देवर्षि नारद के सवालों में हैं सुशासन के मंत्र

नारद जयंती (19 मई) पर विशेष

आज की राजनीति की प्रेरणा बन सकता है यह संवाद

-प्रो.बृज किशोर कुठियाला

महाराजा युधिष्ठिर की अद्वितीय सभा में देवर्षि नारद धरमराज की जय-जयकार करते हुए पधारे। उचित स्वागत व सम्मान करके धर्मराज युधिष्ठिर ने नारद को आसन ग्रहण करवाया। प्रसन्न मन से नारद ने युधिष्ठिर को धर्म-अर्थ-काम का उपदेश दिया। यह उपदेश प्रश्नों के रूप में है और किसी भी राजा या शासक के कर्तव्यों की एक विस्तृत सूची है। नारद ने कुल 123 प्रश्न किये, जो अपने आप में एक पूर्ण व समृद्ध प्रशासनिक आचार संहिता है। यह प्रश्न जितने प्रासांगिक महाभारत काल में थे उतने या उससे भी अधिक आज भी हैं। महात्मा गांधी ने जिस रामराज्य की कल्पना की थी उसका व्यवहारिक प्रारूप इन प्रश्नों से स्पष्ट झलकता है। स्वभाविक है कि महाभारत और रामायणकाल की उत्कृष्ठ भारतीय संस्कृति में हर व्यक्ति के कर्तव्यों का दिशा बोध हो। यह कर्तव्य केवल ऐसे निर्देश नहीं थे जिनको करना नैतिक या वैधानिक रूप से अनिवार्य था परन्तु यह ऐसा मार्गदर्शन था जिससे व्यक्ति भौतिक और सांसारिक विकास के साथ आध्यात्मिक विकास की ओर भी अग्रसर होता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘गुड गवर्नेंस’ अर्थात सुशासन की चर्चाएं स्वाभाविक रूप से आवश्यक है। क्योंकि प्रशासन की जो भी व्यवस्थाएं प्रचलित हैं वे सब असुरी प्रवृत्तियों की द्योतक हैं। प्रजातंत्र को भी संख्याओं का ऐसा खेल बना दिया गया है जो श्रेष्ठवान और गुणवान के पक्ष में न होकर कुटिलता और चातुर्य के स्तंभों पर खड़ा है। नौबत यहां तक आ गई है कि व्यवहार की शुचिता लुप्त हो गई और शासन करना एक व्यापार हो गया। स्वाधीनता के 60 वर्ष के बाद देश में व्यापक समस्याओं के लिए विदेशी ताकतों को दोष देना उचित नहीं है। आज हम जैसे हैं, जो हैं उसके लिए हम स्वयं जिम्मेवार हैं।

वे क्या कारण हैं कि अंग्रेजी हुकूमत को हटाकर उनकी अधीनता समाप्त करके स्वाधीनता तो ली परंतु उनके तंत्रों को ही अपनाकर न तो हमने गणतंत्र बनाया और न ही हम स्व-तंत्र के निर्माता हो सके। प्रजातंत्र के नाम पर हमने अपने राजाओं के चुनाव की ऐसी प्रणाली बनाई जो श्रेष्ठता, गुणवत्ता, निष्ठा व श्रद्धा की अवहेलना करती है और अधर्म, भेद, छल, प्रपंच व असत्य पर आधारित है। एक बीमार राजनीतिक व्यवस्था तो हमने बना ली परंतु प्रशासनिक व्यवस्थाएं ज्यों-की-त्यों अपना ली। आईसीएस की जगह आईएएस हो गया परंतु भाव वही रहा। क्या कारण हैं कि जिले का वरिष्ठतम ‘पब्लिक सर्वेंट’ अधीक्षक कहलाता है। अंग्रेजी में तो इस पद का नाम और भी व्याधि का द्योतक है। जिले का सर्वोत्तम अधिकारी या तो कलेक्टर कहलाता है या फिर डिप्टी कमिश्नर। कलेक्टर अर्थात येन-प्रकेण धन और संपदा एकत्रित करना। कमिश्नर शब्द को यदि कमीशन से जोड़े तो भ्रष्टाचार तंत्र की आत्मा हो जाता है। इसका एक अर्थ दलाली और आढ़त भी है और दूसरा अर्थ अधिकृत अधिकारी है। कहीं भी शब्द में विकास, उत्थान, सेवा आदि की खुशबू नहीं है। शिक्षा की व्यवस्था देखने वाला व्यक्ति शिक्षा अधिकारी है। आचार्य या प्राचार्य गुरू या गुरू नहीं है। इसी तरह से न्यायपालिका का पूरा तंत्र वैसा ही है जैसा अंग्रेजों ने देश को गुलाम बनाये रखने के लिए बनाया। ऐसी व्यवस्थाएं पूर्ण रूप से स्थापित हैं जो एक पूरे देश को पराधीन और दास के रूप में रखने के लिए बनी थी। उन्हीं तंत्रों से सुशासन की अपेक्षा करना शेखचिल्ली की सोच हो सकती है। समझदार और विवेकशील की नहीं। यदि यह सोचकर चलेंगे कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत ही उचित है तो भारत देश में सुशासन नहीं हो सकता।

