मोहन भागवत के हिन्दुत्व का भ्रम और सामाजिक सच

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का इसबार का विजयादशमी के भाषण का सार -संक्षेप मेरे सामने है। इसे यहां देख सकते हैं। हिन्दुत्ववादी होने के नाते उनका सुंदर राजनीतिक भाषण है।

संघ एक सामाजिक संगठन का दावा करता है लेकिन संघ के प्रधान का विजयादशमी को दिया गया भाषण सामाजिक समस्याओं पर न होकर राजनीतिक समस्याओं पर था। संघ को जब राजनीतिक कार्यक्रम पर ही काम करना है तो उसे सामाजिक संगठन का मुखौटा उतार फेंकना चाहिए। भागवतजी ने बड़े ही तरीके से राममंदिर निर्माण, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच के हाल के फैसले, धर्मनिरपेक्षता, कश्मीर समस्या, जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद, चीन, नक्सली आतंक, उत्तर पूर्वांचल में अलगाववाद की समस्या, बंगलादेश से घुसपैठ,उदारीकरण और पश्चिमी विकास मॉडल के दुष्परिणाम, शिक्षा के व्यवसायीकरण आदि समस्याओं पर प्रकाश डाला है।

उपरोक्त सारी बातें राजनीति की हैं। सामाजिक समस्या के दायरे में इन्हें नहीं रखा जा सकता। वैसे इनमें से प्रत्येक समस्या का समाज से संबंध है। मौटे तौर पर पूरा भाषण हिन्दू मृगमरीचिका का प्रतिबिम्ब है।

इस प्रसंग में मैं भागवतजी की अयथार्थवादी समझ का एक ही नमूना पेश करना चाहूँगा। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति से निबटने का आधार है संसद के द्वारा 1994 में पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव। उन्होंने कहा है ‘‘संसद के वर्ष 1994 में सर्वसम्मति से किये गये प्रस्ताव में व्यक्त संकल्प ही अपनी नीति की दिशा होनी चाहिए।’’

लेकिन यह प्रस्ताव आज के यथार्थ को सम्बोधित नहीं करता। सन् 1994 के बाद पैदा हुई समस्याओं का संघ के पास कोई समाधान नहीं है।कश्मीर में दस हजार से ज्यादा बच्चे अनाथ हो गए हैं उनकी देखभाल कौन करेगा? बीस हजार से ज्यादा विधवाएं हैं उनके भरणपोषण की जिम्मेदारी कौन लेगा? सैंकड़ों औरतें हैं जिनके ऊपर आतंकियों और सेना ने जुल्म किए हैं उनके बारे में क्या किया जाए? क्या पुराने संसदीय प्रस्ताव को दोहराने मात्र से काम बनेगा?

विगत 60 सालों में किसी न किसी बहाने इस राज्य को प्राप्त अधिकारों में कटौती हुई है। इस समस्या को सही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से सम्बोधित करने की जरूरत है। भारत के संविधान के दायरे में जितने व्यापक अधिकार दिए जा सकें उस दिशा में सोचना होगा। राज्य के अधिकारों को छीनकर उसे सिर्फ सेना के बल पर चलाना अक्लमंदी नहीं है। यह राजनीतिक समाधान खोजने में केन्द्र सरकार की असमर्थता की निशानी है। नागरिक जीवन में स्थायी तौर पर सेना का बने रहना समस्या का समाधान नहीं है।

मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा है कि ‘‘अपने देश के जिस सामान्य व्यक्ति के आर्थिक उन्नयन की हम बात करते हैं, वह तो कृषक है, खुदरा व्यापारी, अथवा ठेले पर सब्जी बेचनेवाला, फूटपाथ पर छोटे-छोटे सामान बेचनेवाला है, ग्रामीण व शहरी असंगठित मजदूर, कारीगर, वनवासी है। लेकिन हम जिस अर्थविचार को तथा उसके आयातित पश्चिमी मॉडल को लेकर चलते हैं वह तो बड़े व्यापारियों को केन्द्र बनाने वाला, गाँवों को उजाड़नेवाला, बेरोजगारी बढ़ानेवाला, पर्यावरण बिगाड़कर अधिक ऊर्जा खाकर अधिक खर्चीला बनानेवाला है। सामान्य व्यक्ति, पर्यावरण, ऊर्जा व धन की बचत, रोजगार निर्माण आदि बातें उसके केन्द्र में बिल्कुल नहीं है।’’

सवाल उठता है कि संघ के राजनीतिक सुपुत्रों अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा सांसदों ने नव्य उदारीकरण की बुनियादी नीतियों का संसद में विरोध क्यों नहीं किया? यह कैसा राजनीतिक पाखण्ड है कि भाजपा, जिसका संघ से चोली-दामन का संबंध है, वह तो नव्य उदारीकरण के पक्ष में काम करे, आदिवासियों को उजाड़ने का काम करे।

