विचारों की बंद गली में नहीं रहते मुसलमान

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कारपोरेट मीडिया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर इस्लाम और मुसलमान को जानने की कोशिश करने वालों को इनके बारे में अनेक किस्म के मिथों से गुजरना पड़ेगा। मुसलमान और इस्लाम के बारे में आमतौर पर इन दिनों हम जिन बातों से दो-चार हो रहे हैं वे अमेरिका के संस्कृति उद्योग के कारखाने में तैयार की गई हैं।

अमेरिकी संस्कृति उद्योग ने मिथ बनाया है इस्लाम का अर्थ है अलकायदा,तालिबान या ऐसा ही कोई आतंकी खूंखार संगठन। दूसरा मिथ बनाया है मुसलमान का । इसका अर्थ है बम फोड़ने वाला, अविश्वनीय, संदेहास्पद, हिंसक, हत्यारा, संवेदनहीन, पागल, देशद्रोही, हिन्दू विरोधी, ईसाई विरोधी, आधुनिकताविरोधी, पांच वक्त नमाज पढ़ने वाला आदि। तीसरा मिथ बनाया है इस्लाम में विचारों को लेकर मतभेद नहीं हैं। मुसलमान भावुक धार्मिक होते हैं। ज्ञान-विज्ञान, तर्कशास्त्र, बुद्धिवाद आदि से इस्लाम और मुसलमान को नफ़रत है। मुसलमानों के बीच में एक खास किस्म का ड्रेस कोड होता है। बढ़ी हुई दाढ़ी, लुंगी, पाजामा, कुर्ता, बुर्का आदि।

कहने का अर्थ यह है कि अमेरिकी संस्कृति उद्योग के कारखाने से निकले इन विचारों और मिथों के आधार पर मुसलमान और इस्लाम को आप सही रूप में नहीं जान सकते। इन मिथों को नष्ट करके ही इस्लाम और मुसलमान को सही रूप में जान और समझ सकते हैं। कारपोरेट मीडिया और अमेरिकी संस्कृति उद्योग द्वारा निर्मित मिथों के परे जाकर मुसलमान और इस्लाम को सहानुभूति और मित्रता के आधार पर देखने की जरूरत है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विभिन्न तरकीबों के जरिए विगत 60-70 सालों में सारी दुनिया में मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ जहरीला प्रचार करने के लिए दो स्तरों पर काम किया है। पहला है प्रचार या प्रौपेगैण्डा का स्तर। दूसरा, विभिन्न देशों में मुसलमानों में ऐसे संगठनों के निर्माण में मदद की है जिनका इस्लामिक परंपराओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस काम में अनेक इस्लामिक देशों खासकर सऊदी अरब के सामंतों के जरिए रसद सप्लाई करने का काम किया गया है,इसके अलावा अनेक संगठनों को सीधे वाशिंगटन से भी पैसा दिया जा रहा है। आज भी तालिबान और दूसरे संगठनों को सीआईए, पेंटागन आदि एजेंसियां विभिन्न कारपोरेट कंपनियों के जरिए मदद पहुँचा रही हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद और संस्कृति उद्योग की इस्लाम और मुसलमान के विकृतिकरण में भूमिका की अनदेखी करके इस्लाम पर कोई भी बात नहीं की जा सकती। अमेरिकापंथी और यहूदीवादी कलमघिस्सुओं के द्वारा निर्मित मिथों को नष्ट करके ही इस्लाम और मुसलमान के बारे में सही समझ बनायी जा सकती है। इस संबंध में इस्लामिक देशों की देशज दार्शनिक, धार्मिक परंपराओं और आचारशास्त्र का भी ख्याल रखना होगा।

