क्यों न खाएं पेट भर रोटी ?

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संदर्भ:- कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का नया नारा-

प्रमोद भार्गव

चुनावी दौर में नए नारे बनते रहे हैं। किसी नए नारे के वजूद में आने के बाद उसी सांकेतिक अर्थ के पुराने नारे का लोप हो जाता है। राजस्थान के सलूम्बर ;उदसपुर में कांग्रेस के संपन्न आदिवासी-किसान सम्मेलन में बदलते नारे का नजारा देखने में आया। दरअसल इस सभा में कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी की मौजूदगी में गिरिजा ब्यास ने अपने भाषण में कहा, ‘आधी रोटी खाएंगे, कांग्रेस को जिताएंगे। इसके उलट राहुल बोले, यह नारा मौजूदा समय में उपयुक्त नहीं है। लिहाजा हम इसे बदलना चाहते हैं। अब नया नारा होगा,’तीन-चार रोटी खाएंगे, कांग्रेस को फिर से जिताएंगे। हालांकि राहुल ने अपने भाषण के अंत में इसे भी बदलते हुए कहा, ‘अब पूरी रोटी खाएंगे, सौ दिन काम करेंगे, मुफत दवार्इ लेंगे और तब कांग्रेस को दोबारा लाएंगे। हालांकि इसमें rahulनारे जैसा लोक-लुभावन आकर्षण नहीं है। सरकार के पिछले साढ़े नौ साल के कार्यकाल में अमल में लार्इ गर्इं कल्याणकारी योजनाओं का बखान जरुर है। इस नारे में खाध सुरक्षा, रोजगार गारंटी और मुफ्त दवा योजनाओं के लाभ गिनाए गए हैं। लेकिन यदि राहुल का बदला हुआ नारा,’पेट भर खाएंगे, कांग्रेस को जिताएंगे होता, तो कहीं ज्यादा बेहतर होता। क्योंकि इसमें पेट भर भोजन का संदेश प्रगट है।

हालांकि फिलहाल यह मुश्किल है कि यह नारा राहुल की सहज अभिव्यकित थी या सुनियोजित ? क्यूंकी राहुल और सोनिया गांधी के ज्यादातर भाषण कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी लिखते हैं। खैर अब राहुल की कोशिश होनी चाहिए कि वे कालांतर में इस नारे को ‘पेट भर रोटी… में बदल दें। संशय के बावजूद मुझे यह नारा राहुल की ही मौलिक संवेदना से उपजी सरल अभिव्यकित लगता है। क्योंकि राहुल के अब तक राजनीतिक आचरण से जो एक बात निश्चित’ रुप से तय होती है, वह कि वे अन्य नेताओं की तरह राजनीति के स्तर पर बरती जानी वाली कुटिल चतुरार्इ अथवा धोखे के रुप में पेश आने वाली चालाकी से दूर हैं। उनकी अब तक की राजनीतिक नाकामी की एक वजह यह भी है।

दरअसल राहुल अच्छे से जानते हैं कि खाध सुरक्षा विधेयक के अमल में आने के बावजूद जो महनतकस किसान-मजदूर हैं, उसका महज पांच किलो अनाज से पेट भरने वाला नहीं है। इस अनाज से एक व्यकित को एक माह में प्रतिदिन वास्तव में तीन-चार रोटी ही मिल पाएंगी। यह हकीकत राहुल निर्मल मन अच्छे से जानता है। इसलिए वे अपनी सहज संवेदनशील मासूमियत का का परिचय देते हुए आधी रोटी के नारे को तीन-चार रोटी तक ही बदलने को सहमत हो पाते हैं। जबकि सच्चार्इ है कि एक मजदूर-किसान की एक वक्त की खुराक कम से कम दस रोटी है। इस लिहाज से दो वक्त की खुराक 20 रोटी हुर्इ। किसान-मजदूर की खुराक इसलिए अच्छी होती है क्योंकि वे आर्थिक रुप से समृद्ध लोगों की तरह न तो बार-बार चाय – नाश्ता करते हैं और न ही शारीरिक पोष्तिक्ता के लिए फल या सूखे मेवे खाने में सक्षम होते हैं। दरअसल इन्हें खाने के लायक उनके पास पैसे ही नहीं होते। इसीलिए राहुल खाध सुरक्षा के जिस नारे को आधी रोटी से तीन-चार रोटी तक ला पाए हैं, यह साफगोर्इ उनकी अंतरात्मा की आवाज लगती है।

