I अतः किसी केंद्र में भेजना भी इतना सरल नहीं होता है I
मंद बुद्धि बच्चों के लिए बनाये गये केन्द्रों की यदि बात की जाय तो हमारे देश में ऐसे केंद्र बहुत अधिक नहीं , जहाँ उनको स्थान मिल सके I सरकार द्वारा स्थापित ऐसे केंद्र अव्यवस्था व भ्रष्टाचार के गढ़ हैं I यदि कुछ निजी संस्थाओं द्वारा चलाये गये संस्थान या केंद्र भी हैं , तो वहां का व्यय इतने अधिक हैं कि एक सामान्य आय वाले व्यक्ति के लिए वहन करना संभव नहीं होता I

ऐसे बच्चों का शारीरिक श्रम आदि न करने के कारण उनका शरीर तो बढ़ता है पर मस्तिष्क नहीं I आयु बढ़ने के साथ उनको कई बार अन्य रोग भी परेशान करते हैं I यदि समय रहते यथासंभव उपचार इन बच्चों को भी मिले तो कुछ सीमा तक उनमें सुधार लाया जा सकता है I इसी प्रकार कुछ ऐसे केंद्र जो समाजसेवा की भावना से सम्पन्न लोग चला सकें तो वहां ऐसे बच्चों में सामाजिकता के साथ सुधार भी होता हैI

ऐसा ही एक केंद्र है ‘पाथवे’ जो एक महानुभाव द्वारा एक एन.जी.ओ. के रूप में संचालित किये जा रहे हैं I इनका ध्येय है –

’’प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सुविधा दी जानी चाहिए कि वह अपने आनुवंषिकता के अनुरूप अपना नौसर्गिक विकास कर सके। अपना मान ,सम्मान और पहचान के साथ जी सके । उसमें मानसिक एवं शारीरिक अक्षमता की स्थिति में भी स्वाभिमान के साथ जीने की क्षमता विकसित हो सके। ’पाथवे ’ अपनी पूरी क्षमता से गरीब से गरीब व्यक्ति के विकास में सहायक होगा ।’’

2 बच्चों के साथ 1975 में प्रारम्भ किया गया यह केंद्र आज लगभग २२००० से भी अधिक पीड़ित जनों की सेवा कर रहा है I यहाँ पर विशेष थेरेपीज द्वारा ऐसे पीड़ितों का उपचार होता है I उनको प्रशिक्षण के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास भी किये जाते हैं I इतने प्रयास पर्याप्त नहीं हैं I ऐसे पीड़ितों के पुनर्वास पर विचार करना सबका धर्म है I साथ ही साथ परिवार में यदि कोई ऐसा सदस्य भी है तो उसके प्रति संवेदनशीलता बनाये रखना मानवता के नाते आवश्यक भी है I

 

3 COMMENTS

  1. गर्भावस्था के दौरान औषधियों के प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिए। एलोपैथी दवाइयो में यह बात स्पस्ट रूप से निर्दिष्ट होती है की गर्भावस्था या दूध पिलाते समय इन-इन दवाइयो का प्रयोग वर्जित है। लेकिन मेरे अनुभव के अनुसार 85 प्रतिशत एलोपैथी डाक्टर इन निर्देशो की अवहेलना करते है। मरीज को तकनीकी जानकारी होती नही है। और इस वजह से नवजात बच्चों में विकलांगता या मानसिक विकृति बढ़ रही है।

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