गुजरात और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों के हाथ आदिवासियों के विस्थापन से सने हैं। कौन नहीं जानता कि नर्मदा बचाओ आंदोलन करने वालों के प्रति संघ परिवार का शत्रुतापूर्ण रूख है। संघ परिवार मुस्तैदी से आदिवासियों को फंडामेंटलिस्ट बनाने में लगा है दूसरी ओर संघ के प्रधान के मुँह से आदिवासी प्रेम शोभा नहीं देता।

पश्चिमी मॉडल और खासकर नव्य उदार आर्थिक नीतियों और उपभोक्तावादी नीतियों का संसद में भाजपा ने कभी विरोध नहीं किया बल्कि बढ़-चढ़कर लागू करने में कांग्रेस की मदद की है। एनडीए के शासन में इन नीतियों को तेजगति से लागू किया गया।

मोहन भागवत के राजनीतिक विचार यदि एक ईमानदार देशभक्त के विचार हैं तो उन्हें भाजपा को आदेश देना चाहिए कि संसद में वे नव्य उदारीकरण से जुड़ी नीतियों का विरोध करें। मोहन भागवत जी के मौखिक कथन और व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर है। भाजपा के सांसदों और विधायकों और मोहनभागवतजी के कथन और एक्शन में जमीन -आसमान का अंतर है। इस तरह का राजनीतिक गिरगिटिया व्यवहार शोभा नहीं देता।

इससे यही पता चलता है कि बातों में हिन्दू हैं लेकिन एक्शन में अमरीका भक्त हैं। इस तरह का व्यवहार सिर्फ वे ही कर सकते हैं जिनकी जनता और देश के प्रति कोई आस्था ही न हो।

मोहन भागवत जी ने देवरस जी के हवाले से कहा है ‘भारत में पंथनिरपेक्षरता, समाजवाद व प्रजातंत्र इसीलिए जीवित है क्योंकि यह हिन्दुराष्ट्र है’। यह बात बुनियादी तौर पर गलत है।

भारत धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी लोकतांत्रिक देश है। यह हिन्दू राष्ट्र नहीं है। लोकतंत्र में हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिख धर्म आदि के मानने वाले रहते हैं। लेकिन वे सब नागरिक हैं, वे न हिन्दू हैं, न मुसलमान है, न सिख हैं, न ईसाई है। वे तो नागरिक हैं और इनकी कोई धार्मिक पहचान नहीं है। एक ही पहचान है नागरिक की।

दूसरी बड़ी पहचान है भाषा की। तीसरी पहचान है जेण्डर की। इन सबसे बड़ी पहचान है भारतीय नागरिक की। भारत में आज धार्मिक पहचान प्रधान नहीं है। भारतीय नागरिक की पहचान प्रमुख है। भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं है। यह विभिन्न धर्मों, जातियों, संस्कृतियों को मानने वालों का विविधता से भरा बहुजातीय लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यह बात संविधान में लिखी है। जिसे संघ परिवार को विकृत करने का कोई हक नहीं है।

मोहन भागवतजी को एक भ्रम और है, उन्होंने कहा है- ‘‘सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है।’’ राजनीतिशास्त्र कोई भी साधारण विद्यार्थी भी यह बात जानता है कि भारत की चालकशक्ति भारत का संविधान है, न कि हिन्दुत्व।

इसके अलावा समाज में एक ही संस्कृति का बोलवाला है वह उपभोक्ता संस्कृति। उपभोक्ता संस्कृति का सर्जक पूंजीपति वर्ग और उसकी नीतियां हैं न कि हिन्दुत्व। विविधता में एकता का आधार है लोकतांत्रिक संविधान न कि हिन्दुत्व।

हिन्दुत्व कोई सिस्टम नहीं है। वह एक फासीवादी विचार है जिसका संघ के सदस्यों में संघ के कार्यकर्ता प्रचार करते रहते हैं। हिन्दुत्व न तो संस्कृति है और न जमीनी हकीकत से जुड़ा विचार है यह एक फासीवादी विचार है ,छद्म विचार है। इसको आप संघ के नेताओं के प्रचार के अलावा और कहीं देख-सुन नहीं सकते।

मौजूदा भारतीय समाज की चालकशक्ति है पूंजीवाद और पूंजीवादी मासकल्चर। इसके सामने कोई न हिन्दू है न मुसलमान है, सिख है न ईसाई है, यदि कुछ है तो सिर्फ उपभोक्ता है। नागरिक को उपभोक्ता बनाने में नव्य उदार आर्थिक नीतियों को लागू करने वालों (कांग्रेस और भाजपा) की सक्रिय भूमिका रही है।

