निर्भया मामला : जरूरत है न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने की

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लिमटी खरे

रूपहले पर्दे पर अनेक चलचित्रों में देश की न्याय व्यवस्था को आईना दिखाया जाता है। तारीख पर तारीख मिलने की बातों से आम भारतीय अनिभिज्ञ नहीं है। संविधान के निर्माण के साथ ही उस दौर में बनाए गए कानूनों, कानूनी प्रक्रियाओं का एक बार पुनरीक्षण करने की जरूरत महसूस हो रही है। सात साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड के वक्त देश का कोई भी इलाका ऐसा न होगा जहां इसको लेकर प्रदर्शन न किए गए हों। उस वक्त हो रहे प्रदर्शनों से लगने लगा था कि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी, पर ऐसा हुआ नहीं। यह वास्तव में मानवता के नाम पर एक घिनौना, बदनुमा दाग ही था। सात साल बाद इसके चार आरोपियों के डेथ वारंट पर हस्ताक्षर हो पाए हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में न्याय व्यवस्था किस तरह कच्छप गति से चल रही है।

16 दिसंबर 2012 की तारीख कोई कैसे भूल सकता है। इसी रात दिल्ली में एक युवती के साथ निर्दयता पूर्वक बलात्कार किया गया था। बलात्कार की इस घृणित घटना के बाद सारे देश में आक्रोश फैल गया था। लोग विशेषकर युवा सड़कों पर उतर आए थे। इस दौरान एक ही बात उभरकर सामने आ रही थी कि हर कोई चाह रहा था कि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इस बात का संकल्प लिया जाए।

सात साल तक चले प्रकरण के बाद अंततः पूरे देश को हिलाकर रख देने वाले निर्भया मामले में दिल्ली की एक अदालत के द्वारा डेथ वारंट जारी कर ही दिया गया है। इसके चार आरोपियों को दोषी माना गया है और उन्हें 22 जनवरी को सुबह फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा। 22 जनवरी को चार लोगों को फांसी देकर इस प्रकरण का पटाक्षेप हो जाएगा, इस बात पर भी संशय ही दिख रहा है। इसका कारण यह है कि दोषियों के वकीलों के द्वारा यह दावा किया जा रहा है कि उनके पास अभी भी कुछ कानूनी विकल्प शेष रह गए हैं। किसी भी व्यक्ति, वाहे वह दोषी क्यों न हो, को देश के कानून में उपलब्ध विकल्पों के प्रयोग का पूरा अख्तियार है, पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह के विकल्पों की आड़ में सजा में विलंब कितनी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

दिसंबर 2012 में घटी इस घटना, जिसने समूचे देश को भरी सर्दी में भी सड़कों पर उतार दिया था उसके दोषियों को सजा दिलवाने में सात साल का लंबा समय लगना वास्तव में अनेक प्रश्न चिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इस मामले में अपना फैसला सुना दिया गया था।

निर्भया प्रकरण के बाद बलात्कार से जुड़े काूननों में बदलाव हेतु जस्टिस जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई जिसके द्वारा सुझाव दिए गए। इस समिति के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता में बदलाव के साथ ही साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम में बदलाव के सुझाव भी दिए। उस दौरान बलात्कार के दोषियों को सजाए मौत की मांग जोर पर थी। इस समिति के द्वारा यह सिफारिश भी की गई। इन सिफारिशों के तीन माह के बाद ही कानून में बदलाव का अधिनियम भी पारित कर दिया गया। नए कानून में कड़े दण्ड के प्रावधानों के पीछे मंशा यही प ्रतीत हो रही थी कि इसके जरिए समाज में यह संदेश देने का प्रयास किया जाए कि इस तरह के अपराध के लिए प्रेरित होने वाले लोग इससे भयाक्रांत हों। इसके बाद भी इस तरह की वारदातें रूकने का नाम नहीं ले रही हैं।

यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि निर्भया के माता पिता को न्याय पाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े हैं। यह एक ऐसा मामला था जो देश भर की आवाज बन गया था, इसलिए इससे जुड़े हर अपडेट लोगों तक पहुंच रहे थे, किन्तु इस तरह के अनेक मामले ऐसे भी होंगे जो न तो अखबारों की सुर्खियां बन पाए होंगे और न ही चेनल्स की खबरों में इन्हें स्थान मिल पाया होगा। इन लो प्रोफाईल मामलों में पीड़ितों के परिवारों को नयाय पाना पहाड़ पर चढ़ने जैसा दुष्कर कार्य ही साबित हो रहा होगा।