संस्कृति उद्योग ने मिथ बनाया है कि इस्लाम में दार्शनिक मतभेद नहीं हैं। यह बात बुनियादी तौर पर गलत है। इस्लाम दर्शन को लेकर इस्लामिक विद्वानों में गंभीर मतभेद हैं। समस्या यह यह है कि हम इस्लाम और मुसलमान को नक्ल के आधार पर देखते हैं या अक्ल के आधार पर देखते हैं? अमेरिका के संस्कृति उद्योग ने नक्ल यानी शब्द या धर्मग्रंथ के आधार पर इस्लाम और मुसलमान को देखने पर जोर दिया है और इसके लिए उसने इस्लाम में पहले से चली आ रही नक्लपंथी परंपराओं का दुरूपयोग किया है, उन्हें विकृत बनाया है। इस्लाम में अक्ल के आधार पर यानी बुद्धि और युक्ति के आधार पर देखने वालों की लंबी परंपरा रही है। इसे सुविधा के लिए इस्लाम की भौतिकवादी परंपरा भी कह सकते हैं।

राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक ग्रंथ में कुरान के बारे में लिखा है कि ‘‘कुरान की भाषा सीधी-सादी थी। किसी बात के कहने का उसका तरीका वही था,जिसे कि हर एक बद्दू अनपढ़ समझ सकता था।इसमें शक नहीं उसमें कितनी ही जगह तुक,अनुप्रास जैसे काव्य के शब्दालंकारों का ही नहीं बल्कि उपमा आदि का भी प्रयोग हुआ है, किन्तु वे प्रयोग भी उतनी ही मात्रा में हैं, जिसे कि साधारण अरबी भाषाभाषी अनपढ़ व्यक्ति समझ सकते हैं।’’ यानी कुरान की जनप्रियता का कारण है उसका साधारणजन की भाषा में लिखा होना।

पैगम्बर साहब ने जैसा सोचा और लिखा था उसी दिशा में इस्लामिक दर्शन का विकास नहीं हुआ बल्कि इसकी धारणाओं और मान्यताओं में दुनिया के संपर्क और संचार के कारण अनेक बुनियादी बदलाव भी आए हैं। राहुलजी ने लिखा है ‘‘पैगंबर के जीते-जी कुरान और पैगंबर की बात हर एक प्रश्न के हल करने के लिए काफी थी। पैगंबर के देहान्त (622ई.) के बाद कुरान और पैगंबर का आचार (सुन्नत या सदाचार) प्रमाण माना जाने लगा। यद्यपि सभी हदीसों (पैगंबर-वाक्यों, स्मृतियो) के संग्रह करने की कोशिश शुरू हुई थी,तो भी पैगंबर की मृत्यु के बाद एक सदी बीतते-बीतते अक्ल (बुद्धि) ने दखल देना शुरू कर किया, और अक्ल (बुद्धि, युक्ति) और नक्ल (शब्द, धर्मग्रंथ) का सवाल उठने लगा। हमारे यहां के मीमांसकों की भांति इस्लामिक मीमांसकों -फिक़ावाले फ़क़ीहों- का भी इस पर जोर था कि कुरान स्वतः प्रमाण है, उसके बाद पैगंबर-वाक्य तथा सदाचार प्रमाण होते हैं।’’

फ़िक़ा के चार मशहूर आचार्य हुए हैं। इमाम अबू हनीफा,इमाम मालिक,इमाम शाफ़ई और इमाम अहमद इब्न-हंबल। हनफ़ी और शाफ़ई दोनों मतों में क़यास या दृष्टान्त के द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने पर जोर दिया गया। इमाम अहमद इब्न हंबल ने हंबलिया सम्प्रदाय फ़िक़ा की नींव ड़ाली और कहा कि ईश्वर साकार है।

जबकि इमाम शाफ़ई (767-820ई.) ने शाफ़ई नामक फ़िक़ा सम्प्रदाय की नींव ड़ाली और सुन्नत या सदाचार पर ज्यादा जोर दिया। इसके अलावा इमाम अबू-हनीफ़ा ( 767ई.) कूफा (मेसोपोतामिया) के रहने वाले थे, इनके अनुयायियों को हनफ़ी कहा जाता है। इनका भारत में बहुत जोर है। जबकि इमाम मालिक (715-95ई.) मदीना निवासी थे। इनके अनुयायी मालिकी कहे जाते हैं। स्पेन और मराकों के मुसलमान पहले सारे मालिकी थे। इमाम मालिक ने पैगंबर-वचन(हदीस) को धर्मनिर्णय में बहुत जोर के साथ इस्तेमाल किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि विद्वानों ने हदीसों को जमा करना शुरू कर दिया, और हदीसवालों (अहले-हदीस) का एक प्रभावशाली समुदाय बन गया।

