नीतीश-लालू की एकजुटता बेमानी

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बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। पांच चरणों में संपन्न होने वाले चुनावों में अभी तमाम उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकते हैं किंतु अभी जिन बातों को लेकर प्रमुख रूप से चर्चा हो रही है, उसमें एक प्रमुख बात यह है कि ंइस बार के चुनावों में नीतीश-लालूं की जोड़ी क्या गुल खिलायेगी? क्योंकि पिछली विधानसभा का चुनाव नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था, तब और अब की परिस्थितियों में काफी अंतर आ चुका है।
बिहार में यदि नीतीश कुमार की छवि विकास पुरुष एवं सुशासन बाबू की बनी थी तो इसमें भाजपा की भी बहुत
महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। चूंकि, नीतीश कुमार अब लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस पार्टी के साथ हैं। जहां तक लालू प्रसाद यादव की बात है तो उन्हें बिहार में विकास की बात कभी रास ही नहीं आई, वे तो सिर्फ जातीय समीकरणों की बदौलत बिहार में अपनी राजनीति करते रहे किंतु जब बिहार के लोगों को लगा कि लालू यादव का विकास से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है तो उन्हें नकार दिया। बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्राी नीतीश कुमार लालू प्रसाद पर कटाक्ष करते हुए कहा करते थे कि लालू की बातों का क्या जवाब देना, क्योंकि वे तो थेथरोलॉजी में पीएचडी हैं। बिहार चुनावों की दृष्टि से यदि देखा जाये तो देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का कोई वजूद ही नहीं बचा है। नीतीश एवं लालू के साथ जाना उसकी मजबूरी है।
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सभी सीटों पर लड़कर मात्रा 4 सीटें ही प्राप्त की थी, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि वह अकेले लड़ती तो उसका क्या हाल होता? इससे प्रमुख बात यह है कि भाजपा के साथ जब नीतीश कुमार थे तो उनकी पार्टी ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती थी और वे बड़े भाई की भूमिका में नजर आते थे किंतु अब उन्हें लालू यादव के समक्ष बराबरी पर खड़ा होना पड़ रहा है। 101 सीटों पर यदि जद(यू) लड़ेगा तो उतनी ही सीटों पर राजद भी लड़ेगा। कांग्रेस पार्टी के खाते में 41 सीटें आई हैं।
नीतीश एवं लालू के महागठबंधन में दरार पड़ चुकी है। गठबंधन के सबसे बड़े नेता एवं अभिभावक सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव गठबंधन से बाहर आ गये हैं और उन्होंने एक तीसरा गठबंधन बना लिया है, जिसमें सपा, एनसीपी,पप्पू यादव की पार्टी एवं कुछ अन्य दल और भी हैं। साथ ही मुलायम सिंह यादव ने नीतीश कुमार को धर्मनिरपेक्ष नेता मानने से भी इनकार कर दिया है। नीतीश कुमार के व्यवहार से जीतनराम मांझी भी छिटके थे। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से पप्पू यादव भी उनके व्यवहार की वजह से ही दूर हुए थे। ऐसे में देखा जाये तो महा गठबंधन की जो एकजुटता साबित की जा रही थी, अब तार-तार हो चुकी है।
इन परिस्थितियों में यदि भारतीय जनता पार्टी की बात की जाये तो उसका पलड़ा भारी दिख रहा है। पलड़ा भारी इसलिए दिख रहा है कि भाजपा ने कभी भी जाति एवं धर्म के नाम पर वोट लेने की योजना नहीं बनाई। वह सिर्फ अपने विकास के ही एजेन्डे पर बात करती
रही है।
बिहार में प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी की जितनी भी रैलियां संपन्न हुईं, उसमें उन्होंने कभी भी जाति एवं धर्म की बात नहीं की, इसके विपरीत यदि नीतीश-लालू की बात की जाये तो इन लोगों ने जाति, धर्म से लेकर हर स्तर की बात की। पटना में रैली के दौरान लालू प्रसाद यादव ने कहा कि यादव टूटने वाले नहीं हैं। यादवों का वोट सिर्फ उन्हें ही मिलेगा। इस प्रकार की बात कहकर वे क्या साबित करना चाहते हैं? बिहार के विकास के लिए प्रधानमंत्राी ने आर्थिक पैकेज का जो ऐलान किया है, उसका मकसद सिर्फ चुनावों में लाभ लेना ही नहीं है बल्कि भारतीय जनता पार्टी एवं प्रधानमंत्राी दिल से बिहार का विकास करना चाहते हैं।
भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए की बात की जाये तो इस गठबंधन के बारे में एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि एनडीए में कोई भी सहयोगी दल ऐसा नहीं है जो भाजपा को असहज स्थिति में डाल सके। श्री रामविलास पासवान यदि एनडीए के साथ हैं तो वे केन्द्र सरकार में मंत्राी भी हैं। इसी प्रकार उपेन्द्र सिंह कुशवाहा भी केन्द्र सरकार में मंत्राी हैं किंतु यदि नीतीश-लालू की बात की जाये तो उन लोगों का मिलन वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले का होता है। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि नीतीश कुमार ने बहुत मजबूरी में लालू से हाथ मिलाया होगा।
