निःस्वार्थ भाव से कर्म करने की प्रेरणा देती है गीता

अशोक “प्रवृद्ध”

 

महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने अपने कर्तव्य से विमुख अर्जुन को उसके कर्तव्य का भान कराने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन किया था । श्रीमद्भगवद्गीता वैराग्य अर्थात भक्तिप्रधान अवतारवाद का ग्रन्थ नहीं अपितु कर्मयोग का ग्रन्थ है , हाँ इसमें अध्यात्म का समावेश अवश्य है । कलियुग के प्रारंभ होने के मात्र तीस वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन, कुरुक्षेत्र के मैदान में, अर्जुन के नन्दिघोष नामक रथ पर सारथी के स्थान पर बैठ कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात गीता का उपदेश किया था। इस तिथि को प्रतिवर्ष गीता जयन्ती का पर्व मनाया जाता है। सम्पूर्ण विश्व में विख्यात श्रीमद्भगवद् गीता ही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जयन्ती मनाई जाती है । भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का दिव्य संदेश यूं तो अर्जुन को दिया था, किन्तु वास्तव में वह तो माध्यम मात्र के लिए था और श्रीकृष्ण उसके माध्यम से समस्त मानव जाति को सचेत करना चाहते थे। गीता सब तरह के संकटों से प्रत्येक मानव को उबारने का सर्वोत्तम साधन है। गीता भयमुक्त समाज की स्थापना का मंत्र देती है। यही मंत्र विश्व में शांति कायम करने में सर्वथा समर्थ है और यही एकमात्र कारण है कि भाजपा सरकार की केन्द्रीय विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने सर्वप्रथम  गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की वकालत करते हुए यह भी कह दिया कि यह सरकार की प्राथमिकता एवं प्रक्रिया में है। मनोचिकित्सकों को अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई के साथ-साथ गीता पढ़ने का परामर्श भी देना चाहिए। इससे भी एक कदम आगे बढ़ाते हुए हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खटटर ने माँग की कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। हरियाणा के शिक्षा मंत्री रामबिलास शर्मा ने गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने की वकालत करते हुए ट्विटर पर लिखा था कि गीता को शामिल करना किसी धर्म ग्रंथ को शामिल करना नहीं है, मानव निर्माण में जो भी पुस्तक, ग्रन्थ या व्यक्ति महत्वपूर्ण है शामिल किया जायेगा, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो। हरियाणा में इस बार राज्य के प्रत्येक जिले में 5152वीं गीता जयन्ती के अवसर पर 17 से 21 दिसम्बर तक गीता महोत्सव का कार्यक्रम केंद्र सरकार की मदद से राज्य सरकार आयोजित कर रही है । अन्य कई राज्यों में भी इस अवसर पर गीता से सम्बंधित कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं। हालाँकि केंद्र व राज्य सरकारों के इस कदम को सेकुलरिज़्म के पुरोधाओं ने विरोध करते हुए सम्पूर्ण देश में बवण्डर खड़ा कर दिया, तथापि मध्यप्रदेश , महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में भी गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात उठती रही है।