स्वाधीनता के बाद नयी व्यवस्थाओं के बनाने की अनिवार्यता तो सब ने मानी परंतु नये का आधार तत्कालीन व्यवस्थाओं में ही स्तरीय परिवर्तन करके किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय समाज के प्राचीन अनुभव और ज्ञान को ध्यान में रखा गया होता तो शायद आज देश की यह स्थिति न होती। लगभग हर प्राचीन भारतीय ग्रंथ में व्यक्ति, परिवार, समुदाय, समाज, प्रशासक, अधिकारी आदि के कर्तव्यों की व्याख्याएं हैं। यह व्याख्याएं केवल सैद्धांतिक हों ऐसा भी नहीं है। कृष्ण की द्वारका की व्यवस्थाएं, धर्मराज युधिष्ठिर का राज हो या राम का प्रशासन सैद्धांतिक पक्ष का व्यवहारिक पक्ष भी इन ग्रंथों में पर्याप्त मात्रा में प्रदर्शित है।

व्यास ने नारद के मुख से युधिष्ठिर से जो प्रश्न करवाये उनमें से हर एक अपने आप में सुशासन का एक व्यावहारिक सिद्धांत है। 123 से अधिक प्रश्नों को व्यास ने बिना किसी विराम के पूछवाया। कौतुहल का विषय यह भी है कि युधिष्ठिर ने इन प्रश्नों का उत्तर एक-एक करके नहीं दिया परंतु कुल मिलाकर यह कहा कि वे ऋषि नारद के उपदेशों के अनुसार ही कार्य करते आ रहे हैं और यह आश्वासन भी दिया कि वह इसी मार्गदर्शन के अनुसार भविष्य में भी कार्य करेंगे। देवर्षि नारद द्वारा पूछे गये प्रश्नों की कुछ व्याख्या प्रासांगिक होनी चाहिए।

हालांकि नारद द्वारा पूछा गया हर प्रश्न अपने आप में सुशासन का एक नियम है। परंतु समझने की सहजता के लिए उन्हें पांच वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रश्नों का पहला वर्ग चार पुरूषार्थों अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से संबंधित है। पहले ही प्रश्न में नारद पूछते हैं ‘‘हे महाराज! अर्थ चिंतन के साथ आप धर्म चिंतन भी करते हैं? अर्थ चिंतन ने आपके धर्म चिंतन को दबा तो नहीं दिया? आगे के प्रश्नों में जहां नारद यह तो पूछते ही हैं कि धन वैभव का लोभ आपके धर्मोपार्जन की राह में रूकावट तो नहीं डालता परन्तु साथ में यह भी कहते हैं कि धर्म के ध्यान में लगे रहने से धन की आमदनी में बाधा तो नहीं पड़ती? साथ ही पूछते हैं कि कही काम की लालसा में लिप्त होकर धर्म और अर्थ के उपार्जन को आपने छोड तो नहीं दिया है? सभी प्रश्नों का मुख्य प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि-आप ठीक समय पर धर्म, अर्थ और काम का सेवन करते रहते हैं न?

दूसरे वर्ग के प्रश्न राजा के सामाजिक विकास के कार्यों से संबंधित हैं। नारद ने आठ राज कार्य बताये और युधिष्ठिर से पूछा की क्या वह इन कार्यों को अच्छी तरह करते हैं? आठ राज कार्य-कृषि, वाणिज्य, किलों की मरम्मत, पुल बनवाना, पशुओं को चारे की सुविधा की दृष्टि से कई स्थानों में रखना, सोने तथा रत्नों की खानों से कर वसूल करना और नई बस्तियां बनाना था। नारद महाराज से यह भी पूछते हैं कि आपके राज्य के किसान तो सुखी और सम्पन्न हैं न? राज्य में स्थान-स्थान पर जल से भरे पडे तालाब व झीलें खुदी हुई हैं न? खेती तो केवल वर्षा के सहारे पर नहीं होती, किसानों को बीज और अन्न की कमी तो नहीं है? आवश्यकता होने पर आप किसानों को साधारण सूद पर ऋण देते रहते हैं न? इन प्रश्नों को सुनकर वर्तमान में किस भारतवासी के मन में घण्टियां नहीं बजेगी और ध्यान उन किसानों की तरफ नहीं जाएगा, जिन्होंने प्रशासनिक सहारा न मिलने के कारण से आत्महत्या की।

