अमेरिका के साथ डेयरी उत्पाद समझौते से बचने की जरूरत

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प्रमोद भार्गव
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस यात्रा में यह आशंका जताई जा रही है कि अमेरिका और भारत के बीच डेयरी, पोल्ट्री व अन्य कृषि उत्पादों के आयात से संबंधित कोई समझौता हो सकता है? भारत को अपने किसान व दुग्ध उत्पादकों के हित संरक्षण की दृष्टि से ऐसे किसी समझौते से बचने की जरूरत है। दरअसल अमेरिका ने इस मकसद पूर्ति का वातावरण पहले से ही बनाना शुरू कर दिया है। इसके लिए उसने भारत को तरजीह सूची से निकाल दिया है। अमेरिकी जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस (जीएसपी) से बाहर निकाले जाने से पहले तक भारत अमेरिका को चालीस हजार करोड़ रुपए की वस्तुओं का निर्यात करता था। इसपर कोई आयात शुल्क नहीं लगता था। 1970 में यह नीति बनी थी। इसके बाद हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 19.5 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार बताए हैं। दुनिया के कुपोषितों में यह अनुपात करीब 25 प्रतिशत है। जबकि हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं अमेरिकी हितों को साधने में पृष्ठभूमि तैयार करने में आगे रहती हैं। इस समस्या से निपटने के लिए नीति आयोग ने भारत सरकार को सुझाव दिया है कि वह पीडीएस के जरिए चिकन, मटन, मछली और अण्डा रियायती दरों पर हितग्राहियों को उपलब्ध कराए। इस सुझाव से भी यह संकेत मिलता है कि अमेरिका के डेयरी व पोल्ट्री उद्योग से संबंधित उत्पाद आयात के लिए भारत के बाजार खोल दिए जाएं?
अमेरिका की इस मंशा को समझने के लिए भारत और अमेरिका के बीच होने वाले आयात-निर्यात को समझना होगा। 2018 में दोनों देशों के बीच 143 अरब डाॅलर यानि 10 लाख करोड़ का व्यापार हुआ। इसमें अमेरिका को 25 अरब डाॅलर का व्यापार घाटा हुआ है। इसकी भरपाई वह दुग्ध और पोल्ट्री उत्पादों का भारत में निर्यात करके करना चाहता है। इस नाते उसकी कोशिश है कि इन वस्तुओं व अन्य कृषि उत्पादों पर भारत आयात शुल्क घटाने के साथ उन दुग्ध उत्पादों को बेचने की छूट भी दे, जो पशुओं को मांस खिलाकर तैयार किए जाते हैं। दरअसल अमेरिका में इस समय दुग्ध का उत्पादन तो बढ़ रहा है लेकिन उस अनुपात में कीमतें नहीं बढ़ रही हैं। दूसरे अमेरिकी लोगों में दूध की जगह अन्य तरल पेय पीने का चलन बढ़ने से दूध की खपत घट गई है। इस कारण किसान आर्थिक बदहाली के शिकार हो रहे हैं। यह स्थिति तब है जब अमेरिका अपने किसानों को प्रति किसान 60,600 डाॅलर, मसलन 43 लाख रुपए की वार्षिक सब्सिडी देता है। इसके उलट भारत में सब मदों में मिलाकर किसान को बमुश्किल 16000 रुपए की प्रतिवर्ष सब्सिडी दी जाती है। ऐसे में यदि अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए डेयरी उत्पादों के निर्यात की छूट दे दी गई तो भारतीय डेयरी उत्पादक अमेरिकी किसानों से किसी भी स्थिति में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे? ऐसे में डेयरी उत्पाद से जुड़े जो 12 करोड़ लघु और सीमांत भारतीय किसान हैं, वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाएंगे। वैसे भी बीते पांच साल में हमारी औसत कृषि विकास दर महज तीन प्रतिशत से भी कम रही है। गोया, अमेरिका डेयरी उत्पादों के लिए भारतीय बाजार खोल दिए गए तो हमारा डेयरी उद्योग, जो दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भर है, वह चौपट हो जाएगा। भारत में प्रतिवर्ष 18.5 करोड़ टन दूध और उसके सह-उत्पादों का उत्पादन होता है। यह दुनिया में सर्वाधिक है। इसी वजह से इन उत्पादकों की मासिक आय लगभग 9000 रुपए है। देश की 30 लाख करोड़ रुपए की कृषि जीडीपी में दूध व पोल्ट्री क्षेत्र की भागीदारी 30 प्रतिशत है। साफ है, हमें किसी अन्य देश से दुग्ध उत्पादों के आयात की जरूरत ही नहीं है।
