दूरूह पथचारी
तुम्हारे पांवों के छालों की कीमत
तुम्हारी अजेय दुर्ग को भेदने की हिम्मत
को नमन!
निशीथ-किरणों से भोर तक
उजाला देखने की उत्कंठा
सटीक निशाने के लिये तनी प्रत्यंचा
महासमर में नीचे पथ से ऊंची आसंदी
तक की जात्रा में लाखों लाख
जयघोष आकाश में
हलचल को जन्म देती जड़-चेतन सभी ने देखी है
तुम्हारी विजय विधाता की लेखी है
उठो.. हुंकारो.. पर संवारो भी
एक निर्वात को सच्ची सेवा से भरो
जनतंत्र और जन कराह को आह को
वाह में बदलो…
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सुनो,
कूड़ेदान से भोजन निकालते बचपन
को संवारो..
अकिंचन के रूखे बालों को संवारो…
देखो रेत मिट्टी मे सना मजूरा
तुम्हारी ओर टकटकी बांधे
अपलक निहार रहा है…
धोखा तो न दोगे
यही विचार रहा है!
मौन है पर अंतस से पुकार रहा है..
सुना तुमने…
वो मोमिन है..
वो खिस्त है..
वो हिंदू है…
उसे एहसास दिला दो पहली बार कि
वो भारतीय है…
उसे हिस्सों में प्यार मत देना
शायद मां ने तुम्हारे सर पर हाथ फ़ेर
यही कहा था… है न…
चलो… अब सैकड़ों संकटों के चक्रव्यूह को भेदो..
तुम्हारी मां ने यही तो कहा था है न!
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विश्व हतप्रभ है…
कौन हो तुम ?
जानना चाहता है..
बता दो.. शून्य का विस्फोट हूं
जो बदल देगा… अतीत का दर्दीला मंज़र…
तुम जिस पर विश्वास किया है..
बता दो विश्व को…
कौन हो तुम!
कह दो कि
पुनर्जन्म हूं…
शेर के दांत गिनने वाले का….
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चलना ही होगा तुमको
कभी तेज़ कभी मंथर
सहना भी होगा तुमको
कभी बाहर कभी अंदर
पर याद रखो
जो जीता वही तो है सिकंदर
आभार अमलेन्दु जी