राहुल राजनीतिक रुप से कुटिल होते तो वे रोटियों की संख्या बढ़ा भी देते। कुटिल नहीं होने के साथ, उनके दिमाग में अपने पिता राजीव गांधी द्वारा कहे गए बतौर धरोहर वे वचन भी आंदोलित होते रहते हैं, जो राजीव ने प्रधानमंत्री रहते हुए कहे थे। राजीव ने कहा था, ‘हम पोल के छोर में सौ पैसे डालते हैं, लेकिन दूसरे छोर से निकलते वक्त वे महज पांच पैसे रह जाते हैं। यह देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की कड़वी सच्चार्इ है। जरुर राहुल के मन-मस्तिकश में पिता के वचन खदबदा रहे होंगे। इसलिए वे बमुश्किल चार रोटी तक पहुंच पाए। राहुल जानते हैं 82 करोड़ मसलन 67 फीसदी आबादी को खाध सुरक्षा की जो गारंटी मिलने जा रही है, उसका वितरण आखिर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से ही होना है, जिसकी सभी कडि़या भ्रष्टाचार में गले-गले डूबी हैं। इसे सुधारने की नए खाध सुरक्षा विधेयक में भी कोर्इ कवायद नहीं की गर्इ है। इसलिए राहुल अच्छे से जानते हैं कि गरीब को तीन-चार रोटी भी मिल जाएं तो यह भूखे को राहत भरे निवाले होंगे।

वैसे भी गरीब का पेट भर भोजन, योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से लेकर देशी – विदेशी नेताओं को न केवल अखरता रहा है, बलिक वे इसे अर्थव्यवस्था पर संकट भी मानते रहे हैं। इसलिए गरीब की थाली की कम से कम कीमत जतार्इ जाती है। कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री रशीद मसूद और नेशनल कांफ्रेस के फारुक अब्दुल्ला महज पांच रुपए में पेट भर भोजन सहज उपलब्ध होने की दलीलें देते हैं, वहीं कांग्रेस नेता और अभिनेता राज बब्बर इसे बढ़ाकर 12 रुपए कर देते हैं। गरीबों का भरपेट भोजन विकसित देशो को इतना अखरता है कि ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति बूला, अमेरिकी पूर्व विदेश मंत्री कोंडालिजा राइज और पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने दुनिया में बढ़ती मंहगार्इ का ठींकरा भारत और चीन के गरीबों पर फोड़ दिया था। इनका कहना था कि भारत में नव उदारवाद के दौरान 35 करोड़ आबादी ऐसी हो गर्इ है, जिसकी क्रयशक्ति के बढ़ जाने के कारण वह ज्यादा खाने लगी है। गोया, खान-पान और रोजमर्रा की वस्तुएं मंहगी हो रही हैं। जबकि हकीकत इसके उलट है। भारत में करीब 20 और चीन में करीब 15 फीसदी आबादी ऐसी है, जिसे दो जून की रोटी जुटाना हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद मुश्किल हो रहा है। इन मायनों में यह अच्छी बात है कि देश के प्रधानमंत्री पद के संभावित भावी उम्मीदवार इस हकीकत से रुबरु हैं कि नर्इ खाध सुरक्षा लागू होने के बाद भी गरीब को तीन-चार रोटी ही मिल पाएंगी। इस सच्चार्इ को स्वीकारना इस बात का संकेत भी हो सकता है कि जब गरीब को पेट भर भोजन का वाकर्इ इंतजाम हो जाएगा, तब शायद अनाज की मात्रा प्रति माह बढ़ाकर 8-10 किलो कर दी जाए। तब शायद राहुल गांधी तीन-चार रोटी के नारे को बदल कर नया नारा लगाएं, ‘पेट भर रोटी खाएंगे, कांग्रेस को जिताएंगे। बहरहाल बदलते नारे, मौजूदा समय की हकीकत का प्रगटीकरण होते हैं। जिनमें देश और जीवन की कड़वी सच्चार्इयां छिपी होती हैं।

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