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श्रीमद्भगवद्गीता का पूर्ण कथन उपनिषदादि ग्रंथों पर आधारित है। स्वयं श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय के चौथे श्लोक में यह स्वीकार किया है कि जो कुछ भी इस प्रवचन में कहा गया है, वही वेदों में, ऋषियों ने बहुत प्रकार से गान किया है और ब्रह्मसूत्रों में भी उसे युक्तियुक्त ढंग से स्पष्ट किया गया है, परन्तु कुछ भाष्यकारों ने गीता प्रवचन के ऐसे अर्थ निकाले हैं जो वेदादि शास्त्रों के विरोधी हैं जो कदापि मान्य नहीं हो सकते। गीता बहुत ही श्रेष्ठ ग्रन्थ है। गीता के प्रथम अध्याय और दूसरे अध्याय के प्रथम बारह श्लोकों में गीता प्रवचन का उद्देश्य कहा गया है। कोई भी व्यक्ति पुस्तक के उद्देश्य के विपरीत अर्थ नहीं कर सकता। यदि किसी भाष्यकार ने ऐसा कुछ लिख दिया हो जो गीता प्रवचन के उद्देश्य के विपरीत हो तो समझ लेना चाहिए कि किसी साम्प्रदायिक व्यक्ति ने अपने मत का प्रक्षेप किया है। गीता अत्यंत विख्यात पुस्तक होने के कारण अनेक स्वार्थी लोगों ने उसमे श्लोकों को विकृत कर अपने मन की बात सिद्ध करने का यत्न किया है।  यह ऐसे ही है जैसे कोई अँधा व्यक्ति किसी आँखों वाले को बलपूर्वक अपने लक्ष्य स्थान की ओर ले जाने का यत्न करे। अज्ञानी लोग पुस्तक की ख्याति से लाभ उठाकर अपने मार्ग पर उसके अर्थों को मोड़ने का प्रयास करते हैं। उदहारण के रूप में महात्मा गाँधी ने अपने भ्रामक क्रिया-कलापों की पुष्टि के लिए गीता के कंधे पर हाथ रखकर उसमें से अपने मतलब के मनमाने अर्थ निकाले थे। वह अपने भोले-भाले उपासकों को सर्वत्र अहिंसा और अंधश्रद्धा का उपदेश गीता में से बतलाकर उन्हें मिथ्या मार्ग पर ले जाते रहे । गीता का यह उद्देश्य कतई नहीं है। गीता के प्रथम अध्याय में ही यह बतलाया गया है कि गीता रणभूमि में दिया गया प्रवचन है। अर्जुन रण में होने वाली हिंसा से भयभीत होकर युद्ध से भागा जा रहा था तो श्रीकृष्ण ने उसे समझाया था कि धर्म की स्थापना के लिए यत्न पुण्य है। दुष्टों के विनाश और भले लोगों की रक्षा के लिए मैं यहाँ आया हूँ, इत्यादि। महात्मा गाँधी जाति के वैश्य, जैनियों के संस्कारों में पले और अंग्रेजी के भक्त यह देख कि हिन्दुस्तान में हिन्दू लोग गीता पर श्रद्धा रखते हैं, अपनी बात हिन्दुओं से मनवाने के लिए गीता के कन्धों पर हाथ रख देश को मिथ्या मार्ग पर ले गये। परिणामस्वरूप देश विभाजन हुआ और सरकारी आँकड़ों के अनुसार दस लाख लोगों की हत्या हुई । यह सत्य है कि गीता जैसी श्रेष्ठ पुस्तक ऐसी नहीं हो सकती कि उद्देश्य कुछ वर्णन करे और उपदेशक उसके विपरीत अर्थ करने लगे।

 

इसी प्रकार एक अन्य भारतीय विद्वान् स्वामी शंकराचार्य का ऐसा मानना है कि यह संसार मिथ्या है। मनुष्य भ्रम में इसके कार्यक्रम में रुचि ले रहा है। इस कारण वह अपने गीता के भाष्य में यह कह गये हैं कि गीता वैराग्य की शिक्षा देती है। संसार मिथ्या है इसके मोह में फँसने से बचना चाहिए । यह भी गीता के कहने के उद्देश्य से सर्वथा विपरीत बात है । युद्ध लड़ा जा रहा था राज्य के लिए। यदि संसार मिथ्या था तो युद्ध जो राज्य-प्राप्ति के लिए लड़ा जा रहा था वह व्यर्थ ही सिद्ध होता। तो फिर गीता का प्रवक्ता किसलिए बार-बार कहता था – हे अर्जुन! युद्ध करो। इससे ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। शंकराचार्य ने गीता पर भाष्य करते हुए यह गलत बात लिखी है। उन्होंने बलपूर्वक अपने बने विचारों को गीता पर थोपना चाहा है। गीता वैराग्य का, कर्म से विरक्त होने का प्रवचन नहीं है। इसी प्रकार कई लोगों ने गीता का भाष्य करते हुए लिखा है कि एकमेव परमात्मा ही है, जीवात्मा तथा प्रकृति माया है। अर्थात केवल काल्पनिक है। ऐसी बात गीता में नहीं है। अतः यह सिद्धप्राय है कि गीता जीवन के प्रायः पूर्ण कार्यक्रम में पथ-प्रदर्शक है। यह संसार के संघर्ष में जुट जाने का उपदेश देने के लिए कहा गया प्रवचन है।