फिलहाल भारतीय नियमों के अनुसार यदि भारत किसी देश से दुग्ध उत्पादों का आयात करता है तो उसके निर्माता को यह प्रमाणित करना होगा कि जिन मवेशियों के उत्पाद भेजे जा रहे हैं, उन्हें किसी दूसरे जानवर के आंतरिक अंगों एवं मांस आदि कभी नहीं खिलाए जाते हैं। यह नियम 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय से लागू है। हालांकि भारत में ऑनलाइन ई-व्यापार के जरिए मांसयुक्त आहार बिकता है। इसे बूचड़खानों के व्यर्थ हुए अवशेष से बनाया जाता है। अमेरिका में पशुओं के लिए मांसाहार मीट पैकिंग व्यवसाय का सह-उत्पाद है। इसे दूसरे जानवरों को खिलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल, बूचड़खानों में जानवरों को मारते वक्त (खासकर गोवंश) उनका खून जमा लिया जाता है। फिर उस खून को धूप या हीटर पर सुखाकर एक विशेष प्रकार का चारा बनाया जाता है। इसे ही ब्लड मील कहते हैं। दुधारू पशुओं के बेहतर स्वास्थ्य और उनसे ज्यादा दूध उत्पादन के लिए यह मांसयुक्त आहार खिलाया जाता है। इस चारे को लाइसीन नाम के एमिनो एसिड का अच्छा स्रोत माना जाता है। गायों के शरीर में मिलने वाले प्रोटीन में करीब 10 तरह के जरूरी एमिनो एसिड होते है, जिनमें से दो बेहद अहम हैं, लाइसींस और मिथियोनाइन। गायें अपने चारे से प्रोटीन नहीं सोखती हैं, क्योंकि वे अलग-अलग एमिनो अम्ल सोखने में सक्षम होती हैं। इसलिए उनके चारे में ब्लड मील और मक्का मिलाया जाता है। बल्ड मील लाइसींस का स्रोत है और मक्का मिथियोनाइन का बेहतर स्रोत है। फिलहाल अमेरिका चीज, पनीर भारत में बेचना चाहता है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। इसलिए भारत के शाकाहरियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गो-सेवक व गऊ को मां मानने वाला भारतीय समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। हमारे यहां गाय-भैसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फिरती हों लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता।
दुनिया में दूध उत्पादन में अव्वल होने के साथ हम दूध की सबसे ज्यादा खपत में भी अव्वल हैं। देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 ग्राम दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की हो रही है। जबकि शुद्ध दूध का उत्पादन करीब 15 करोड़ लीटर ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जाती है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रहा है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के कारण मिलावटी दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुष्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रुपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह-उत्पादों की मांग लगातार बनी रहती है। साल 2018 में देश में दूध का उत्पादन 6.3 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि अंतरराष्ट्रीय वृद्धि दर 2.2 फीसदी रही है। दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें इस व्यापार को हड़पने में लगी हैं। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फ्रांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की दूध डेयरी ‘तिरूमाला डेयरी‘को 1750 करोड़ रुपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ऑइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है।
बिना किसी सरकारी मदद के बूते देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं, बल्कि इसके सह-उत्पाद दही, घी, मक्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा, मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी हैं, किंतु वह दूध ही है,जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, घी, मक्खन, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आजीविका जुड़ी है। रोजाना दो लाख से भी अधिक गांवों से दूध एकत्रित करके डेयरियों में पहुंचाया जाता है। बड़े पैमाने पर ग्रामीण सीधे शहरी एवं कस्बाई ग्राहकों तक भी दूध बेचने का काम करते हैं।
दरअसल अमेरिका में इसी साल आम चुनाव होने हैं। डोनाल्ड ट्रंप एकबार फिर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे। ऐसे में वे चुनाव जीतने के लिए अपने किसानों का हित साधना चाहते हैं। गोया, वे कृषि उत्पादों को भारतीय बाजार में खपाने की प्रबल इच्छा पाले हुए हैं। यदि अमेरिका के साथ इस सिलसिले में कोई समझौता होता है तो अमेरिकी किसान सब्सिडी के बूते भारतीय बाजार में सस्ती दरों पर अपने उत्पाद उतार देंगे। अमेरिकी कंपनियां विज्ञापनों के जरिए ऐसा मायाजाल रचेंगी कि हम इन मांस मिले उत्पादों को अपने देशी उत्पादों से श्रेष्ठ मानने लग जाएंगे। यह सम्मोहन हमारे देशी दूध कारोबारियों को दाने-दाने को मोहताज कर देगा। लिहाजा ऐसे किसी कारोबारी समझौते से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ट्रंप से ‘नमस्ते‘ कहने की जरूरत है।

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