इस्लाम में मतभेदों यानी फित्नों की लंबी परंपरा है। सैंकड़ों सालों से इस्लाम में दार्शनिक वाद-विवाद चल रहा है। वे विचारों की बंद गली में नहीं रहते। वहां पर दुनिया के विचारों की रोशनी दाखिल हुई है। साथ ही इस्लाम ने दुनिया के अनेक देशों की संस्कृति और सभ्यता को प्रभावित किया है। अन्य देशों की संस्कृति और सभ्यता से काफी कुछ ग्रहण किया है।

अमेरिकी संस्कृति उद्योग का मानना है कि इस्लाम इकसार धर्म है। यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। राहुलजी के अनुसार इस्लाम में दार्शनिक स्तर पर मतभेद रखने वाले चार बड़े सम्प्रदाय हैं। ये हैं, 1.हलूल – जिसकी नींव इब्न-सबा (सातवीं सदी) ने रखी थी। इब्न-सबा यहूदी धर्म त्यागकर मुसलमान बना था। वह हजरत अली (पैगंबर के दामाद) में भारी श्रद्धा रखता था। इसने हलूल (अर्थात जीव अल्लाह में समा जाता है) का सिद्धांत निकाला था। इब्न-सबा के बाद सीआ और दूसरे सम्प्रदाय पैदा हुए, यह पुराना सीआ सम्प्रदाय है, इनमें उस वक्त ज्यादातर मतभेद कुरान और पैगंबर-सन्तान के प्रति श्रद्धा और अश्रद्धा पर निर्भर थे। सीआ लोगों का कहना था कि पैगंबर के उत्तराधिकारी होने का हक उनकी पुत्री फातिमा और अली की सन्तान को है। कालान्तर में सन् 1499-1736 के बीच में ईरान में सफावी वंश के शासन के दौरान सीआ मत को राज-धर्म घोषित कर दिया गया। इन लोगों ने मोतज़ला और सूफियों से अनेक बातें ग्रहण कीं।

इस्लाम धर्म में दूसरा बड़ा नाम है अबू-यूनस् ईरानी (अजमी) का। यह पैगंबर के साथियों (सहाबा) में से था। इसने यह सिद्धांत निकाला कि जीव काम करने में स्वतंत्र है,यदि काम करने में स्वतंत्र न हो, तो उसे दण्ड नहीं मिलना चाहिए।

तीसरा नाम है जहम बिन्-सफ़वान का। उनका कहना था अल्लाह सभी गुणों या विशेषणों से रहित है।यदि उसमें गुण माने जाएंगे तो उसके साथ दूसरी वस्तुओं का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इनके विचार कुछ मामलों में शंकराचार्य से मिलते -जुलते हैं। इस्लाम में चौथा मतवाद अन्तस्तमवाद (बातिनी) ईरानियों (अजमियों) का था। इनके अनुसार कुरान में जो कुछ कहा गया है उसके दो अर्थ दो प्रकार के होते हैं- एक है बाहरी (जाहिरी) ,दूसरा है बातिनी (आन्तरिक या अन्तस्तम)। इस सिद्धान्त के अनुसार कुरान के हर वाक्य का अर्थ उसके शब्द से भिन्न किया जा सकता है, तथा इस प्रकार सारी इस्लामिक परंपरा को ही उलटा जा सकता है। इस सिद्धांत के मानने वाले जिन्दीक़ कहे जाते हैं। जिनके ही तालीमिया(शिक्षार्थी), मुलहिद्, बातिनी, इस्माइली आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं। आगाखानी मुसलमान इसी मत के अनुयायी हैं।

2 COMMENTS

  1. बहुत अच्छा
    काफी जानकारी जुटाई है चतुर्वेदी जी
    अँधेरे में उजियारे का काम किया है
    कारपोरेट मीडिया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर इस्लाम और मुसलमान को जानने की कोशिश

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