राजनीति

निवेश की भ्रामक अवधारणा

शैलेंद्र चौहान
“अच्छे दिन आने वाले हैं” का सपना महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से जूझ रही जनता को बहुत विश्वास के साथ दिखाया गया था. आम आदमी की उम्मीदें थीं कि महंगाई से राहत मिलेगी लेकिन बात अब सिर्फ और सिर्फ विदेशी निवेश की हो रही है. निवेश कोई चैरिटी तो है नहीं वह तो एक बड़े मुनाफे के लिए होता है. सरकार सभी तरह की सुविधाएँ मुहैया कराये और टैक्स में छूट दे. यह सही है कि तकनोलॉजी के विशेष क्षेत्रों में निवेश चाहिए और आधारभूत ढांचे के विकास के लिए भी निवेश निवेश जरुरी है पर कितना निवेश वास्तव में आवश्यक है यह जानना भी जरुरी है. अंधाधुंध निवेश, आत्मनिर्भरता को समाप्त कर परनिर्भरता की ओर धकेलता है. एक बड़े कर्जे के तले दबना एक घातक परिणाम का भी द्योतक होता है. यह देश की आवश्यकताओं के लिए नहीं बल्कि भारत के बड़े पूंजीपतियों और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे के लिए के लिए है. हमारा अपना आर्थिक ढांचा मजबूत करने की बजाय उसे खोखला करना बेहद खतरनाक है. निरंतर गति से बढ़ती महंगाई और शोषण के बीच चोली-दामन का संबंध है. सरकार ने बाजार की ताकतों को इतना प्रश्रय और समर्थन प्रदान कर दिया है कि घरेलू बाजार व्यवस्था नियंत्रण से बाहर होकर बेकाबू हो चुकी है. महंगाई वास्तव में ताकतवर अमीरों द्वारा गरीबों को लूटने का एक अस्त्र है. सटोरिए, दलाल और बिचौलिए इसमें सबसे अहम किरदार हो गए हैं. गत वर्षों के दौरान देश का किसान और अधिक गरीब हुआ fdiहै जबकि उसके द्वारा उत्पादित खाद्य पदार्थों के दामों में भारी इजाफा दर्ज किया गया. यह समूचा मुनाफा अमीरों की जेबों में चला गया। देश के अमीरों की अमीरी ने अद्भुत तेजी के साथ कुलांचें भरीं. दूसरी ओर साधारण किसानों में गरीबी का आलम है. आम आदमी की रोटी-दाल किसानों ने नहीं, वरन बड़ी तिजोरियों के मालिकों ने दूभर कर दी है. वस्तुतः समस्त देश में आर्थिक-सामाजिक हालात में सुधार का नाम ही वास्तविक विकास है. एक वर्ग के अमीर बनते चले जाने और किसान-मजदूरों के दरिद्र बनते जाने का नाम विकास नहीं बल्कि देश का विनाश है. अपना खून-पसीना एक करके उत्पादन करने वाले किसानों की कमर कर्ज से झुक चुकी है. रिटेल बाजार में खाद्य पदार्थों के दाम चाहे कुछ भी क्यों न बढ़ जाएँ, किसान को इसका फायदा कदाचित नहीं पहुंचता. इतना ही नहीं, धीरे-धीरे उनके हाथ से उनकी जमीन भी छिनती जा रही है. हिन्दुस्तान के आजाद होने के बाद कृषि और कृषक संबंधी ब्रिटिश राज की रीति-नीति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया. आज भी लगभग वही कानून चल रहे हैं जो अंग्रेजों के शासनकाल में चल रहे थे. देश का 80 करोड़ किसान शासकीय नीति से बाकायदा उपेक्षित है। सबसिडी कम करना या समाप्त करना मौलिक सोच नहीं है. यह अंतर्राष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है. विकसित देशों में खेती और निम्न आय वाले व्यक्तियों के लिये अनेकों प्रावधान हैं. वर्तमान राजनैतिक समीकरण ने संभवत: शासक वर्ग को कुछ अधिक ही आश्वस्त कर दिया है कि आम आदमी के रोष से निकट भविष्य में उसकी सत्ता को कोई खतरा नहीं है.
