मोबाइल न छूटे…

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आजकल तो देश के कई भागों में पानी की किल्लत होने लगी है; पर सौ साल पहले चेरापूंजी सबसे अधिक और राजस्थान सबसे कम वर्षा वाला क्षेत्र था। इसीलिए राजस्थान में पानी पर सैकड़ों लोकगीत, कहानियां और कहावतें बनी हैं।

उन दिनों पानी भरने तथा कपड़े धोने का काम महिलाएं ही करती थीं। इस बहाने मीलों दूर पनघट पर आकर वे अपनी सखियों से ‘मन की बात’कर लेती थीं। यद्यपि इसमें उनकी सास, ननद या जेठानी आदि की बुराई ही अधिक होती थी; पर इससे उनका मन हल्का हो जाता था। इसीलिए उन दिनों महिलाओं को दिल के रोग नहीं होते थे। वापसी में वे रसोई के लिए गगरी में साफ पानी लेकर जाती थीं। इस पानी का महत्व कितना था, इसे एक कहावत ‘गगरी न फूटे खसम मर जाए’से समझ सकते हैं।

लेकिन समय परिवर्तनशील है। उन दिनों घड़े मिट्टी से ही बनते थे; पर फिर पीतल और तांबे का प्रयोग होने लगा। इससे उनके टूटने का खतरा कम हो गया। अतः ‘पीतल की मेरी गागरी, दिल्ली से मोल मंगाई’जैसे गीत बनने लगे; पर जब घरों में पानी के हत्थू नल लगे, तो पनघट और कुएं पीछे छूट गये। इसके बाद पानी के टेप आ गये। उसकी गरदन मरोड़ो, पानी हाजिर। इससे पनघट के बाद घड़े और गगरी की जरूरत भी नहीं रही।

लेकिन विज्ञान कितना भी आगे बढ़ जाए, इंसान की जरूरतें तो बनी ही रहती हैं। एक गयी तो दूसरी हाजिर। विज्ञान के अनुसार निर्वात (वेक्यूम) की स्थिति में कोई दूसरी चीज आकर उसे भर देती है। जैसे किसी जगह हवा कम होते ही कहीं और से सैकड़ों कि.मी. की गति से विध्वंसकारी हवा आने लगती है। इसे ही चक्रवात कहते हैं।

लेकिन पनघट और गगरी के परिदृश्य से ओझल हो जाने पर एक नयी चीज यानि मोबाइल फोन आ गयी है। महिला हो या पुरुष, कोई उसे छोड़ना नहीं चाहता। युवाओं का तो कहना ही क्या ? अगर वह न हो, तो उनका रक्तचाप गिर जाए या शुगर कम हो जाए। हो सकता है वह बेहोश होकर गिर ही जाए। किसी समय महिलाएं कहती थीं, ‘गगरी न फूटे, खसम मर जाए।’ इसी तर्ज पर आज कहेंगे, ‘मोबाइल न छूटे, जगत छूट जाए।’इसके बिना जीवन अधूरा है।

पहले लोग काम पर जाते समय पर्स, चाबी, डायरी और खाने का डिब्बा जैसी चीजें संभालते थे। आज वे मोबाइल संभालते हैं। मेरे एक मित्र वायुयान से दिल्ली गये; पर रास्ते में उन्हें ध्यान आया कि मोबाइल तो घर पर ही छूट गया। वे अगली फ्लाइट से वापस आये और मोबाइल लेकर फिर दिल्ली चले गये। पांच हजार के मोबाइल ने उनके दस हजार रु. खर्च करा दिये।

कुछ लोगों के लिए तो मोबाइल बीमारी बन गयी है। जब से मुफ्त बातचीत की सुविधा मिली है, तब से तो और बुरा हाल है। महिलाएं रसोई में इसका भोंपू खोलकर सहेलियों से खाना बनाने की विधि पूछती रहती हैं। सब्जी कब पीली हुई और कब लाल; मिर्च कब डालनी है और हल्दी कब; आटा गीला हो गया, तो क्या करें.. जैसी बातें कमेंट्री की तरह चलती रहती हैं। बनाने के बाद खाते समय भी ये साथ रहता ही है।

कुछ लोग नहाते हुए तो भीगने के डर से इसे साथ नहीं रखते; पर इससे पहले वाले काम के समय इसे कान से लगाये रखने में कोई दिक्कत नहीं है। ऐसे लोग दोनों काम एक साथ करते रहते हैं; पर एक महापुरुष का फोन इस चक्कर में उस गढ्डे में गिर गया। काफी देर तक तो वे सोचते रहे कि क्या करें; पर तभी फोन की घंटी बजी। बस फिर क्या था, उन्होंने आव देखा न ताव, हाथ अंदर डाल ही दिया।

पहले लोग मोबाइल हाथ में रखते थे; पर हाथ तो दो ही हैं। इसलिए काम करते या गाड़ी चलाते समय भी बात हो सके, इसकी तरकीबें ढूंढ ली गयी हैं। भगवान को इसका पहले से पता होता, तो वह हाथ भी तीन बनाता; पर विज्ञान इस कमी को पूरा करने में लगा है। हो सकता है भविष्य में मोबाइल इतना छोटा हो जाए कि उसे माथे पर बिन्दी की तरह चिपकाने से ही काम चल जाए। या फिर जन्म के समय बच्चे की गर्भनाल के साथ कोई चिप शरीर में डाल दी जाए, जो जीवन भर मोबाइल वाले सब काम करती रहे। भगवान के काम की तो सीमा है; पर इंसान और विज्ञान की नहीं।

मोबाइल के सैकड़ों किस्से हैं। कुछ लोग इसके प्रेमी हैं, तो कुछ गुलाम। हरित और शिक्षा क्रांति तो भारत में पूरी नहीं हुई; पर मोबाइल क्रांति जरूर हो गयी है। ये आगे कहां तक जाएगी, कहना कठिन है। इंसान को मृत्यु से अधिक डर मोबाइल के छूट जाने का है। तभी तो ‘मोबाइल न छूटे, जगत छूट जाए’की बात कही गयी है।

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