संघ परिवार को कायदे से राजनीतिक समस्याओं की बजाय सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान देना चाहिए। बाल विवाह,बाल शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, जातिभेद, धर्मभेद आदि के खिलाफ काम करना चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि मोहन भागवत जी के भाषण में औरतों की समस्याओं का कहीं पर भी कोई जिक्र नहीं है। सवाल किया जाना चाहिए कि क्या भारत में औरतें खुशहाल जिंदगी बिता रही हैं? औरतों के बारे में मोहन भागवतजी की चुप्पी अर्थवान है । यदि सारे देश की औरतों की बात छोड़ भी दें तो भी उन्हें कम से कम हिन्दू औरतों की पीड़ा और कष्ट से कराहते चेहरे नज़र क्यों नहीं आए? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि संघ को हिन्दू मर्दों की सेवा करनी है ,उनकी मुक्ति के लिए काम करना है, हिन्दुत्व के लिए पुरूषार्थी बनाना है।

मैं समझ सकता हूँ कि वे औरतों के बारे में क्यों नहीं बोले? वे चाहते हैं औरतें बदहाल अवस्था में रहें। औरतों की समस्याओं को उठाने का मतलब सामाजिक काम करना और सामाजिक काम करना संघ का लक्ष्य नहीं है।

संघ एक फासीवादी संगठन है और उसकी औरतों के बारे में एक खास समझ है जो हिटलर के विचारों से मिलती है। वे मानते हैं कि समाज में औरत की परंपरागत भूमिका होगी। वह चौका-चूल्हे और चारपाई को संभालेगी और बच्चे पैदा करेगी। घर की चौखट के अंदर रहेगी। यही वह बिंदु है जिसके कारण मोहन भागवतजी ने औरतों की समस्याओं पर एक भी शब्द खर्च नहीं किया।

औरतों की बदहाल अवस्था इस बात का भी संकेत है कि इस समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों ने औरत को किस तरह बर्बाद किया है। खासकर संघ जैसे विशाल संगठन के होते हुए औरतों पर जुल्म बढ़े हैं। अनेक मौकों पर तो संघसेवकों ने औरतों की स्वतंत्रता का अपहरण करने और अन्तर्जातीय-अन्तर्धार्मिक शादी ऱूकवाने में सक्रिय हस्तक्षेप किया है। वे आधुनिक औरत की स्वतंत्रचेतना और आत्मनिर्भर लोकतांत्रिक इमेज से नफ़रत करते हैं और यही वजह है कि मोहन भागवतजी के भाषण से औरतों का एजेण्डा एकसिरे से गायब है।

मोहन भागवतजी के भाषण से दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा गायब है वह है भ्रष्टाचार। पूरे भाषण में एक भी शब्द भ्रष्टाचार के बारे में नहीं है? क्या हम यह मान लें यह समस्या नहीं है? या भ्रष्टाचार के बारे में भागवतजी की चुप्पी भी अर्थवान है? लगता है संघीतंत्र में भ्रष्टाचार समस्या नहीं है। वह तो आम अनिवार्य नियम है। यदि समस्या है तो पता लगाया जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के कारण आज तक किसी भी संघी को संघ से क्यों नहीं निकाला गया? क्या हिन्दुत्व की विचारधारा में नहाने मात्र से भ्रष्ट लोग पवित्र हो जाते हैं? या कोई और वजह है?

18 COMMENTS

  1. “बातों में हिन्दू हैं लेकिन एक्शन में अमरीका भक्त हैं।”
    तो आज इतना तो सीख लिया आपने कि “जो हिन्दू है वो अमेरिका भक्त नहीं है”…
    धीरे धीरे सही रस्ते पर जा रहे हैं आप… शुभकामनाएं….

  2. आदरणीय चतुर्वेदी जी आप से निवेदन है कि इस शुभाषित -‘ यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम न कथनीयम न कथनीयम’ को सर्वकालिक मानियेगा !!! भले ही वो सौ टका सच है-जो आपने बखान किया किन्तु मूढमति महाठसों से ठसाठस भरी इस भारत भूमि में सच का सामना करने कि जिनमें हिम्मत नहीं वे ‘सच’ का साक्षात्कार होने पर कुकरहाव पर उतर आते हैं.

  3. इस देश में जितने भी चीन वादी ,पाकिस्तान वादी , रूस वादी ,अमेरिका वादी है , ये अब भारत वादी नहीं बन सकते है कारन इन लोगो ने उन देशो का नमक खाया है ! ngo बना बना कर खूब पैसा बटोर होगा अब इनको भारत की हर चीज या विचार ख़राब ही लगेगा ये विदेशी लोगो के जर खरीद गुलाम हो चुके है ये अघोसित देश द्रोही है अब ये सुधरने वाले भी नहीं है भारत भक्ति इनमे अब नहीं आसक्ति है अबतो इनका यही इलाज है की या तो इन्हें उन देशो में धकेल दिया जय जिनके ये भक्त है या इनको गोली मार दी जाय जिससे देश द्रोहिता न फेला सके

  4. zaraa dhyaan se dekhen to saaf nazar aayegaa ki ye sabhee waam panthee sangathan aur inake anuyaayee puure faasist, burjuaa wichaaron waale , kattarpanthee aur har prakaar se aatankee hain. jo gaaliyaan ye duusaron ko dete hain, we sabhee wisheshan in par aksharshah pure utarte hain. atah inakee bhaashaa w swabhaaw badalane kee aashaa zaraa kzm hee hai.