जनता दल(यू), राजद और कांग्रेस के कार्यकर्ता आपस में मिलकर कितना और कैसे काम करेंगे, आसानी से समझा जा सकता है। नीतीश एवं लालू के कार्यकर्ता एक-दूसरे को हजम नहीं कर पा रहे हैं। नीतीश जब भाजपा के साथ थे तो विकास के नाम पर भाजपा कार्यकर्ता किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार रहते थे, क्योंकि भाजपा के लिए राष्ट्रहित एवं विकास सबसे पहले है, बाकी चीजें बाद में हैं। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं वर्तमान गृहमंत्राी राजनाथ सिंह अक्सर कहा करते हैं कि भाजपा सिर्फ सरकार बनाने के लिए राजनीति नहीं करती है, बल्कि समाज बनाने के लिए राजनीति करती है।
इस प्रकार की व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक बातें जो राष्ट्र एवं समाज के हित में होती हैं, भाजपा के एजेंडे में प्राथमिकता में होती हैं। बिना किसी लोभ एवं लालच के भाजपा कार्यकर्ता जिस प्रकार भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए लगातार काम में जुटे हैं, यही तो भाजपा की असली पूंजी है।
बिहार की वस्तु स्थिति यह है कि नीतीश कुमार की अपील पर राजद के प्रत्याशियों को और लालू यादव की अपील पर जनता दल(यू) के प्रत्याशियों को वोट मिल जायें और दोनों दलों के कार्यकर्ता आपसी समन्वय के साथ कार्य कर लें, ऐसा संभव नहीं लग रहा है। जब इस प्रकार की स्थिति हो तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि किस गठबंधन का पलड़ा भारी होगा।
नीतीश कुमार एवं लालू प्रसाद यादव जिस स्तर की राजनीति करते हैं, उस स्तर पर भाजपा भले ही न जा सके, किंतु जुमलेबाजी में प्रधानमंत्राी नरंेद्र मोदी कहीं से भी कम नहीं पड़ने वाले हैं। बिहार की रैली में प्रधानमंत्राी ने जिस तरह राजद एवं जनता दल(यू) का नामकरण किया उससे नीतीश एवं लालू की घिघ्घी बंध गई। दोनों पार्टियों का नामकरण करने की आवश्यकता प्रधानमंत्राी को क्यों महसूस हुई? इसके पीछे भी नीतीश एवं लालू की राजनीति जिम्मेदार है।
लालू प्रसाद यादव भाजपा को ‘भारत जलाओ पार्टी’ कहा करते थे तो नीतीश कुमार प्रधानमंत्राी के टोपी न पहनने पर उनके ऊपर कटाक्ष किया करते थे। प्रधानमंत्राी ने रैली में जब यह कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि कौन भुजंग प्रसाद है और कौन चंदन कुमार तो लालू एवं नीतीश तिलमिला गये। वैसे भी देखा जाये तो हिन्दुस्तान की राजनीति में व्यक्तिगत रूप से जितना राजनैतिक प्रहार प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी पर किया गया, शायद ही किसी नेता पर किया गया हो। कौन कितना धर्मनिरपेक्ष है, क्या इसका प्रमाण पत्रा भाजपा एवं प्रधानमंत्राी को नीतीश एवं लालू से लेना पड़ेगा।
नीतीश कुमार ने एक लंबे समय तक भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाई है। तब क्या उसे भाजपा धर्मनिरपेक्ष लगती थी, जो आज नहीं लग रही है। आखिर भाजपा में ऐसा कौन-सा परिवर्तन आ गया जिससे वह नीतीश कुमार को सांप्रदायिक लगने लगी। वर्तमान परिस्थितियों में निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि बिहार में किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाये तो भारतीय जनता पार्टी एवं एनडीए का पलड़ा भारी दिख रहा है।
नीतीश-लालू के गठबंधन में कांग्रेस पार्टी की यदि बात की जाये तो महागठबंधन का और भी पर्दाफाश हो जायेगा। आज हिन्दुस्तान की जो हालत है वह किसके कारण हुई है, किसी से छिपा नहीं है। यह तो ईश्वर की महती कृपा है कि भारत को नरेंद्र मोदी के रूप में नेतृत्वकर्ता मिल गया अन्यथा देश की क्या स्थिति होती यह तो ऊपर वाला ही जानता है। कांग्रेस एवं लालू को साथ लेकर नीतीश कुमार किस मुंह से भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करेंगे जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करने एवं उससे लड़ने के लिए भाजपा के पास एक ठोस आधार है।
काला धन के मुद्दे पर सबसे पहले बात करने वाले भाजपा के शीर्ष नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ही थे। लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने विकास, कालाधन एवं भ्रष्टाचार के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था। लोकसभा चुनाव के बाद जितने भी राज्यों में चुनाव संपन्न हुए, उसमें भी भाजपा ने इन्हीं मुद्दों को प्रमुखता दी। कुल मिलाकर यदि विश्लेषण किया जाये तो एनडीए एवं भारतीय जनता पार्टी बिहार विधानसभा के चुनावों में हर दृष्टि से आगे दिख रही है एवं नीतीश-लालू का गठबंधन बेमानी है।

  • अरूण कुमार जैन

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