 

बुद्धि से विचार कर निःस्वार्थ भाव से संघर्ष करने की बात इसमें कही गई है। जब मनुष्य अपने कर्म, चाहे वे हिंसा से सिद्ध हों अथवा अहिंसा से, बुद्धि से विचार कर निःस्वार्थ भाव से कर्म करता है तो वह कर्म धर्मान्तर्गत ही होना है। युद्ध के अतिरिक्त भी जीवन की प्रायः सब समस्याओं का समाधान इस छोटी सी पुस्तक में किया गया है। इसी कारण जीवन संघर्ष में बच्चों को तैयार करने के लिए विद्यालय-महाविद्यालय की शिक्षा के अतिरिक्त नित्य प्रातः इस पुस्तक का स्वाध्याय उत्तम माना गया है। धर्म की स्थापना के लिए बुद्धि से विचारित कर्म अपना स्वार्थ छोड़कर करने की प्रेरणा इस ग्रन्थ में दी गई है। अतः इसका पाठ, उस पर चिंतन और वार्त्तालाप परिवार में नित्यप्रति प्रातः काल होना चाहिए। जिससे बुद्धि निर्मल होगी और निर्मल बुद्धि से कर्म करने पर जब योजना बनेगी तो निःसन्देह उसमे सफलता प्राप्त होगी।

 

भगवद्गीता में आत्मा को उन्नत करने के लिए ज्ञान यज्ञ की बहुत महिमा कही गई है। अर्थात ज्ञान को दूसरों से बाँटकर प्रयोग करने को ज्ञान यज्ञ कहा गया है।वहाँ कहा है कि प्रत्येक कर्म की समाप्ति ज्ञान में होती है और ज्ञान से मोक्ष अर्थात परमसुख प्राप्त होता है। ज्ञान का अभिप्राय केवल परमात्मा का ज्ञान ही नहीं है, वरन सबका सत्य ज्ञान से अभिप्राय है। इसी सन्दर्भ में गीता में बुद्धि को परिमार्जित करने का उपाय बताया है। इन्द्रियों को संयम में रखने अर्थात इनका प्रयोग उचित कामों में करने के लिए कहा है। कर्म का औचित्य देखने के लिए विचार करना उपाय बता दिया है। इसके स्वाध्याय से, वह त्रुटि जो, वर्तमान शिक्षा में है, बहुत सीमा तक दूर हो जाती है। गीता वेद के बहुत समीप है और उपनिषदों से भी अधिक वेदानुकूल है।उपनिषद् तो बहुत कुछ वेद विरूद्ध भी हैं। गीता का अध्ययन करने वाला विद्यार्थी, वर्तमान सरकारी शिक्षा से शिक्षित होकर उक्त स्वाध्याय को करता हुआ अपना मार्ग संसार में सहज ही बना सकता है । श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा काव्य है, जिसमें मानव मन को अनुशासित करने के लिये मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया गया है। हम दुसरे शब्दों में, यह एक मनोविज्ञान की प्रयोगशाला है, जिसके प्रयोग और परिणाम दोनों सफल रहे हैं। यही कारण है कि सहस्राब्दियाँ बीत जाने के पश्चात् भी गीता का आकर्षण कम होता दिखायी नहीं पड़ता। यह मात्र कृष्ण और अर्जुन के मध्य होने वाला संवाद नहीं है। इसमें तो मानव मन की दुर्बलताओं को समझते हुए मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा मन को अनुशासित किया गया है।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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