  5. भाई लोग क्यों परेशान हो रहें हैं आप…..साम्यवादियों के वैसे ही सारे ढक्कन बंद रहते हैं….यदि इस लेख मैं कोई ठोस वैचारिक बात होती तो ये महाशय आप लोगों की बातों का जवाब देते….पर वैचारिक रूप से शून्य इस आलेख मैं और इसके लेखक मैं न तो जवाब देने की मानसिकता है और न ही सामर्थ्य…ऐसे लेखक के लेख पर टिप्पणी करना न करना कोई मायने रखता है या नहीं ये आप जाने पर मेरी तरफ से तो बेकार ही हैं…. ऐसे महान विचारक और चिंतक जिन्हें सिर्फ अपने स्वायंभू (अ)ज्ञान की उल्टी करनी आती है पर उसकी बदबू सूंघने की क्षमता नहीं है..वो क्यों कर अपनी वैचारिक उल्टी यहां छोङ जाते हैं……

  6. *मोहन भागवत के हिन्दुत्व का भ्रम और सामाजिक सच -by – जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

    पर

    *९ टिप्पणी GOPAL K ARORA Says: October 24th, 2010 at 5:44 am

    मेरा सुझाव है कि प्रवक्ता.कॉम ऊपर लेख और तिप्पनी पर बहस का आयोजन करवाये.

    बहस के बिंदु :

    (१) जब संघ अपने को राजनीति से परे कहता है तो उसका अर्थ चुनावी राजनीति से परे होना है.

    (२) “हिंदुत्व एक जीवन पद्धति का नाम है “ – Supreme Court
    संघ ने कई बार कहा है कि वे हिंदुत्व की इस परिभाषा को मानते हैं.

    (३) भारत संविधान के अनुसार समाजवादी है और विद्वान लेखक के अनुसार पूंजीवादी है
    … सावन के अंधे को हर ओर हरा ही हरा दीखता है …

    (४) कोई भी भाषण पूरा मैनिफेस्टो नहीं होता जिसमें हर बिंदु को उठाना आवश्यक हो.
    आडवाणी और वाजपेयी को संघ के राजनैतिक पुत्र कहने वाले चतुर्वेदी महोदय के तर्क पर सुषमा स्वराज को राजनैतिक पुत्री कहना चाहिए ..
    इस पुत्री को देख कर कोई अक्ल का अंधा और गाँठ का पूरा भी यह नहीं मानेगा कि “संघ के अनुसार समाज में औरत की परंपरागत भूमिका होगी।
    वह चौका-चूल्हे और चारपाई को संभालेगी और बच्चे पैदा करेगी। घर की चौखट के अंदर रहेगी।“

    (५) राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्य महिलाओं में राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से चलता है जिनकी प्रतिदिन चलने वाली शाखाओं में महिलाओं व युवतियों को कुकिंग क्लासों के स्थान पर जूडो कर्राटे सिखाए जाते है.

    मेरा प्रस्ताव प्रवक्ता.कॉम स्वीकार करें.

