अदालती फैसले को सही संदर्भ में समझने की जरूरत
संजय द्विवेदी
राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए संदर्भ पत्र पर उच्चतम न्यायालय की राय को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी विजय के रूप में प्रचारित करने में लगी है। जबकि यह मामले को आधा समझना है। ऐसी आधी-अधूरी समझ से ही संकट खड़े होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसके मूलभाव को समझे बिना- “भारत के खनिज संसाधनों पर भी हक है मेरा” का गायन ठीक नहीं कहा जा सकता। देश में मची संसाधनों की लूट को कैग ने सही तरीके से समझा है किंतु सरकार इन गंभीर विषयों पर नीति बनाने के बजाए सारा कुछ बाजार और स्वविवेक पर सौंपने की नीति पर चलने के लिए आतुर है।
देश के राष्ट्रपति महोदय के संदर्भ पत्र पर पांच जजों की संविधान पीठ का फैसला दरअसल सरकार के कामकाज में दखल न देने की भावना ज्यादा है। वैसे भी सरकार का काम नीति बनाना है और नीति बनाते समय यह सावधानी रखना भी है कि इसे लूटतंत्र में न बदला जा सके। केंद्र सरकार को तय करना है कि आखिर देश के प्राकृतिक संसाधनों के मामले में क्या नीति बनाई जाए। किंतु उसे अपनी मनमानियों को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल करना उचित नहीं कहा जा सकता। फैसला बहुत व्यापक संदर्भ की बात करता है और उसने सिर्फ संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने साफ कहा है कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन नीतिगत मामला है और यह सरकार का अधिकार है कि वह इसका तरीका तय करे। इसके साथ ही अदालत ने यह भी माना है कि नीलामी बेहतर विकल्प है। अदालत का कहना है कि आबंटन हर हाल में पारदर्शी होना चाहिए। अगर आबंटन का तरीका मनमाना है तो अदालत उसकी समीक्षा करेगी।
इस फैसले की आड़ लेकर कांग्रेस के कुछ प्रवक्ता और मंत्री जिस तरह कैग को नसीहतें देने में और की गयी लूटपाट को वैधानिक बताने में जुटे हैं, वह ठीक नहीं है। उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे नेतागण संसाधनों की इस लूट को जारी रखने के पक्ष में हैं और किसी नीति-नियम के खिलाफ है। कैग के खिलाफ उनकी उलटबासियां बताती हैं कि वे नहीं चाहते कि उनके कामों की किसी प्रकार से समीक्षा हो। कोई एजेंसी उनके कामों का आंकलन करे इसके लिए भी वे तैयार नहीं हैं। जबकि यह समझना होगा कि सरकार पर आपका हक होने से संसाधनों पर भी आपका हक नहीं हो जाता बल्कि ये संसाधन देश के हैं। इनका उचित प्रकार दोहन करके प्राप्त राशि को विकास के काम में लगाया जाना चाहिए। यह साधारण नहीं है कि जिन इलाकों से ये खनिज संसाधन निकाले जा रहे हैं वहां रहने वाली आबादी सबसे गरीब है। ये वही इलाके हैं जहां गरीबी, मुफलिसी और बेचारगी फैली हुयी है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि ये संसाधन जिन लोगों के इलाकों से निकाले जा रहे हैं क्या उनका इन पर कोई हक नहीं हैं। अगर है तो क्यों न इन इलाकों से होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा सरकारें इन पर खर्च करें। खनिज संसाधनों से युक्त अमीर घरती पर अगर देश के सबसे गरीब लोग बसते हैं तो यह हमारे लोकतंत्र की बिडंबना ही कही जाएगी। ऐसे में इस विरोधाभास को हटाने और खत्म करने की भी जरूरत महसूस की जा रही है।
खुद मंत्रिमंडलीय समूह ने कोयला खदानों के आबंटन में हुई अनियमितताओं को उचित पाया है और तमाम आबंटन रद कर दिए हैं। अगर नीलामी के जरिए ये आबंटन हुए होते तो निश्चय ही सरकार को ज्यादा फायदा हुआ होता। कम से कम नकली कंपनियां और फर्जी पतों का इस्तेमाल कर अनुभवहीन कंपनियां तो मैदान में नहीं कूदतीं,वही कंपनियां सामने आती जिनकी व्यवसाय में रूचि है। निश्चित रूप से नीलामी के बजाए कथित विवेकाधिकार भ्रष्टाचार को ही जन्म देगा और घोटालों को एक संस्थागत रूप मिल जाएगा। जिस चावला समिति का गठन सरकार ने किया था, उसने भी प्रतिस्पर्धी बोली के पक्ष में सिफारिश की थी। हालांकि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसने चावला समिति की सिफारिशें स्वीकारी नहीं हैं। ऐसे में इस फैसले की आड़ लेकर सरकार अगर पुरानी नीति को जारी रहने देती है तो निश्चय ही देश के राजस्व को चूना ही लगेगा। हमारे खनिज संसाधनों की लूट यूं ही होती रहेगी और हम इस घाटे के नाते पैदा हालतों में एफडीआई जैसे टोटकों से अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने का जतन करते रहेंगें।
यह दुखद ही है कि आला अदालत ने जाने क्यों सरकारों की मनमानियों को देखते हुए भी उन पर भरोसा किया है जबकि क्या ही बेहतर होता कि वह सरकार को एक मुकम्मल नीति बनाने का सुझाव देती और उसे विधायिका से स्वीकृत लेकर लागू करने की बात कहती। हमारी आला अदालत ने भले ही सरकार के सम्मान को बहाल रखते हुए एक सकारात्मक फैसला सुनाया है, किंतु टूजी स्पेक्ट्रम से लेकर कोलगेट तक जो राह हमारी राजनीति ने चुनी है, उसे देखने के बाद देश भरोसे से खाली है। आज वह सिर्फ सुप्रीम कोर्ट पर ही भरोसा करने के लिए विवश है। ऐसे में अदालत का भी सरकार को बेलगाम छोड़ देना, बड़े संकट रच सकता है। बावजूद इसके यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री इस संबंध में नीतियां बनाने में वही उत्साह दिखाएंगें जैसा वे आर्थिक सुधारों के लिए दिखा रहे हैं। भरोसे से खाली देश में नीतियां ही हमारी मार्गदर्शक बन सकती हैं। हर अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़े हैं और इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि देश के संसाधनों की तरफ ललचाई नजरों से देखती हुयी राजनीति कम से यह तो न कहे कि “भारत के हर प्राकृतिक संसाधन पर हक है मेरा।”