गत वर्ष चुनाव के पहले नरेन्द्र मोदी ने खाद्य सुरक्षा अध्यादेश पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी था. इस चिट्ठी में मोदी ने दुख जताया था कि “खाद्य सुरक्षा का अध्यादेश एक आदमी को दो जून की रोटी भी नहीं देता.” खाद्य-सुरक्षा के मामले पर लोकसभा में 27 अगस्त 2013 को बहस हुई तो उसमें भी ऐसे ही उद्‌गार सामने आए. तब भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने इसको ऊँट के मुंह में ज़ीरा डालने की कसरत के माफिक कहा था. अब इन बातों के भुला दिए जाने की एक वजह है इनका सामाजिक नीति विषयक उस गल्प-कथा से मेल न खाना जिसे भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने गढ़ा था. भारत में कानून व्यवस्था की स्थिति बेहद खराब है, यहाँ बिना किसी प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे में सुधार तथा बिना जवाबदेही के कानून लागू किये जाते है. ऐसे में यह सवाल कि व्यवस्था में वह बदलाव क्यों नहीं आ रहा है, जिससे लोगों की जिन्दगी और जीवन स्तर में असल बदलाव हो सके. पुलिसिया तंत्र में बदलाव और उनकी अच्छी आर्थिक स्थिति होने पर ही उनकी गुणवत्ता और कार्यशैली सुधर सकती है. उन्हें अच्छी सुविधाएं भी मिलनी चाहिये और आधुनिक उपकरण भी. यह राज्यों का विषय हो सकता है पर नीति निर्धारण और समयानुकूल आर्थिक ढांचा केन्द्र सरकर की ही जिम्मेदारी है. बजट में इसके आर्थिक पक्ष को लेकर महत्वपूर्ण प्रावधान आवश्यक है. इससे ही आम आदमी के जीवन में बेहतरी संभव है. मात्र रेवड़ियां बांट कर भारत की छवि नहीं चमक सकती. साथ ही लोक कल्याणकारी योजनाओं को अधिक सशक्त व युक्तिपूर्ण बनाने की अवश्यकता है. बीमा विधेयक और भूमि अधिग्रहण विधेयक इसके प्रत्यक्ष उदहारण हैं. राज्यसत्ता के रूप में भारत, राजनेताओं की “नानी-दादी का घर” बनता जा रहा है जो सभी पार्टियों के लिये सच है. इस वक़्त कॉँग्रेस सबसे खराब स्थिति में है. चुनावों के पहले बीजेपी नेताओं ने यह जमकर प्रचारित किया कि सामाजिक मद में कांग्रेस सरकार दोनों हाथ खोलकर धन लुटा रही है जो ज्यादा दिन नहीं चलने वाला, सामाजिक मद में होने वाला ख़र्च ज्यादातर बर्बाद जाता है – यह एक “भीख” की तरह है और भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक निकम्मेपन की वजह से ग़रीब तबक़े को हासिल नहीं होता. इस भारी-भरकम फिजूलख़र्ची के पीछे उन पुरातनपंथी नेहरूवादी समाजवादियों का हाथ है जिन्होंने यूपीए शासनकाल में देश को ग़लत राह पर धकेल दिया. मतदाताओं ने इस रवैए को स्वीकार कर लिया कि लोग विकास (ग्रोथ) चाहते हैं, अधिकार नहीं. और, भ्रांति यह कि भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने इन बेबकूफियों को दुरुस्त करने और लोक-कल्याणकारी राज्य के आभासी कारोबार को समेटने का मन बना लिया है. ये दावे बार-बार दोहराए जाने के कारण सच से जान पड़ते हैं लेकिन वे असल में निराधार हैं. इन दावों की एक-एक बात की जाँच की जाये तो लब्बोलुबाब यह कि- कहना कि भारत में सामाजिक मद में किया जाने वाला ख़र्चा बहुत ज़्यादा है तथ्यों से परे तो है ही हास्यास्पद भी है. यह गल्प-पुराण कई भ्रांतियों को समेटकर बना है. वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडिकेटर्स (डब्ल्यूडीआई) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, “सबसे कम विकसित देशों” के 6.4 प्रतिशत की तुलना में भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा के मद में सरकारी ख़र्चा जीडीपी का महज़ 4.7 प्रतिशत, उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में 7 प्रतिशत, पूर्वी एशिया के देशों में 7.2 प्रतिशत तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीसीडी) के देशों में 13.3 प्रतिशत है. एशिया डेवलपमेंट बैंक की एशिया में सामाजिक-सुरक्षा पर केंद्रित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत इस मामले में अभी भी बहुत पीछे है. रिपोर्ट के अनुसार भारत में सामाजिक सहायता के मद में जीडीपी का महज 1.7 फीसद हिस्सा ख़र्च होता है, जबकि एशिया के निम्न आय-वर्ग की श्रेणी में आने वाले देशों में यह आंकड़ा 3.4 प्रतिशत, चीन में 5.4 प्रतिशत और एशिया के उच्च आय-वर्ग वाले देशों में 10.2 प्रतिशत है. ‘सामाजिक मद में होनेवाला ख़र्च बर्बाद जाता है,’ इस विचार का भी कोई वस्तुगत आधार नहीं हैं. आर्थिक विकास के लिए लोगों के जीवन में बेहतरी और शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने की क्या अहमियत है ये आर्थिक शोधों में साबित हो चुका है. केरल से लेकर बांग्लादेश तक, सरकार ने जहां भी स्वास्थ्य के मद में हल्का सा ज़ोर लगाया है वहां मृत्यु-दर और जनन-दर में कमी आई है. भारत के मिड डे मील कार्यक्रम के बारे में दस्तावेजी साक्ष्य हैं कि इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति, उनके पोषण और तथा पढ़ाई-लिखाई की क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव हुआ है. मात्रा में बहुत कम ही सही लेकिन सामाजिक सुरक्षा के मद में दिया जाने वाली पेंशन लाखों विधवाओं, बुज़ुर्गों और देह से लाचार लोगों की कठिन जिंदगी में मददगार साबित होती है. ग़रीब परिवारों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) आर्थिक सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण ज़रिया बन चला है. बिहार और झारखंड जैसे राज्यों जहां पीडीएस बड़ा खस्ताहाल हुआ करता था वहां भी इसका लाभ हुआ है. यह बात ठीक है कि सामाजिक सुरक्षा के मद में होने वाले ख़र्च में कुछ अपव्यय होता है जाहिरा तौर पर यह प्रशासनिक- राजनीतिक भ्रष्ट दर्शन है. लेकिन इन दोनों ही मामलों में समाधान पूरी व्यवस्था को खत्म करने में नहीं बल्कि उसे सुधारने में है, और ऐसा किया जा सकता है.