भारत में राष्ट्रवादी राजनीति ही अब सभी दलों की नियति

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                                       मनोज ज्वाला

     भारत गणराज्य का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र है । कई अर्थों में यह अन्य देशों के लोकतंत्र से विशिष्ट भी है । अब इसमें  एक और विशिष्टता जुड चुकी है । वह यह कि यहां सांवैधानिक रुप से तकनीकी तौर पर विपक्ष समाप्त हो चुका है । भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रत्यक्षतः अभिव्यक्त करने वाली संसद के दोनों सदनों में जो सबसे बडा सदन है ‘लोकसभा’ सो विपक्ष-विहीन है । सत्ता-पक्ष के तमाम विरोधी दलों में से कोई भी दल कायदे से विपक्ष नहीं है । विपक्ष होने के लिए किसी भी दल के पास लोकसभा के जितने सदस्यों की संख्या चाहिए वह कोई भी प्रतिपक्षी दल नहीं जुटा पा रहा है । १६वीं लोकसभा के चुनाव-परिणामस्वरुप देश की केन्द्रीय सत्ता से बेदखल हो कर विपक्ष में बैठी कांग्रेस वस्तुतः विपक्ष थी ही नहीं , क्योंकि वह इस बावत संसद-सदस्यों की निर्धारित न्यूनतम संख्या की अर्हता पूरी नहीं कर सकी थी । वर्तमान १७वीं लोकसभा में भी  विरोधी दलों के बीच सबसे बडी हैसियत रखने वाली कांग्रेस कायदे से विपक्ष नहीं बन सकी है, क्योंकि उसके सांसदों की  संख्या पिछली बार से बढने के बावजूद निर्धारित न्यूनतम अर्हता को नहीं छू सकी है ।  हालाकि संसद की राज्य सभा में किसी तरह से विपक्ष बनी हुई है कांग्रेस, किन्तु चूंकि वह उच्च सदन है, जिसके सदस्य सीधे आम जनता के द्वारा निर्वाचित नहीं होते हैं , बल्कि प्रान्तीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा चयनित होते हैं ; इस कारण लोकतंत्र के प्रत्यक्ष अभिव्यक्त होने की दृष्टि से उसका कोई खास मतलब नहीं है । जबकि वहां भी सदस्यों का कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद उसका आकार घटना और सत्ता-पक्ष का आकार बढना सुनिश्चित है । ऐसा इस कारण, क्योंकि देश की अधिकतर विधानसभाओं में भी कांग्रेस की हालत बहुत पतली है । शेष विरोधी दलों की स्थिति तो उससे भी खराब है । देश के भीतर अनेक व सर्वाधिक प्रदेशों में भी केन्द्रीय सत्ता पर आरुढ भाजपा की ही सरकारें हैं । भाजपा-विरोधी दलों की जहां-जहां जो  सरकारें हैं भी , वे सब डांवाडोल स्थिति में हैं । बहुमत का ऐसा टोंटा है कि वे कभी भी गिर सकती हैं । वहां की विधानसभाओं में अफरा-तफरी व भागा-भागी मची हुई हैं । उन तमाम गैर-भाजपाई दलों से समूह के समूह विधायक भाजपा में शामिल होते रहे हैं । कांग्रेसी नेताओं-कार्यकर्तओं को भी कदाचित ऐसा प्रतीत होने लगा है कि कांग्रेस एकबारगी मिट ही जाएगी । यह स्वाभाविक भी है , क्योंकि कांग्रेस लगातार सिमटती ही जा रही है ।  न केवल कांग्रेस का बल्कि , अन्य दूसरे विरोधी दलों, जो प्रकारान्तर में कांग्रेस की ही ऊपज हैं, उनका भी कमोबेस यही हाल है । बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इसी तरह  के संकट से जूझ रही है । उधर तमिल-तेलगू प्रदेशों में भी भाजपा का आकार बढता जा रहा है । उतर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सहित लगभग सभी उन दलों को जनता नकार चुकी है और लगातार नकारती जा रही है , जो भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का ठप्पा लगाते हुए स्वयं  धर्मनिरपेक्षता के झण्डाबरदार बन बहुसंख्यक हिन्दू-समाज के विरुद्ध तथाकथित अल्पसंख्य सम्प्रदायों के तुष्टिकरण की राजनीति करते रहे हैं । इस धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिक तुष्टिकरणवादिता की आंच पर सत्ता की रोटी सेंकते-खाते रहने वाले इन तमाम गैर-भाजपाई दलों की राजनीति असल में राष्ट्रनीति पर भी हावी होती जा रही थी, जिसके कारण देश के भीतर-बाहर दोनों तरफ राष्ट्रीय हितों का हनन होता रहा था ।  