    – अनिल सहगल –

  7. पंडित जी
    प्रणाम ।
    आप भारतीयता के विद्वान है । भारतीय़ संस्कृति को अच्छे ढंग से जानते हैं ।
    आपके लेख में आपने कहा कि मोहन भागवत जी का विजयादशमी का भाषण सामाजिक समस्याओं पर न होकर राजनीतिक समस्याओं पर था। यही मार्कसवादी दृष्टि है । चीजों को टूकडों में देखना । यह एकांगी दृष्टिकोण है । वैसे देखा जाए तो सारी समस्याओं का जड भी इसी दृष्टिकोण है । सभी समस्याएं एक दूसरे से जुडे होते हैं ।
    आपने लिखा – मोहन भागवतजी को एक भ्रम और है, उन्होंने कहा है- ‘‘सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है।’’ राजनीतिशास्त्र कोई भी साधारण विद्यार्थी भी यह बात जानता है कि भारत की चालकशक्ति भारत का संविधान है, न कि हिन्दुत्व।–
    पाकिस्तान व बांग्लादेश व अन्य कई देशों ने जब जन्म लिया या फिर स्वतंत्र हुए तब वे भी भारत जैसा बन सकते थे । यानी सभी मतों को सम्मान देना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि आदि । लेकिन उन देशों में यह नहीं हुआ । इसका क्या कारण है । वहां के लोगों ने भी भारत जैसा संविधान बना कर उस चालकशक्ति के जरिये अपने देश को चला सकते थे । लेकिन ऐसा हुआ नहीं । ज्य़ादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है । आपको वैचारिक खुराक जहां से प्राप्त होता है यानी आपके गुरु देश चीन की की ही बात को ले लें । वहां बोलने की कितनी आजादी है । वहां आप जैसे विद्वान कितने लेख लिख सकते हैं, स्टेट के खिलाफ । तियनमैन चौक पर जो हुआ उसे दुनिया ने देखा है । चीनी साम्यवादी सरकार के लाख छुपाने के बावजूद भी उसे दुनिया ने देखा है ।
    अब कश्मीर की बात करें । वहां इस्लाम मत को मानने वालों की संख्या अधिक होने पर उन्होंने कश्मीरी पंडितों को खदेड दिया । यह तो आपको पता है ना । अभी हाल ही की घटना है । गिलानी ने स्पष्ट कह दिया कि अगर सिक्खों को घाटी में रहना है तो इस्लाम स्वीकार करना पडेगा । काफी हल्ला मचा । मेरा कहने का आशय यह कि जिस चालकशक्ति के जरिये देश चलने का आप दावा कर रहे हैं उस तरह के एक पोथे से देश नहीं चलता । अन्यथा जितने उदाहरण मैने ऊपर दिये हैं वहां भी भारत जैसी स्थिति होती । इसलिए मोहन भागवत जी ने जो कहा है -‘‘सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है।’’
    आप भारतीयता के विद्वान हैं । भारत की संस्कृति के गहन अध्येता हैं । मैं यह मानने के लिए तैय़ार नहीं हूं कि आपको इन चीजों की जानकारी नहीं होगी । बल्कि मुझे लगता है आप किसी पूर्वाग्रह के कारण आप इसे मान नहीं रहे हैं ।

  8. हिंदुत्व के प्रती वामपंथियों की जुगुप्सा भरी घृणा व आतंकवादी हिंसक सोच बार-बार अभिव्यक्त हो ही जाती है. यह बहुत अछा हो रहा है कि ये लोग बौखलाहट में अपनी भड़ास निकालने के लिए अपनी असलियत को उजागर कर रहे हैं. इस प्रकार भारत वासी इनकी विचार-दिशाको समझकर इनसे सावधान हो जाएँगे . वैसे भी अपशब्दों का इस्तेमाल वे लोग ही करते हैं जो स्वभाव से ही असहिष्णू व असभ्य होते हैं या फिर उन्हें अपनी हार नज़र आ रही हो. हमारे वामपंथी मित्र व सेक्युलारिस्ट दोनों ही कसौटियों पर पूरे उतरते हैं. असहिष्णुता के आरोप को वामपंथी मित्र खारिज नहीं कर सकते. रूस, चीन और भारत तक में जब-जब भी मौक़ा मिला आप लोगों ने अपने से असहमत होने वालों को म्रोत्यु के घात उतारने में कोई कसार नहीं छोडी. आज भी तो यही हो रहा है. बंगाल, केरल और नैक्स्लाईट आन्दोलन इसके सजीव प्रमाण हैं.

