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मनोज ज्वाला
भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 370 के निरस्तीकरण और जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन का वास्तविक प्रयोजन उस रियासत को भारत गणराज्य की मुख्यधारा में शामिल करना है। अनुच्छेद 370 का नाजायज इस्तेमाल कर राज्य-सरकार की शह पर बीते 70 वर्षों में हिन्दू-बहुल जम्मू व लद्दाख को छोड़ लगभग समूचे कश्मीर को फिरकापरस्तों ने मिनी पाकिस्तान बना दिया है। हमारे प्राचीन ऋषियों की तपस्थली व कर्मस्थली और वेद-ऋचाओं की रचनास्थली रही उस भूमि पर ऐसे तमाम प्रतीकों-अवशेषों-चिह्नों को मिटाकर उनसे जुड़ी परम्परायें बाधित की जाती रही हैं, जिनसे वहां प्राचीन भारत की पौराणिक विशिष्टताएं व ऐतिहासिक विरासतें परिलक्षित हुआ करती थीं। अनुच्छेद 370 की आड़ में कश्मीरियत के नाम पर समूचे कश्मीर को सांस्कृतिक तौर पर भारत से अलग-थलग दिखाने-बताने का षड्यंत्र चल रहा था।मालूम हो कि आदि शंकराचार्य की तपस्थली होने के कारण जिस ‘गौपद’ पहाड़ी को सदियों से शासनिक दस्तावेजों में भी ‘शंकराचार्य पहाड़ी’ कहा जाता रहा है, उस पहाड़ी का नाम बदल कर पृथकतावादी जिहादियों ने ‘सुलेमान टापू’ रख दिया। हैरत की बात है कि भारत-सरकार के पुरातत्व विभाग ने भी इसी बदले हुए नाम को स्वीकार कर लिया। जाहिर है, राज्य-सरकार के दस्तावेजों से ‘शंकराचार्य पहाड़ी’ नाम गुम हो चुका है। इसी तरह से वहां के ‘हरि पर्वत’ का नाम भी जिहादियों की इच्छानुसार ‘कोह-ए-मारण’ (दुष्टों का पर्वत) कर दिया गया है। अनन्तनाग जिले में अवस्थित प्राचीन ‘उमानगरी’ का नाम तो बहुत पहले ही ‘शेखपुरा’ हो गया है, जबकि उस जिले का भी नाम बदल कर उसे ‘इस्लामाबाद’ कर दिया गया है। स्थानीय मकानों-दुकानों पर ‘इस्लामाबाद’ नाम ही अंकित है। इतना ही नहीं, कश्मीर घाटी में बहने वाली ‘किशनगंगा’ नदी का भी नामान्तरण कर उसे ‘दरिया-ए-नीलम’ नाम बहुत पहले ही दे दिया गया है। श्रीनगर में जिस चौराहे पर जामा मस्जिद अवस्थित है, वह चौराहा भी ‘मदीना चौक’ हो गया है। इन सभी बदले हुए नामों को जम्मू-कश्मीर सरकार के पर्यटन विभाग ने भी मान्यता दे रखा है, जिसके विरुद्ध ‘पनुन कश्मीर’ नामक संगठन हमेशा आपत्तियां दर्ज कराते रहा है। भारत-विरोधी पृथकतावादी जिहादी संगठनों और उनके झंडाबरदारों द्वारा कश्मीर घाटी में ऐतिहासिक शहरों, स्थानों, तीर्थों, नदियों, पर्वतों आदि के नाम बदलने की उस मुहिम का उद्देश्य कश्मीर की भारतीय पहचान को मिटाना और उसे इस्लामी रंग में रंग कर पाकिस्तान का सरपरस्त बनाना-बताना रहा है। इसके लिए वे तरह-तरह के हथकण्डों का इस्तेमाल करते रहे हैं। सबसे पहले स्थानीय लोगों से उनके बोलचाल, कार्य-व्यापार, लोक-व्यवहार में बदले हुए नाम को प्रयुक्त कराते रहना और फिर कुछ दिनों-महीनों-वर्षों में कुछ लोगों की जुबान पर वह नाम आ जाने के बाद उसे स्थापित-प्रचारित करते-कराते हुए सरकार पर दबाव डालकर शासनिक दस्तावेजों में भी तदनुसार तब्दीलियां दर्ज करा देना उनकी रणनीति का हिस्सा रहा है। इसके लिए वे हिन्दी-संस्कृत के ऐसे किसी नाम के उच्चारण में अरबी-फारसी भाषा की संगति बैठाकर उस नाम को विकृत कर देने और फिर उस विकृतिकरण से नामान्तरण को अंजाम देने की चालाकी भी करते रहे हैं। कश्मीर के तीर्थस्थलों में से एक प्रमुख तीर्थ- ‘क्रमसरनाग विष्णुपाद’ की पारम्परिक यात्रा के मार्ग को बाधित करने और उस तीर्थ-स्थान पर मस्जिद के निर्माण का मामला इसी चालाकी का परिणाम है। उल्लेखनीय है कि ‘नीलमत पुराण’ और महाकवि कल्हण के