कहा जाता है कि न्याय मिलने में विलंब को वास्तव में न्याय मिलने से इंकार ही माना जाता है। इसके बाद भी देश के हुक्मरान और सबसे बड़ी पंचायत (संसद) के पंच (सांसद) इस दिशा में फिकरमंद नजर नहीं आ रहे हैं, न ही प्रयास करते दिख रहे हैं कि इस तरह की व्यवस्थाएं सुनिश्चित की जाकर कानून बनाए जाएं तकि न्याय मिलने में देरी न हो पाए। जब भी इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आती हैं उसके बाद नीति निर्धारक एक्शन में आने के बजाए उपदेशक की भूमिका में नजर आने लगते हैं। यही कारण है कि देश में लोकतंत्र की मर्यादाएं भी तार तार होती दिखती हैं।

इसके अलावा हमारा समाज किस दिशा में आगे बढ़ रहा है इस बात पर भी विचार करना जरूरी हो गया है। मोबाईल, इंटरनेट, सोशल मीडिया आदि में पसरी अश्लीलता पर लगाम लगाने के प्रयास संजीदगी से नहीं होना भी इसकी एक वजह समझ में आती है। इतना ही नहीं छोटे पर्दे (टेलीविजन) पर टीआरपी के चक्कर में सीरियल्स में शराब पार्टियों, भड़काऊ पोशाकें, एक्सट्र मेटरनल अफेयर्स, परोक्ष तौर पर नशे को बढ़ावा देने वाले सीरियल्स की भरमार दिखाई देती है। इन पर केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय का सीधा नियंत्रण होने के बाद भी कोई कदम नहीं उठाए जाने का ही परिणाम है समाज में फैल रही विकृति। समाज को भी इस बात को भली भांति समझने की जरूरत है कि दुष्कर्म के प्रकरणों में केवल कठोर सजा के प्रावधानों के जरिए इसको नियंत्रित कतई नहीं किया जा  सकता है। इसके लिए समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए जिम्मेदार नागरिकों के द्वारा भी कहीं न कहीं अपने कर्तव्यों का निर्वहन ईमानदारी से न किया जाना भी एक कारण के रूप में सामने आ रहा है।

हाल ही में झारखण्ड की राजधानी रांची, उत्तर प्रदेश के उन्नाव और तेलंगाना की राजधानी हैदाराबाद में हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार काण्ड सहित देश भर में प्रकाश में आने वाले इस तरह के प्रकरणों से तो यही साबित हो रहा है कि देश में युवतियां अभी भी सुरक्षित नहीं हैं। इसके लिए और कठोर कानून बनाए जाने की दरकार है।

देखा जाए तो हर राज्य को भी यह चाहिए कि वे प्रत्येक जिले में बलात्कार या महिला उत्पीड़न से संबंधित मामलों के लिए फास्ट ट्रेक कोर्ट बनाए। इन मामलों के निष्पादन के लिए समय सीमा तय की जाए। आरोपी कितना भी बलशाली, रसूखदार या धनसंपन्न क्यों न हो उसके साथ भी वैसा ही सलूक किया जाए और अगर समय सीमा में इस तरह के मामलों में सजा होने लगेगी तो इसका संदेश भी बेहतर जाएगा।

वैसे अगर सामाजिक न्याय विभाग के द्वारा देश भर में ईमानदारी से जन जागृति अभियान चलाया जाए जिसमें बलात्कार जैसी घटनाओं से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में विस्तार से बताया जाए, महिलाओं को उनकी सुरक्षा के मामलों में जागरूक किया जाए, इस तरह के अपराधों से किस तरह बचा जा सकता है इसके लिए डाक्यूमेंट्री बनाई जाकर सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म पर इन्हें  प्रसारित किया जाए तो निश्चित तौर पर इसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं, क्योंकि यह सब कुछ कुण्ठित मानसिकता के चलते ही होता है, इसके लिए कुण्ठा को दूर करने के लिए युवाओं की काऊॅसलिंग करने की कवायद भी सरकारों को करना होगा।

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