राजनीति

ढहता आंदोलन, बदलते चरित्र

-आशीष कुमार ‘अंशु’

कल्पना कीजिए आप एक खास वैचारिक आंदोलन से प्रेरित संगोष्ठी में हिस्सा लेने जाते हैं। जहां यह गोष्ठी तय है, वह मई की चिलचिलाती गर्मी में दिसम्बर बना हुआ है। बाहर और अंदर के तापमान में जमीन आसमान का अंतर है।

इसी कार्यक्रम में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रतिनिधि भी अपनी बात रखने के लिए शामिल होते हैं, जिनकी नीतियों से आप बिल्कुल सहमत नहीं हैं और गोष्ठी में शामिल आधे से अधिक लोग उसके घोर विरोधी हैं। बाकि बचे प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो कागजी, जुबानी और इंटरनेटी तौर पर उस कंपनी का विरोध करते हैं। इस तरह के विरोधी अपनी जाया हुई ऊर्जा की पूरी कीमत वसूलना जानते हैं। लेकिन इस कार्यक्रम में शामिल बहुत से प्रतिशत लोग अब भी ‘लड़ेंगे और जीतेंगे’ धारा में विश्वास करने वाले हैं। इसीलिए वे बाहर और अंदर के तापमान में आए इस भारी अंतर का गणित समझ नहीं पाए और उन्होंने उस कंपनी के एजेंट का भरी सभा में विरोध किया। उसे बोलने नहीं दिया। और उसके जाने के बाद उन्होंने एक दूसरे की पीठ थपथपाईं कि ये आयोजन उनकी ‘हूटिंग’ से सफल हुआ। उनकी सोच थी कि यह प्रतिनिधि इस गोष्ठी से अपने लिए सबक और अपने आकाओं के लिए संदेश लेकर जाएगा।

दिन में खाने की टेबल से लेकर शाम में चाय बिस्किट के साथ विदाई तक अपने प्रतिकात्मक विरोध पर एक दूसरे को बधाई देते वे लोग, बहुराष्ट्रीय कंपनी के एजेन्ट के बैरंग वापसी को अपनी जीत मानते वे लोग। बेहद खुश थे।

कायदे से गोष्ठी प्रकरण को यहीं खत्म होना चाहिए था। लेकिन दो दिनों के बाद इस कहानी में नया मोड़ उस वक्त आया जब प्रतिभागियों को इस बात की जानकारी मिली की पिछले दिनों दो दिन की जिस गोष्ठी में वे हिस्सा लेने गए थे, वहां उनके चाय, नाश्ते, खाने से लेकर प्रतिभागियों के यात्रा व्यय और वक्ताओं को मिले हजार – दो हजार रुपए के लिफाफे तक का प्रायोजक वही बहुराष्ट्रीय कंपनी थी, जिसका पिछले दिनों गोष्ठी में उपस्थित अधिकांश लोगों ने विरोध किया था।