  9. चतुर्वेदी जी के लेखों से लगता है की कुछ लोग पंडित न हो कर पोंगापंडित होते हैं जो ऐसे विषय पर भी अपने को महाविद्वान दिखाना चाहते हैं जिसका क ख ग भी उनको नहीं आता … इनका संघ ज्ञान कुछ घिसे पिटे जुमलों पर आधारित लगता है … क्योंकि जिसे संघ के मूल मन्त्र व उद्देश्य का ज्ञान हो उसे मोहन भागवत के सरोकारों में राजनीति की बू नहीं आती … संघ का मूल मन्त्र है “राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाना” जो संघ के स्वयंसेवक अपनी दैनिक प्रार्थना में प्रतिदिन दोहराते हैं .. इस उद्देश्य में बाधक राजनैतिक, सामाजिक धार्मिक आदि जो भी कृत्य हों उन पर विचार करना , मार्गदर्शन करना व समाज को जागृत करना ही संघ का कार्य व कार्यक्षेत्र है .. जहां तक में समझ पाया हूँ की जब संघ अपने को राजनीति से परे कहता है तो उसका अर्थ चुनावी राजनीति से परे होना है .. महोदय कुछ ज्ञानवर्धन कर लेंगे तो विषय के सही पंडित नजर आएँगे ..
    क्या खूब कहा आपने की “हिन्दुत्व कोई सिस्टम नहीं है? वह एक फासीवादी विचार है जिसका संघ के सदस्यों में संघ के कार्यकर्ता प्रचार करते रहते हैं। हिन्दुत्व न तो संस्कृति है और न जमीनी हकीकत से जुड़ा विचार है यह एक फासीवादी विचार है ,छद्म विचार है। इसको आप संघ के नेताओं के प्रचार के अलावा और कहीं देख-सुन नहीं सकते।“.. बलिहारी है आपके पांडित्य की … आप भारत के संविधान की बार बार दुहाई देते हैं तो यह तो जानते ही होंगे की संविधान के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अंतिम माना जाता है जिसने अपने निर्णय में स्पस्ट शब्दों में कहा है कि “हिंदुत्व एक जीवन पद्धति का नाम है “.. संघ ने कई बार कहा है कि वे हिंदुत्व की इस परिभाषा को मानते हैं … इस पर भी यदि इसे कोई फासीवादी विचार कि संज्ञा देता है तो किसी ढिंढोरची की मजबूरी ही कहा जा सकता है … या मानसिक रोग जिसके बारे में जे पी शर्मा ने इस लेख के बारे में लिखे गए अपनी टिप्पणी में लिखा है …
    जैसे कहते हैं कि चतुर से चतुर अपराधी भी अपराध करने के बाद कोई ना कोई सबूत छोड़ देता है वैसे ही अपने मूल स्वरुप को कोई लाख छिपाए पर सच्चाई कहीं न कहीं प्रकट हो ही जाती है … जरा आलेख की कुछ पंकियां देखिये .. एक स्थान पर माननीय वामपंथी चिन्तक लिखते हैं कि ”भारत धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी लोकतांत्रिक देश है।“ पर इसके अगले पैरा में लिखते हैं “यह विभिन्न धर्मों, जातियों, संस्कृतियों को मानने वालों का विविधता से भरा बहुजातीय लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यह बात संविधान में लिखी है।“ संविधान के अनुसार समाजवादी है और विद्वान लेखक के अनुसार पूंजीवादी है … सावन के अंधे को हर ओर हरा ही हरा दीखता है …
    मोहन भागवत के बारे में लेखक का दर्द यह है कि इन्होंने औरतों के बारे में कुछ नहीं कहा और इसका निष्कर्ष निकालते हुए फरमाते हैं कि “संघ एक फासीवादी संगठन है और उसकी औरतों के बारे में एक खास समझ है जो हिटलर के विचारों से मिलती है। वे मानते हैं कि समाज में औरत की परंपरागत भूमिका होगी। वह चौका-चूल्हे और चारपाई को संभालेगी और बच्चे पैदा करेगी। घर की चौखट के अंदर रहेगी। यही वह बिंदु है जिसके कारण मोहन भागवत जी ने औरतों की समस्याओं पर एक भी शब्द खर्च नहीं किया।“ लेखक का पांडित्य व नीयत स्वयं प्रकट है …. कोई भी भाषण पूरा मैनिफेस्टो नहीं होता जिसमें हर बिंदु को उठाना आवश्यक हो … किसी बिन्दू पर ना बोलने का अर्थ कदापि वह नहीं होगा जो लेखक लगा रहे हैं …. अपनी बात कहने का लेखक के पास कोई ठोस सबूत नहीं है … पर उद्देश्य है संघ के खिलाफ कुछ लोगों को बरगलाना … आडवाणी और वाजपेयी को संघ के राजनैतिक पुत्र कहने वाले चतुर्वेदी महोदय के तर्क पर सुषमा स्वराज को राजनैतिक पुत्री कहना चाहिए .. इस पुत्री को देख कर कोई अक्ल का अंधा और गाँठ का पूरा भी यह नहीं मानेगा कि “संघ के अनुसार समाज में औरत की परंपरागत भूमिका होगी। वह चौका-चूल्हे और चारपाई को संभालेगी और बच्चे पैदा करेगी। घर की चौखट के अंदर रहेगी।“ लेखक की मान्यता अल्पज्ञान पर आधारित लगती है अन्यथा उनको पता होता कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्य महिलाओं में राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से चलता है जिनकी प्रतिदिन चलने वाली शाखाओं में महिलाओं व युवतियों को कुकिंग क्लासों के स्थान पर जूडो कर्राटे सिखाए जाते है …. छत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई इनका आदर्श है जिन्होंने बच्चा पैदा करने के बाद उसे संस्कारित करके शिवाजी के रूप में एक महान सपूत भारत माँ को दिया …
    लेख में अनाप शनाप अनेकों बिंदु हैं .. परन्तु जब साफ़ साफ़ दिखाई देता हो कि लेख का उद्देश्य या लेखक की नीयत एकपक्षीय है तो तर्क विधान बेमानी है …
    ….. गोपाल कृष्ण अरोड़ा

