महान देशभक्त नेताजी सुभाष चंद्र बोस

subhash jiअशोक “प्रवृद्ध”

 

महान सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरुषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर कूटनीतिक व राजनितिक चर्चा करने वाले तथा भारत के स्वतंत्रता हेतु सम्पूर्ण यूरोप में अलख जगाने वाले सुभाष चंद्र बोस भारतीय इतिहास के ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो प्रकृति से साधु, ईश्वर भक्त तथा तन एवं मन से एक महान देशभक्त थे और नेता ऐसे कि आज भी एकमात्र उन्हें ही नेताजी के नाम से जाना जाता है । मोहनदास करमचन्द गाँधी के नमक सत्याग्रह को नेपोलियन की पेरिस यात्रा की संज्ञा देने वाले सुभाष चंद्र बोस का ऐसा व्यक्तित्व था, जिसका मार्ग कभी भी स्वार्थों ने नहीं रोका, जिसके पाँव लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे, जिसने जो भी स्वप्न देखे, उन्हें साधकर ही दम लिया । उनमें सच्चाई के सामने खड़े होने की अद्भुत क्षमता थी और वे जो भी करते, आत्मविश्वास से करते थे।

तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूँगा और जय हिन्द जैसे प्रसिद्ध नारे देने वाले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रख्यात नेता नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 में उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता जानकी नाथ बोस प्रख्यात वकील थे और उनकी माता प्रभावती देवी सती और धार्मिक महिला थीं। माता – पिता की कुल चौदह संतानों,  छह बेटियाँ और आठ बेटों में से सुभाष नवें स्थान पर थे। सुभाष बचपन से ही पढ़ने में तेज व होनहार थे। उन्होंने दसवीं की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था तथा स्नातक में भी वे प्रथम रहे  थे। कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल की थी। उसी दौरान सेना में भर्ती हो रही थी।49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। सुभाष स्वामी विवेकानंद के अनुयायी थे। मात्र पन्द्रह वर्ष की अवस्था में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। अपने परिवार की इच्छा के अनुसार 15 सितम्बर 1919 को वे भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए इंग्लैंड पढ़ने गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु प्रवेश ले लिया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली।

इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने अधिकार कर रखा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की परतन्त्रता कैसे कर पायेंगे? वे जालियाँवाला बाग के नरसंहार से बहुत व्याकुल हुए और उन्होंने 1921 में प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशवन्धु चित्तरंजन दास को लिखा। किन्तु अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है। सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये।

भारत वापस आने के बाद नेताजी गाँधीजी के संपर्क में आए और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में शामिल होकर गाँधीजी के निर्देशानुसार देशबंधु चितरंजन दास के साथ काम करना शुरू किया। बाद में उन्होंने चितरंजन दास को अपना राजनैतिक गुरु मान लिया था। अपनी सूझ-बूझ और मेहनत से सुभाष बहुत जल्द ही काँग्रेस के मुख्य नेताओं में शामिल हो गए। 1928 में जब साइमन कमीशन आया तब काँग्रेस ने इसका विरोध किया और काले झंडे दिखाए। 1928 में काँग्रेस  का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए एक वर्ष का वक्त दिया गया। उस दौरान गाँधी पूर्ण स्वराज की माँग से सहमत नहीं थे, वहीं सुभाष को और जवाहर लाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। 1930 में उन्होंने इंडीपेंडेंस लीग का गठन किया। सन 1930 के सिविल डिसओबिडेंस आन्दोलन के दौरान सुभाष को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया, लेकिन  गाँधीजी-इरविन पैक्ट के बाद 1931 में उनकी रिहाई हो गई। सुभाष ने गाँधी-इरविन पैक्ट का विरोध किया और  सिविल डिसओबिडेंस आन्दोलन को रोकने के फैसले से भी वह खुश नहीं थे। सुभाष को जल्द ही बंगाल अधिनियम के अंतर्गत दोबारा जेल भेज दिया गया। इस दौरान उनको करीब एक वर्ष तक जेल में रहना पड़ा और बाद में बीमारी की वजह से उनको जेल से रिहाई मिली। उनको भारत से यूरोप भेज दिया गया। वहाँ उन्होंने, भारत और यूरोप के मध्य राजनैतिक और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए कई शहरों में केंद्र स्थापित किये। उनके भारत आने पर पाबंदी होने के बावजूद वे भारत आए और परिणामतः उन्हें  एक वर्ष के लिए जेल जाना पड़ा । 1937 के चुनावों के बाद काँग्रेस पार्टी 7 राज्यों में सत्ता में आई और इसके बाद सुभाष को रिहा किया गया। इसके कुछ समय बाद सुभाष काँग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन (1938) में अध्यक्ष चुने गए। अपने कार्यकाल के दौरान सुभाष ने राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष को दोबारा अध्यक्ष चुन लिया गया।