       १६वीं लोकसभा के चुनाव से ही देश भर में आम जनता के बीच भाजपा के बढते स्वीकार और कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों के प्रति बडी तेजी से बढते नकार को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसका मूल कारण वतुतः साम्प्रदायिक अल्पसंख्यक तुष्टिकरणवादी राष्ट्रघाती राजनीति के विरुद्ध धार्मिक बहुसंख्यक राष्ट्रीयतावादी राजनीति का उभार है, जो स्वतंत्रता-संघर्ष काल से ही कुहियाते-सुलगते हुए अब आकर चुनावी लोकतंत्र में आकार ग्रहण किया है । यह राष्ट्रीयता का उभार जो है, सो असल में भारत के उस सांस्कृतिक पुनरुत्थान का उभार है, जिसके बावत महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी महर्षि अरविन्द ने कहा था कि सनातन धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है । स्वामी विवेकानन्द ने इसी को हिन्दुत्व कहा , जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनाया हुआ है । इस हिन्दुत्व से निःसृत राजनीति को ही भाजपा ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रुप में अपनी राजनीति का आधार बनाया , जिसके तहत भारत के सांस्कृतिक पुरुषों-प्रतीकों-परम्पराओं की पुनर्प्रतिष्ठा तथा समान नागरिक संहिता और साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के बाजाय सर्वपंथ समभाव की अवधारणा पेश कर कांग्रेसी खेमे के समक्ष जो चुनौतियां पेश की उसका मुकाबला वे नहीं कर सके । धर्मनिरपेक्षता के उन झण्डाबरदारों ने अल्पसंख्यकवाद की अपनी छद्म दुर्नीति के तहत जिस भाजपा को राजनीतिक अछुत घोषित कर उसकी राह रोकने के लिए परस्पर गठबन्धन कायम कर रखा था, उस भाजपा को जनता से इतना समर्थन प्राप्त हुआ कि सन २०१४ के आमचुनाव में वह उन सबको न केवल सत्ता से बेदखल कर दी, बल्कि विपक्ष बनने के लायक भी नहीं रहने दी । फिर तो वे बुरी तरह से पिट चुकी हिन्दुत्व-विरोधी धर्मनिरपेक्षता का सिक्का पुनः चलाने के लिए जिन-जिन हथकण्डों का इस्तेमाल किये , सो सब इस कदर उल्टा प्रभाव देते गए कि १७वीं लोकसभा के चुनाव में उनके ‘महागठबन्धन’ को भी जनता ने मटियामेट कर हिन्दुत्व-प्रेरित राष्ट्रवादी राजनीति  पर ही मुहर लगा दी ।

      ऐसे में जाहिर है; संसद की दस प्रतिशत सिटों से भी वंचित रह गई कांग्रेस एवं उसके सहयोगियों को सत्ता के शिखर तक पहुंचने के लिए ही नहीं, बल्कि विपक्ष की जमीन हासिल करने के लिए भी राष्ट्रवादी राजनीति का अनुसरण तो करना ही होगा । बहुसंख्यक-विरोधी अल्पसंख्यकवादी धर्मनिरपेक्षतावाद का परित्याग किये बगैर ‘संविधान व लोकतंत्र की रक्षा’ का बेजान-बेतुका नारा लगाते रहने तथा सत्ता-पक्ष का विरोध के नाम पर भारत की एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता व राष्ट्रीयता के विरोध में ही उतर आने और ‘सहिष्णुता-असहिष्णुता’ की माप-तौल करते रहने अथवा ‘मौब लिंचिंग’ जैसे नये-नये शब्दों का ईजाद करने या जनता को काल्पनिक भय से भयभीत करने जैसे हथकण्डों के सहारे उनका राजनीतिक उन्नयन दूर की कौडी प्रतीत होता है । क्योंकि, तत्वदर्शी भविष्यवेत्ता विवेकानन्द व महर्षि अरविन्द से ले कर युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा तक ने भारत के राष्ट्रीय पुनरुत्थान की सुनिश्चित भवितव्यता और उसके फलित होने की जिस कालबद्धता का संकेत किया हुआ है , उसका दौर सन २०११ से ही शुरू हो चुका है । जनता का तदनुसार मानसिक-बौद्धिक परिष्कार एक दिव्य चेतना की प्रेरणा से अब स्वतः होने लगा है । ऐसे में राष्ट्रवादी राजनीति ही अब ‘विपक्ष’ की भी विवशता-जनित नियति है । भाजपा भी यदि राष्ट्रवाद से विमुख हो जाएगी, तो उसकी भी वही गति होगी, जो आज उसके विरोधियों की त्रासदी है । ऐसा इस कारण, क्योंकि किसी भी देश के बहुसंख्यक समाज की सांस्कृतिक भावना-विचारणा ही उस देश की राष्ट्रीयता होती है और उस राष्ट्रीयता को तिरस्कृत कर कोई भी शक्ति लम्बे समय तक उस पर शासन कतई नहीं कर सकती है । भारतीय राजनीति के केन्द्र में भारत की सनातन राष्ट्रीयता जो निश्चित रुप से हिन्दुत्व ही है, सो स्थापित हो चुकी है ; अतएव उस परिधि से बाहर की राजनीति पर चलने वाले दल इसी तरह से खारिज होते रहेंगे ।

मनोज ज्वाला

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