  10. चतुर्वेदीजी महाराज, मोहन भागवत क्या बोल रहे हैं और उस पर आप क्या भडास निकाल रहे हैं उससे मुझे कोई मतलब नहीं,पर इसी बीच आप हिंदुत्व के बारे में क्या अंत संत बक गए,इसका अंदाजा भी आपको है?हिंदुत्व किसी मोहन भागवत या किसी चतुर्वेदी की धरोहर नहीं है.यह तो एक ऐसी विचारधारा या यों कहिये की ऐसी जीवन पद्धति है,जिसको आप समझ जाएँ और उसके अनुसार चले तो अन्य किसी वाद को अपनाने की आपको आवश्यकता ही नहीं है.उसके लिए आपको गीता से लेकर विवेकानंद और उसके बाद डाक्टर राधाकृष्णन को पढ़ना और समझना होगा.आपके मार्क्स के अनीश्वरवाद को समझने के लिए एकबार आपको महर्षि कपिल तक जाना पडेगा.आपने अपने आगे वाले आलेख में उल्लेख किया है की आप संस्कृत विद्वानों और संघियों के संपर्क में रहे हैं.मैं नहीं जानता की हिन्दू दर्शन और हिंदुत्व के बारे में उन महानुभाओं को कितना मालूम था.मैं खुद नास्तिक हूँ पर गीता का कर्मंवे अधिकार्स्तु मां फलेसु कदाचन मेरे जीवन का मूल मंत्र है.चतुर्वेदीजी आप विद्वान् हो सकते हैं पर पूर्वाग्रह से युक्त होकर सर्वज्ञ दिखने की कोशिश मत कीजिये.आप यह मान कर चलिए की आप सर्वज्ञ नहीं हैं.मेरे विचार से हिंदुत्व एक ऐसा गहन विषय है जिसकी आलोचना में मुंह खोलने के पहले आप लोगों को एकबार दर्पण अवश्य देख लेना चाहिए.

  11. शुक्लजी का परामर्श की चतुर्वेदीजी किसी योग्य मनोचिकित्सक से अपने रोग का निदान व उपचार करवाएं सदाशयता पूर्ण तो है परन्तु लाभकारी होगा इसमें मुझे संशय है.चतुर्वेदीजी एक असाध्य रोग से पीड़ित हैं जिस में रोगी की स्मरण शक्ति और विचार शक्ति तथा विवेक पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं और रोगी पहले से पढाये गए पाठ ही दोहरा सकता है. यदि देश के सौभाग्य से बंगाल से वाम पंथ का शासन समाप्त हो जाता है और कोई राष्ट्रवादी पार्टी सत्ता में आजाये तो शायद चतुर्वेदीजी का रोग दूर होने की संभावना नज़र आने लगे .

  12. jagdishwar ji apka lekh padha ap vidwan hai lekin apka lekhan itana purvagrah se bhara hua hai jaise lagta hai ki koi kisi ki dalali me likh raha hai.m,ai ghor samajwadi hu to kya lalu aur paswan ke osama-bin laden ka hamshkl le ker chunaw ke manch per batha ker vote musalmano ko kuon gaddar bata raha hai apka fasist sangh ya congress,lalu aur paswan ka dharmnirpech dal dusari bat servochch nyayalay ne kaha hai ki hindutwa koi dharm nahi hai ek jiwanpadhati hai ap nyayalay ka bhi anader ker rahe hai.aur kis adhar per sangh ko fasist kah rahe hai ap jaise tathakathit budhjiwio se puchana chahta hu ki kya emerjency laga ker bujurgo se ler ker bachcho tak ki badhia karne wali congress ko kyo nahi fasist kahte.sirf adalat se chunaw kharij hone per pure desh ko bandhak bana lakho logo ko begar mukadama chalaye jail me dal dena mere khyal se to hitalar ka vichar hi nahi acharad bhi hai usper ap kyonahi kuch bolate.akhir sangh ko kis adhar per fasist fsist likh rahe hai.musalmano ki alag se tel malis kya hai jise pura dharmnirpech dal hod lagaye hai ki kiska khali mil;e ki ham malis me lage yahi dhasrmnirpechata hai. aur ager musalmano me rashtriy bhawanao ka sanchar karna fasist hone ki nishani hai ti yakin maniye pura desh apke sath hai ha sirf vote aur chapas rog ka ilaj to shayad hakim luknman ke pas bhi nahi hoga.ager sangh fasist hotya to abtak ap bolane layak nahi rahte likhana to bahut dur ki bat hai.hamari bhi umar 60 ke as-pas hai lekin maine to koi khas uidahrad fasist hone ka nahi dekha.r.s.s.ke samaj ke liye kiye jane wale prayaso ko apjaise log nahi dekh sakte kyoki aplog tushtikard ke chasme se dekhate hai.varna apse bahut-bhut kabil log isi RSS ke madhyam se apni puri jindagi khapa dete hai lekin sirf prachar ke liye nahi jaise ap RSS ko galia likhe ja rahe hai.ap samvidhan ki bat karte hai to samvidhan ke kis act me likha hai ki samajik sangthan rajneet ke bare me nahi bol sakta.sam,vidhan me samajvadi desh bhi hai kis kod se yaha samajwad araha hai ager apki nigah me ho to jara ham bhi dekhana chahege.ek hi khandan ka shasan kya hai loktantr ya rajshahi jiske aplog samarthak hai.kya 40-50 sal rajneet ke anubhavi pradaw mukharji aur arjun singhjaise logo ko rahul gandhi ka juta uthawana hi loktantr ki nishani hai.mere khyal se apko kuch mansik pareshani hai jaise kuch logo ko bar-bar safai ki adat ho jati hai,ya her kisi bst per shak hon e lagta hai yah bhi mansik samsya hai aur iska ilaj hai kuch din me hi log normal ho jate hai.bura mat maniega aur anytha mat lijiyega sandeh ho to hal-chal bata ker kisi manochikitsak se puch lijiega aur sawsth hone ke bad apko khud mahsus hoga ki ham kitani galtfahmi me ek achekhase santhan ko galiya diya ja rahe the jisaka koi adhar nahi tha.ek bar fir chamyachana ke sath anurodh karuga ki ap lapervahi bilkul; mat kijie tatkal kisi manochikitsak se mile ager uttar pradesh ke ho to ek pata bhi bata raha hu chahe to note ker le yaha NIRVAN namak mansik chikitsalay hai jaha nashe ka ilaj bhi hota hai mansik vikaro ka bhi