प्रश्नों का तीसरा वर्ग राजा के मंत्रियों और अधिकारियों के संबंध में है। नारद ने पूछा कि क्या शुद्ध स्वभाव वाले समझाने में समृद्ध और अच्छी परंपराओं में उत्पन्न और अनुगत व्यक्तियों को ही आप मंत्री बनाते हैं न? विश्वासी, अलोभी, प्रबंधकीय काम के जानने वाले कर्मचारियों से ही आप प्रबंध करवाते हों न? हजार मूर्खों के बदले एक पंडित को अपने यहां रखते हैं या नहीं? आप कार्य के स्तर के आधार पर व्यक्तियों को नियुक्त करते हैं न? शासन करने वाले मंत्री आपको हीन दृष्टि से तो नहीं देखते? कोई अच्छा काम या उपकार करता है तो आप उसे अच्छी तरह पुरस्कार और सम्मान देते हैं न? आपके भरोसे के और ईमानदार व्यक्ति ही कोष, भंडार, वाहन, द्वार, शस्त्रशाला और आमदानी की देखभाल और रक्षा करते हैं न? नारद एक कदम और आगे जाकर पूछते हैं कि कही आप कार्य करने में चतुर, आपके राज के हित को चाहने वाले प्रिय कर्मचारियों को बिना अपराध के पद से अलग तो नहीं कर देते? उत्तम, मध्ययम, अधम पुरूर्षो की जांच करके आप उन्हें वैसे ही कर्मों में लगाते हैं न?

इसी तरह से अनेक प्रश्न प्रजा की स्थिति से संबंधित हैं। प्रजा के कल्याण से संबंधित हैं। नारद पूछते हैं कि हे पृथ्वीनाथ! माता और पिता के समान राज की सब प्रजा को आप स्नेहपूर्ण एक दृष्टि से देखते हैं न? कोई आपसे शंकित तो नहीं रहता है न? क्या तुम स्त्रियों को ढांढस देकर तुम उनकी रक्षा करते हो न? हे धर्मराज! अंधे, गूंगे, लूले, देहफूटे, दीन बंधु और संन्नयासियों को उनके पिता की भांति बन कर पालते तो हो न?

भ्रष्टाचार से ग्रसित आज की राजनेतिक व्यवस्था से प्रासंगिक एक प्रश्न नारद ने पूछा कि समझबूझ कर किसी सचमुच चोरी करने वाले दुष्ट चोर को चुराये माल सहित पकड़कर उस माल के लोभ में छोड़ तो नहीं देते? क्या तुम्हारे मंत्री लोभ में पड़कर धनी और दरिद्र के झगड़े में अनुचित विचार तो नहीं करते?

इसी प्रकार अनेक प्रश्न राजा के व्यक्तिगत आचार, विचार व व्यवहार के विषय में हैं जैसे-आप ठीक समय पर उठा करते हैं? पिछले पहर जागकर आप चिंतन करते हैं? आप अकेले या बहुत लोगों के साथ कभी सलाह तो नहीं करते? आपकी गुप्त मंत्रणा प्रकट होकर राज में फैल तो नहीं जाती? हे महाराज! आपके लिए मरने वाले और विपत्ति में पड़ने वाले लोगों के पुत्र, स्त्री आदि परिवार का भरण-पोषण आप करते रहते हैं न? शरण में आये शत्रु की रक्षा आप पुत्र की तरह करते हैं न? आगे नारद फिर पूछते हैं कि राजा तुम एकाग्र होकर धर्म-अर्थ का ठीक ज्ञान रखने वाले ज्ञानी पुरूषों के उपदेश सुनते रहते हो न? निंद्रा, आलस, भय, क्रोध, ढिलाई और दीर्घ शत्रुता करने वाले इन छः दोषों को तुमने दूर कर दिया है न?

नारद ने अनेकों प्रश्न राज्य की सुरक्षा, जासूसी और शत्रु पर आक्रमण की तैयारी व रणनीति से संबंधी भी किये। ऐसा लगता है कि व्यास ने इन प्रश्नों के माध्यम से न केवल राजाओं या प्रशासकों को उनके कर्तव्यों का बोध कराया परंतु उन्होंने आम प्रजा का भी जाग्रित किया कि उन्हें प्रशासकों से किस प्रकार की अपेक्षाएं करनी चाहिए। वर्तमान में यदि हम सुशासन के लिए कोई कार्य योजना बनाना चाहते हैं तो नारद के प्रश्नों के संदर्भ सुन्दर मार्गदर्शन की क्षमता रखते हैं। एक-एक प्रश्न की विस्तृत विवेचना की आवश्यकता है।

1 COMMENT

  1. आदरणीय कुठियाला जी ने सु-शाशन के बारे में बहुत सुंदर वर्णन किया है. आज की कार्यप्रणाली तो “जितना लूट सकते हो लूट लो” और “अँधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर दे” है. काश आजादी के समय हमने अपना खुद का संविधान बनाया होता तो आज भारत की ऐसी दुर्दशा नहीं होती.

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