नागार्जुन जन्मशती पर विशेष – कविता में लोकतंत्र

कविता का नया अर्थ है लोकतंत्र का संचार। अछूते को स्पर्श करना। उन विषयों पर लिखना जो कविता के क्षेत्र में वर्जित थे। प्रतिवादी लोकतंत्र के पक्ष में कविता का जितना विस्तार होता गया वह उतना ही लोकतांत्रिक होती गयी। कविता में लोकतंत्र का अर्थ है कविता और माध्यमों की पुरानी सीमाओं का अंत। लोकतंत्र का अर्थ है अनंत सीमाओं तक कविता के आकाश का विस्तार। कविता की पुरानी

संरचनाओं का अंत।

कविता के लिए पहले राजनीति बेमानी थी,कविता ने अपना छंद बदला राजनीति को अपना लिया। कविता में पहले प्रकृति,श्रृंगार और शरीर की लय का सौंदर्य था। आज कविता इनके पार समूचे मानवीय कार्य-व्यापार तक अपना दायरा विकसित कर चुकी है।

कविता में आज भेद खत्म हो चुका है। पहले कविता में विषयों को लेकर भेदभाव था ।आज ऐसा नहीं है। कविता ने अछूते विषयों की विदाई कर दी है। कविता में पहले अर्थ छिपा होता था। अर्थ और संरचनाएं रहस्यात्मक होते थे। उन्हें खोलना होता था। अर्थ खोजने पड़ते थे। आलोचक-शिक्षकरूपी मिडिलमैन की जरूरत होती थी। आज कविता को किसी मिडिलमैन की जरूरत नहीं है।

कविता की आंतरिक संरचनाओं का वि-रहस्यीकरण हुआ है। कविता और उसके अर्थ आज ज्यादा पारदर्शी हैं। कविता का जीवन संघर्षों के साथ सघन संबंध स्थापित हुआ है। कविता पहले प्रशंसा में लिखी जाती थी आज यथार्थ पर लिखी जाती है। कविता में जीवन की आलोचना का आना कविता के लोकतांत्रिक होने का संकेत है।

कविता को पहले मिथों की जरूरत थी आज कविता मिथों को तोड़ती है। कविता में मिथों का लोप हो चुका है। मिथों की जगह जीवन का यथार्थ आ गया है। जीवनशैली के प्रश्न आ गए हैं। पहले कविता में अप्रत्यक्ष वर्चस्व हुआ करता था इनदिनों कविता का वर्चस्व के खिलाफ जमकर विस्तार हुआ है।

पहले कविता मनोरंजन का साधन थी,आज कविता जीवन की प्राणवायु है। कविता ने तरक्की की है वह सहज ही हमारी दैनंदिन सांस्कृतिक आस्वाद प्रक्रिया का हिस्सा बन गयी है।

पहले कविता लेखक और पाठक तक सीमित थी,आज उसने संस्कृति उद्योग तक अपना विस्तार कर लिया है। पहले कविता मुद्रण तक सीमित थी आज वह ऑडियो-वीडियो ,नेट ,वेब तक फैल गयी है। कविता का इतना फैलाव होगा हमने कभी सोचा नहीं था। यह सच है सभ्यता के विकास के साथ कविता का भी विकास हुआ है। कविता मरी नहीं है बदली है। हमें इसकी बदली हुई धुन और मिजाज को पकड़ना होगा।

आज पुराने काव्यमानकों के आधार पर कविता नहीं लिख सकते। यदि लिखोगे तो कोई पढ़ेगा नहीं। कविता के इस बदले मिजाज पर व्यंग्य करते हुए बाबा ने लिखा- “वो रूठ गई है/उसे परेशान मत करो/जाने किस मुहूर्त्त में/उसे अपमानित किया था तुमने /तुम्हारी धुली मुस्कान पे/ उसे घिन आती है…/आपके शब्दालंकार/भुस की बोरियाँ हैं उसके लिए/प्लीज,हट जाओ सामने / उसे परेशान मत करो आप/अभिधा-लक्षणा-व्यंजना/सबकी सब सहेलियाँ हैं उसकी/सबकी सब…/उसे खो चुके हो आप,सदा-सदा के लिए !”

कविता के बदले पैराडाइम में नया है कविता में अछूते विषयों और नए माध्यमों का आना। इसका एक नमूना देखें- “जन्म लिया /मेरे काव्य शिशु ने/गहन रात्रि में/क्या किसी ने सुना उसका क्रन्दन/क्या किसी ने सुना उसका आर्त्तनाद/मैं स्वयं ही इस नवजात की धात्री/मैं स्वयं ही इस नवजात की जननी/जन्म लिया है /मेरे शिशु ने /गहन रात्रि में।”

3 COMMENTS

  1. बाबा नागार्जुन को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा है पर पता नहीं शुरू से ही मैं उनसे कुछ ऐसा लगाव महसूस करता हूँ की अगर कोई कुछ भी उनकी याद में लिखता है तो मुझे अच्छा लगता है.चतुर्वेदीजी का यह आलेख भी मेरे लिए उसी श्रेणी में आता है,ऐसे चतुर्वेदीजी अपने प्रिय विषय से हटकर कुछ लिखते हैं तो वे ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं. यह लेख मेरे विचार से उसी विश्वसनीयता को दर्शाता है.

  2. बाबा नागार्जुन …आपको नमन ….खेद है की अँधेरा कायम है ….आपने जो संभावना की ज्योति प्रज्वलित की थी वह थरथराने लगी है …तेज आंधियां और तूफ़ान मदमस्त हो रहे है …..गहनतम गहराता जा रहा है ..शुक्र है की …चतुर्वेदी जी आप के दीयों में तेल बाती की भरपाई कर रहे हैं .

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