  13. डा चतुर्वेदी जी सदाके सामान पूर्वाग्रहों से भरा लेख है. हिंदुत्व के विरुद्ध आपकी कट्टर सोच, हिंदुत्व से घृणा बार-बार अभिव्यक्त हो रही है.
    – मुझे लगता है की आपके इन आलेखों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व को भारी लाभ मिल रहा है.
    बुद्धीमान पाठकों को स्पष्ट नज़र आ रहा है की ‘वामपंथी’ हिन्दू समाज व विचार से कितना विद्वेष व शत्रु भाव रखते हैं, यही तो इस विचारधारा को मानने वालों के बारे में भारतवासियों को बतलाने की ज़रूरत है जो आप बड़ी मेहनत से कर रहे हैं. इस प्रकार आप हिंदुत्व के समर्थकों और संघ का काम आसान कर रहे हैं. वामपंथियों की असलियत को उजागर करने के लिए आपका धन्यवाद.
    – काश आप सरीखे लेखनी के धनी सज्जन हिंदुत्व के अमूल्य तत्वों को समझने का सौभाग्य प्राप्त कर पाते तो आपका कल्याण होता और आपके कारण देश व समाज का भी भला होता. ईश्वर करे की ऐसा हो, मेरी शुभकामनाएं. वैसे एक छोटा सा निवेदन है की कभी ईशावास्योपनिषद को पढ़ कर देख लें. केवल हिन्दू धर्म की प्रमाणिक आलोचना के लिए ही पढ़ लें. शायद आपको कुछ हिंदुत्व की समझ मिल जाए ?

  14. जगदीशजी संघ को समझने के लिए संघ का होना पड़ता है मेरी माने तो aaj से ही शाखा jana शुरू करे

  15. जगदीश जी , आप ने स्वयम अपने लेख में स्वीकार किया हैं की संघ प्रमुख ने जो बातें अपने अभिभाषण में कही हैं वो समाज से जुडी हैं तो संघ फिर कैसे अपनी कार्य पद्धति और अभिव्यक्ति से सामाजिक संघटन नहीं हैं | आप को एक बार अवश्य संघ के शाखा स्थान पर जाकर स्वयं अनुभव करना चाहिए की संघ क्या हैं सामाजिक सघटन या फिर एक फासीवादी राजनीतिक संघटन|

  16. aadarneey jagdeeshwarji ka aalekh spst hai. sangh ke vijayadashmi karykrm men mohan bhagvat ji ka smbodhan padhkar koi bhi saamaany vuddhi ka insaan samajh sakta hai ki yh vishuddh rajneetik bhashan hai…sanghiyon ko sweekar karne men kya pareshaani hai ve jaane.kintu yh sach hai ki sangh ki yh rajnetik soch desh ki un smsyaon ke kaaran hai jo uski auras santaan yane bhajpa poore nahin kar paai .ab mera to yhi maanana hai ki sangh ko swym rajneeti khulkar karna chahiye .or bhajpa men baithe poonji ke dalalon ,amerika ke piththuon ko nikal bahar karna chaahiye .
    bharat men rajneet ke teen dhruv bante nazar aa rahe hain.rss ko chahiye ki desh hit men sabhi se smpark kare.

  17. जगदिश्वर…सामाजिक और राजनितिक का अंतर समझ ले..सर्संघ्ह्क्लाक ने रस्त्रनीति पर बोलला राजनीती पर नाही.

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