चुनावी चंदे में पारदर्शिता की जरूरत

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प्रमोद भार्गव

चुनाव में सुधार और राजनीतिक चंदों में पारदर्शिता लाने कि मुहिम में जुटे स्वयं सेवी संगठन असोशिएशन फार डेमोक्रेटिक रिर्फाम व नेशनल इलेक्षन वाच द्वारा तैयार अध्ययन रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रुप में सामने आया है। इस अध्ययन से पता चला है कि हमारे राजनैतिक दल चंदा लेने में कतर्इ पारदर्शिता नहीं बरतते। बलिक जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्घंघन करते हुए चंदे की जानकारी को छपाते है और चंदे की बड़ी राशि नगदी के रुप में इसलिए लेते है जिससे चुनाव खर्च की वास्तविकता जनता के सामने न आने पाए। स्वयंसेवी संगठन द्वारा 2004 – 05 से 2010 – 2011 तक विभिन्न राजनैतिक दलों को औधोगिक घरानों से मिले चंदे के जो दस्तावेज इकटठे किए है उनसे पता चलता है कि बीते सात सालों में कांग्रेस के खातों में 2008 करोड़, भाजापा के खातों में 994 करोड़, बसपा के खातों में 484, सपा के खातों में 279 और मापका के खाते में 417 करोड़ रुपये जमा हुए। मसलन आर्थिक संकट का माहौल संसद से सड़क तक रचा जा रहा है उसका असर न चंदा देने वालों पर है और न ही चंदा लेने वालों पर। लेकिन दलों ने चंदे की 85 प्रतिशत जानकारी छुपाकर रखी हुर्इ है और वे इस चंदे को कूपनों के जरिये लिया चंदा बता रहे है। संगठन ने यह जानकारी चुनाव आयोग और आयकर विभाग से आरटीआर्इ के जरिये मिली सूचनाओं के आधार पर जुटार्इ है।

व्यापारिक घरानों ने तो आयकर विभाग को दी जानकारी से तय कर दिया है कि वे राजनीतिक दलों को वैधानिक तरीके से चंदा देने का रवैया तेजी से अपना रहे हैं। वेदांता की सालाना रिपोर्ट में भी दलों को दिए चंदे का खुलासा किया गया था। इसी स्वयं सेवी संगठन ने कुछ समय पहले 36 औधोगिक घरानों के जन कल्याणकारी न्यासों द्वारा राजनैतिक दलों को चैक द्वारा चंदा देने की जानकारी जुटार्इ थी। जाहिर है, इस प्रक्रिया के जरिए इन घरानों ने एक सुरक्षित और भरोसे का खेल, खेलना शुरू कर दिया है। औधोगिक घराने चंदा देने में चतुरार्इ बरत रहे हैं। उनका दलीय विचाराधारा में विश्वास होने की बजाय, दल की ताकत, में विश्वास है। लिहाजा कांग्रेस और भाजपा को समान रूप से चंदा मिल रहा है। जिस राज्य में जिस क्षेत्रीय दल का वर्चस्व है, वे कांग्रेस और भाजपा के अनुपात में ज्यादा चंदा बटोर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को चंदा देने की होड़ में देश के दिग्गज अरब-खरबपति लगे हैं। मजदूरों के हित की बात करने वाले बामपंथी दल भी पूंजीपतियों सेचंदा लेने में पीछे नहीं रहे है। तय है वामपंथियों के खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं। आपतितजनक स्त्रोतों से अन्य दलों की तरह इन्हें भी चंदा देने में कोर्इ हर्ज नहीं है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के नजरिये से राजनैतिक दल हल्ला चाहे जितना मचाते रहे, हकीकत में लोकपाल जैसा कानून लाने के लिए कतर्इ तैयार नहीं हैं।

हमारे राजनीतिक दल और औधोगिक घराने चंदे को अपारदर्शी बनाए रखने के लिए कितने हठधर्मी है, इसका खुलासा भी इस रिपोर्ट में है। पापड़ बेलने की लंबी प्रक्रिया जारी रखते हुए बमुशिकल 36 घरानों और प्रमुख राजनीतिक दलों ने चंदे की घोषित जानकारी दी। जाहिर है दल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के कतर्इ फेबर में नहीं हैं। दलों की यह मानसिकता दल-बदलुओं, धनबलियों, बाहुबलियों और माफिया-सरगनाओं को बड़ी संख्या में टिकट देने से भी जाहिर हो रही है। यही कारण था कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने सख्ती बरती और एक लाख से ऊपर के लेन-देन की गाइड लाइन तय कर दी तो अघोषित और बेनामी नकदी की बरामदगी का बेहिसाब सिलसिला शुरू हो गया था और अरबों की नगद धन राशि बरामद हुर्इ थी। कालेधन का चुनाव में इस्तेमाल तो ठीक है, दल और प्रत्याशी जाली मुद्रा के उपयोग से भी बाज नहीं आ थे ? पुलिस ने दिल्ला में छह करोड़ के जाली नोटों के साथ दो लोगों को हिरासत में लिया था। हजार और पांच सौ के ये नोट एक टैम्पो में रखे, बोरों से बरामद किए गए थे। अच्छी गुणवत्ता के ये नोट पाकिस्तान से लाए गए थे और इनका उपयोग उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में होने जा रहा था। इससे तय हुआ कि हमारे राजनीतिक दलों को चुनाव सुधार की चिंता तो है ही नहीं,, जाली मुद्रा के जरिए वे देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करने की भी शर्मनाक राष्ट्रद्रोही गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव जन-आकांक्षा प्रगट करने का एकमात्र माध्यम है। इसलिए सभी दलों और उम्मीदवारों का समान अवसर मिलने की दरकरार रहती है। किंतु जायज-नाजायज धन यदि मतदाता को प्रभावित करने के लिए उपयोग में लाया जाए तो इससे संविधान की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की मूल भावना आहत हुए बिना नहीं रहती ? इस लिहाज से धन की वैधानिकता और चंदे में पारदर्शिता के सवाल जोर पकड़ रहे हैं।

पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेशन की सख्ती पेश आने की मंशा के चलते आज एक हद तक मतदान केंद्रों को कब्जाने व लूटने का सिलसिला तो कमोबेश थम गया है, लेकिन इसकी जगह मतदाता को ललचाने की मंशा के चलते धन से वोट खरीदने और शराब व कंबल बांटकर रिझाने के नाजायज कारनामों ने ले लिया है। इसीलिए बड़ी मात्रा में काले और जाली धन की जरूरत प्रत्याशियों को और उनके रहनुमा दलों को पड़ती है। इससे निजात के लिए चुनाव सुधारों के पैरोकार चुनाव का पूरा खर्च सरकार पर डालने की वकालात कर रहे हैं। कर्इ अन्य लोकतांत्रिक देशों में ऐसे प्रावधान लागू भी हैं। सुधार की इन पैरवियों में यह भी कहा जा रहा कि राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला चुनाव खर्च भी उम्मीदवार के खर्च में जोड़ा जाए। यह प्रक्रिया अपनार्इ जाती है तो संभव है, अकूत खर्च पर अंकुश लगे ?

चुनाव में कालेधन के बेहिसाव इस्तेमाल ने तो ‘चौथा स्तंभ का संवैधानिक दर्जा प्राप्त मुदि्रत और दृश्य समाचार माध्यमों को भी ‘पेड-न्यूज की चटनी चटा दी है। छपने से पहले और प्रत्याशी व दल के हित साधने वाले इस पूरे दर्शन का क्रियाकलाप नाजायज तौर से ही डंके की चोट पर चलता है। देश के प्रमुख मुगल मीडिया इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। इसके संचालन के सूत्र सीधे अखबार व चैनलों के मालिकों के हाथ होते हैं और वे स्थानीय संपादाकों व प्रबंधकों को एक निशिचत धन राशि हथियाने का लक्ष्य देते हैं। ऐसा नहीं है कि इस गोरधंधे से चुनाव आयोग अनजान है। अलबत्ता आयोग ने पेड-न्यूज से जुड़े एक मामले को अंजाम तक भी पहुंचाया है। उत्तर प्रदेश की बिसौली विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहीं श्रीमती उर्मिलेश यादव अगले तीन साल के लिए चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध भी लगाया हुआ है। लेकिन धन लेकर जिन अखबारों ने पेड-न्यूज का काला-कारोबार किया, उनके खिलाफ कार्रवाही करने में आयोग के हाथ बंधे हैं। दरअसल पेड-न्यूज के मेकेनिज्म को रोकने के कोर्इ कानूनी औजार आयोग के पास है ही नहीं। इसी लिहाज से भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू परिषद को दांडिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं।

यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि लोकतंत्र में संसद और विधानसभाओं को गतिशील व लोककल्याणकारी बनाए रखने की जो जवाबदेही सांसद और विधायकों पर होती हैं, वे ही यदि औधोगिक घरानों, माफिया सरगनाओं और काले व जाली धन के जरिए विजयश्री हासिल करके आएंगे तो जाहिर है उनकी प्राथमिकता जन-आकांक्षाओं की पूर्ति की बजाय, इन्हीं के हित-संरक्षण में होगी। इसीलिए अन्ना हजारे अपने आंदोलन के दौरान यह कह रहे थे कि राजनीति धन और शराब का घिनौना खेल बनकर रह गर्इ है।

सब कुल मिलाकर सभी दल एक ही थाली के चटटे-बटटे हैं और समान रूप से भ्रष्टाचार की चुनावी गंगा में डुबकी लगाकर वैतरणी पार करना चाहते हैं। ऐसे में इस संगठन ने यह तो तय कर दिया है कि चुनावी चंदे में पारदर्शिता कतर्इ नहीं है और राजनैतिक दल चंदे के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते है। हालांकि वर्तमान कानून के अनुसार 20 हजार रुपये से अधिक की राशि देने वाले व्यकित का नाम चुनाव आयोग और आयकर विभाग को देना जरुरी होता है लेकिन कोर्इ भी दल इस नियम का पालन नहीं करता। यदि राजनैतिक दलों को अपनी कार्यशैली में सुधार लाना है तो जरुरी है वे चंदे की पारदर्शी शैली को अमल में लाये। इस हेतु दल अपनी नैतिक जिम्मेवारी निभाते हुए इसकी शुरुआत अपने कोश के सार्वजनिक आडिट से कर सकते है। यदि ऐसा होता है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ दल मजबूती से लड़ार्इ लड़ते दिखेंगे और हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा।

 

 

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