राष्ट्र जागरण की संत परंपरा

नीरेन कुमार उपाध्याय 

भारत में संतों का प्रादुर्भाव प्राचीन काल से माना गया है। समाज व्यवस्था से भिन्न एक अलग दुनिया जहां ‘मैं’ को जानने और ईश्वर का साक्षात्कार करने की इच्छा ही सर्वोपरि रही है। विश्व के विभिन्न देशों में संतों की एक लम्बी श्रृंखला दिखायी पड़ती है। किन्तु भारतीय संत परम्परा को सर्वोपरि माना गया है। त्याग, तपस्या और लोक कल्याण के लिए भगवा धारण कर भारतभूमि ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में आनंद और शांति को स्थापित करने का संकल्प करने का नाम ‘सन्यासी’ है। इस परम्परा से प्रभावित बहुत से विदेशी नागरिकों को भारत की भूमि अपनी ओर खिंचती रही है। इसके आध्यात्मिक मोहपाश से जो बंधा वह जीवन पर्यंत उससे बंधे रहने की कामना कर यही मांग करते रहे कि ”अगला जनम मोहे भारत में ही दीजो।” भौतिकता से परिपूर्ण जीवन को त्याग भारत की धूल फांकते जिस आनंद की अनुभूति संतों को होती है उस दिव्य आनंद को तो कोई संत ही बता सकता है। विश्व इतिहास के विभिन्न कालखंड इस बात के प्रमाण हैं कि संतों ने आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने के अलावा समाज को समय-समय पर सही दिशा दिखायी है। विशेष रुप से भारतीय इतिहास तो ऐसे अनगिनत उदाहरणों का साक्षी रहा है। राजशाही को लोकशाही की शक्ति का आभास भी इन्हीं संतों के द्वारा कराया गया। राजसत्ता से दूर रहने वाले संतों को राजशाही को दिशा देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या सत्ता मद में चूर राजनीति की पवित्रता नष्ट नहीं हुई है। राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को कष्ट मुक्त करने की इच्छा से संतों ने तपोवन से निकलकर धर्मानुकूल समाज निर्माण का प्रयास किया। वर्तमान परिदृश्य में भी कुछ ऐसा ही दिखाई पड़ता है। भ्रष्ट प्रशासन के अहंकार को चुनौती देते समाजसेवियों, समाज सुधारकों व संतों को राजनीति के जिस स्वरुप का दर्शन हुआ क्या वह दशानन और दुःशासन की प्रतिमूर्ति नहीं लगती? भटकी हुई सत्ता को सही राह बताना क्या गलत है? नेताओं ने तो लोकतंत्र की नई परिभाषा ही गढ़ दी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व मौलिक अधिकारों तक के लिए न्यायालय की शरण लेनी पड़ रही है। समाजसेवियों और संतों को न केवल लांछित किया वरन् उन्हें धमकी तक दी गई। क्या इसी समृध्द भारतीय संस्कृति का हम विश्व भर में दंभ भरा करते हैं, जहां संतों के अलावा नागरिकों तक का सम्मान नहीं किया जाता है।