महाकाव्य- राजतरंगिणी में वर्णित ‘क्रमसरनाग विष्णुपाद’ नामक विशाल अलौकिक झील, जो कश्मीर घाटी के दक्षिण में ‘पीर पंजाल’ पर्वत-श्रंखला से सम्बद्ध ‘कपालमोचन’ तीर्थ के निकट ‘ब्रह्मा गिरि’, ‘विष्णु गिरि’ व ‘महेश गिरि’ नामक पर्वत-शिखरों के मध्य अवस्थित है, उसके नाम को भी इसी चालाकी से बदलने की मशक्कत की जाती रही है। ज्ञातव्य है कि कश्मीर में शिव का एक नाम ‘क्रमेश्वर’ भी है। मनु के नौका-विहार व विष्णु के मत्स्यावतार एवं कश्यप ऋषि की तपश्चर्या से सम्बद्ध इस ‘विष्णुपाद झील’ में ‘क्रमेश्वर शिव’ का वास होने की मान्यता रही है। बताया जाता है कि पहले प्रति वर्ष इस विशाल तीर्थ-संकुल की परिक्रमा करने के पश्चात आषाढ़ पूर्णिमा व नाग पंचमी को लोग यहां पूजा-अर्चना किया करते थे। लेकिन अनुच्छेद 370 से सम्पोषित कश्मीरियत की आड़ में ‘क्रमसरनाग विष्णुपाद’ की परिक्रमा-यात्रा को तो जिहादी संगठनों द्वारा बाधित किया जाता रहा है। ‘क्रमसरनाग’ शब्द को ‘कैशरनाग’ में तब्दील करते हुए ‘कैशर’ शब्द को अरबी भाषा का शब्द होने के आधार पर उस तीर्थ के हिन्दू-चरित्र पर ही सवाल उठाया जाता रहा है। ये सब तो महज कुछ उदाहरण मात्र हैं। पिछले 70 वर्षों में सैकड़ों ऐसे नामान्तरण वहां किये जा चुके हैं। सैकड़ों मठ-मन्दिर भी तोड़े जा चुके हैं।भारतीय संस्कृति के विभिन्न प्रतीकों-रुपों-तीर्थों व ऋषियों की सनातन परम्पराओं से समृद्ध कश्मीर की घाटियों-वादियों-तराइयों-उपत्यकाओं पर इस्लाम का रंग चढ़ा कर उन्हें पाकिस्तान-परस्त बनाने-बताने अथवा उनकी भारतीय पहचान को मिटा डालने का जिहादी अभियान चलाने के पीछे पृथकतावादी मजहबी शक्तियों की मंशा केवल और केवल पृथकतावाद को भौगोलिक आयाम देने की रही है। उनके इस अभियान को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 से संरक्षण मिला हुआ था। अब जब उस अनुच्छेद का अवसान हो गया, तब उनके उस अभियान पर अंकुश जरूर लगेगा। साथ ही बीते 70 वर्षों में कश्मीर की भारतीय पहचान का जो क्षरण हुआ है, उसकी भरपाई भी अवश्य होगी, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है। अब निर्वासित कश्मीरी पण्डितों के पुनर्वास की योजना तो क्रियान्वित होनी ही चाहिए। उसके साथ-साथ नामान्तरित सांस्कृतिक प्रतीकों के पुनर्प्रतिष्ठापन का काम भी अवश्य होना चाहिए। किशनगंगा, हरि पर्वत, शंकराचार्य पहाड़ी आदि का वास्तविक नाम पुनर्स्थापित होने से कश्मीरियत का नुकसान हुए बिना उसकी भारतीय पहचान फिर से कायम होगी। पृथकतावादी जिहादियों द्वारा समस्त जम्मू-कश्मीर में जिन 435 मठ-मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया गया है, उन सबका पुनर्निर्माण भी होना चाहिए। अनुच्छेद 370 को निरस्त कर उस राज्य को भारत गणराज्य की मुख्य धारा में समाहित करने के लिए जिस तरह से तमाम प्रकार की जरूरी शासनिक व्यवस्थायें व प्रशासनिक स्थापनायें कायम की जा रही हैं, उसी तरह से उस अलगावकारी धारा के कारण उसकी गुम हो चुकी भारतीय पहचान को पुनः कायम किये जाने के प्रति भी केन्द्र सरकार को तत्परता बरतनी चाहिए। ऐसा इस कारण, क्योंकि कश्मीर की भारतीय पहचान को वहां पुनः कायम किये बिना उसे भारत राष्ट्र की मुख्य धारा में समाहित किये जाने की संवैधानिक पहल तभी पूर्ण हो सकती है, जब उसे सांस्कृतिक पूर्णता भी प्राप्त होगी। अतएव, पृथकतावाद की जिहादी आग में झुलसते रहे नन्दन वन की केसर-क्यारियों से सुरभित उस भारतीय भू-भाग के शासनिक पुनर्गठन के साथ-साथ उसका भारतीयकरण करना भी नितान्त आवश्यक है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)