इस बार सुभाष का मुकाबला पट्टाभि सीतारमैया से था। सीतारमैया को गाँधी का पूर्ण समर्थन प्राप्त था फिर भी 203 मतों से सुभाष चुनाव जीत गए। इस दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल भी मंडराने लगे थे और सुभाष ने अंग्रेजों को 6 महीने में देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया। सुभाष के इस रवैये का विरोध गाँधी समेत काँग्रेस के अन्य लोगों ने भी किया जिसके कारण उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की। सुभाष ने अंग्रजों द्वारा भारत के संसाधनों का द्वितीय विश्व युद्ध में उपयोग किये जाने का घोर विरोध किया और इसके खिलाफ जनांदोलन शुरू किया। उनके इस आंदोलन को जनता का जबरदस्त समर्थन मिल रहा था। इसलिए उन्हें कोलकाता में कैद कर नजरबन्द रखा गया। जनवरी 1941 में सुभाष अपने घर से भागने में सफल हो गए और अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुँच गए और उन्होंने ब्रिटिश राज को भारत से निकालने के लिए जर्मनी और जापान से मदद की गुहार लगायी। जनवरी 1942 में उन्होंने रेडियो बर्लिन से प्रसारण करना शुरू किया जिससे भारत के लोगों में जबर्दस्त उत्साह बढ़ा। वर्ष 1943 में वे  जर्मनी से सिंगापुर आए। पूर्वी एशिया पहुंचकर उन्होंने रास बिहारी बोस से स्वतंत्रता आन्दोलन का कमान लिया और आजाद हिन्द फौज का गठन करके युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना मुख्यतः जापानी सेना द्वारा अंग्रेजी फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को लेकर किया गया था। इसके बाद सुभाष को नेताजी कहा जाने लगा और उन्होंने जय हिन्द का नारा दिया । अब आजाद हिन्द फ़ौज भारत की ओर बढ़ने लगी और सबसे पहले अंदमान और निकोबार को आजाद किया। आजाद हिन्द फौज बर्मा की सीमा पार करके 18 मार्च 1944 को भारतीय भूमि पर आ धमकी। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी के हार के साथ, आजाद हिन्द फ़ौज का सपना पूरा नहीं हो सका। कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु ताईवान में हो गयी परंतु उस दुर्घटना का कोई साक्ष्य नहीं मिल सका। सुभाष चंद्र की मृत्यु आज भी विवाद का विषय है और भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा संशय है, जिससे पर्दा उठाने में केंद्र सरकार अब भी हिचकिचा रही है । नेताजी के परिवार के लोगों की माँग और भारी जनदबाव पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नेताजी के मौत से सम्बंधित कुछ दस्तावेजों को लोगों के समक्ष रखकर इस संशय रुपी रहस्य से पर्दा उठाने की कोशिश की, लेकिन इस मामले से सम्बंधित दस्तावेजों को जारी करने में केंद्र सरकार द्वारा ऊहापोह की राजनीती अख्तियार करने से संशय रुपी बादल अभी भी मंडरा रहे हैं।

 

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