यह उसी की देन थी कि सरकारी दमन को जनता ने साक्षात् अपनी आंखों से देखा। गंगा बचाओ आंदोलन को लेकर चिदानंद मुनि जी महाराज, स्वामी हरिचैतन्य ब्रम्हचारी, स्वामी नित्यानंद आदि ने देश भर में गंगा की अविरल और निर्मल धारा के लिए आंदोलन किया, राष्ट्र जागरण में लगे हुए हैं। लेकिन गंगा के मामले में केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया उपेक्षा का ही रहा है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। गंगा की अविरल धारा न मिलने से हिन्दुओं की आस्था और संस्कृति खतरे में पड़ जायेगी। संतों की मांग का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। एक यक्ष प्रश्न यह उठता है कि केंद्र सरकार हिन्दुओं के मामले में दोहरी नीति क्यों अपनाती है? संत धर्म और अपने आस्था केंद्रों को बचाने के लिए आंदोलन करें तो प्रताड़ित उन्हीं को किया जाता है। यदि देश हित में भ्रष्टाचार और काला धन को वापस लाने की बात करें तो भी वही प्रताड़ना के शिकार होते हैं। आश्चर्य है। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर बुध्दिजीवियों, राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं का सेक्युलरिज्म हिन्दू विरोध से प्रारंभ होकर वहीं पर समाप्त भी होता है। संतों के प्रति इनके दुराग्रह के उदाहरण हम देख चुके हैं। सनातन संस्कृति में संन्यास आश्रम का अपना महत्व है। आज के भौतिकतावादी युग में भी इस धर्म का पालन लोग करते आ रहे हैं। भारतभूमि की यही विशेषता है कि वह आध्यात्मिक जागृति के लिए स्वयं लोगों को चुन लेती है। संन्यास भागने नहीं भोगने का नाम है। देश, समाज, संस्कृति और धर्म के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन का नाम है। जिसने आध्यात्मिक सत्ता पा ली उसके लिए भौतिक सत्ता गौड़ हो जाती है। संन्यास ग्रहण करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि देश और समाज से कोई सरोकार ही नहीं है। जैसा कि कुछ राजनेताओं के द्वारा समय-समय पर कहा गया कि इनको जंगलों में रहकर तप करना चाहिए, राजनीति में कहां आ गए, आदि-आदि। विभिन्न राजदरबारों में राजपुरोहित और गुरुओं को उचित आसन दिया जाता था और कठिनाई आने पर मार्गदर्शन भी लिया जाता था। वैदिक काल से ही संतों ने राजसत्ता को दिशा दिखाने का काम किया है। विष्णु के दशावतारों में राम और कृष्ण सर्वाधिक पूज्य हैं। इनके गुरु विश्वामित्र व सांदीपन ऋषि ने रावण, कंस और कौरवों जैसे सत्ता मद में चूर पथभ्रष्ट राजाओं का समूल नष्ट करने की प्रेरणा दी। गुरुकुल राष्ट्रभक्ति और समाज निर्माण के आदर्श केंद्र होते थे। जहां शिष्यों को धर्म, संस्कृति, राजनीति, युध्द कला कौशल, आदि की शिक्षा योग्य व श्रेष्ठ गुरुओं के द्वारा दी जाती थी। आज की शिक्षा व्यवस्था ने पलायनवाद को ही बढ़ावा दिया है। महापुरुषोें को अपमानित करने की शिक्षा प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक में दी जा रही है। बौध्दिक पक्षाघात का विभत्स उदाहरण है यह। आदि शंकराचार्य, स्वामी करपात्री जी महाराज, स्वामी श्रध्दानंद, बुध्द, महावीर, दयानंद सरस्वती, चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ, अरविंद घोष, गुरु गोविंद सिंह जी महाराज, स्वामी विवेकानंद, वंदा वैरागी, कबीर आदि अनेकों संत-महापुरुषों ने धर्म के साथ-साथ राष्ट्र को संगठित व जागृत करने में महती भूमिका निभाई। मंहगाई ने आम आदमी की थाली से दाल, सब्जी, फल, दूध को गायब कर दिया है। चीनी व गुड़ का स्वाद कड़वा लगने लगा है। सरसो का तेल व डालडा की कीमतें जेब पर भारी पड़ने लगी है। देश के वित्त मंत्री आंकड़ों से गरीबी, मंहगाई और विकास का झुनझुना बजा रहे हैं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष की गरीबी की परिभाषा यह सिध्द करने के लिए पर्याप्त है कि शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को देश की वास्तविकता पता नहीं है या आंकड़ों की बाजीगरी से अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। पेट्रोल व डीजल की कीमतों के बढ़ने का सीधा असर माल की ढुलाई पर पड़ता है जिससे बाजार में सभी चीजों के भाव बढ़ते हैं। देश में लाखों टन अनाज सड़ जाते हैं, उनके रख-रखाव की कोई व्यवस्था आज तक नहीं बनी। देश की बीस प्रतिशत जनता आज भी भूखे सो जाती है। नीति निर्धारकों को इनकी कब सुध आयेगी? देश में खरबपतियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। एक साल में 17 नये खरबपति उभर कर सामने आये हैं। वहीं गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 37 प्रतिशत तक आंकी गयी है। गरीबी हटाओ का नारा देने वालों ने गरीबों को ही अनैतिक तरीके से हटाने का काम किया है। गोस्वामी जी की पंक्तियां हमें सोचने के लिए विवश करती हैं- ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।’ आखिर भ्रष्टाचार व काले धन के मामले में कांग्रेस सरकार ढुलमुल रवैया क्यों अपना रही है? यह विचारणीय प्रश्न है। भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए लोकपाल की मांग काफी दिनों से की जा रही है। सन् 1968 में पहली बार लोकायुक्त बिल लोक सभा में पास हुआ, लेकिन राज्य सभा में गिर गया। उसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 व 2008 में संसद में पेश विधेयक को कई बार संशोधनों और समितियों की जांच-पड़ताल से गुजरना पड़ा। विदेशों में जमा काले धन को भारत में लाने की मांग भी पिछले कई वर्षों से की जा रही है। अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए जन लोकपाल बिल व काला धन को भारत की संपत्ति घोषित कर उसे देश में लाने के लिए आंदोलनरत हैं। काले धन की जांच सरकारी एजेंसी कर रही है। लेकिन, काले धन के मालिकों का नाम सार्वजनिक नहीं किया गया। सरकार ने लोकपाल का जो बिल तैयार करवाया है उससे तो यही लगता है कि इसे और अधिक दिनों तक टालने की कोशिश की जा रही है। अथवा सरकार अपना ही बिल पास करवाने की कोशिश करेगी। संतों का आंदोलन जारी है, परिणाम की चिंता किये बिना। किसी कवि ने कहा है- उन्हीं फकीरों ने बदली है वक्त की धारा, कि जिनके पास खुद अपने लिए भी वक्त न था। देखना है सरकार भ्रष्टाचार व काले धन को भारत की संपत्ति घोषित करने को लेकर क्या रवैया अपनाती है? प्रश्न सरकार की नीयत का भी है।

लेखक समाजसेवी तथा पत्रकारिता में शोधरत हैं। 

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