– वैश्विक स्तर पर बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के खतरे को कम करने के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि इसे सिर्फ मनोचिकित्सा या इसके आस-पास तक ही सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए। इस दिशा में अब जरूरत है कि जन-जन का प्रयास शामिल हो, जिससे हम स्वस्थ भारत का सपना साकार कर सकें।
अमित बैजनाथ गर्ग
मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को इस दशक के लिए बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है। विशेषकर कोरोना महामारी के बाद यह और व्यापक होती नजर आ रही है। वैश्विक स्तर पर साल 2020 के बाद से मनोरोगियों का आंकड़ा काफी तेजी से बढ़ा है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि कई विकसित और विकासशील देशों में हर चार में से एक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के मनोरोग का शिकार है। चिंता-तनाव और अवसाद के केस तेजी से बढ़ रहे हैं, इस खतरे को देखते हुए विशेषज्ञों को चिंता है कि आने वाले 5-8 वर्षों में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा क्षेत्र पर बड़ा दबाव आ सकता है। वैश्विक स्तर पर बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में लोगों को जागरूक करने और इस खतरे को कम करने के लिए हर साल विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसे सिर्फ मनोचिकित्सा या इसके आस-पास तक ही सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए। इस दिशा में अब जरूरत है कि जन-जन का प्रयास शामिल हो, जिससे हम स्वस्थ भारत की कल्पना को चरितार्थ कर सकें।
किसी भी देश के समग्र विकास के लिए लोगों के क्वालिटी ऑफ लाइफ यानी कि गुणवत्तापूर्ण जीवन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसका सीधा संबंध उत्पादकता से है, जो आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण आयाम है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि स्कूली स्तर से ही बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूक किए जाने की आवश्यकता है। इसे पाठ्यक्रम का विषय बनाया जाना चाहिए, जिससे बच्चों में इसकी समझ को विकसित किया जा सके। स्कूली पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल कर अगली पीढ़ी को इसके वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में जागरूक करने में मदद मिल सकती है, जिससे इस दिशा में चले आ रहे कलंक के भाव को कम किया जा सके। इससे लोगों के लिए इस बारे में बात करना, इलाज प्राप्त करना सहज हो सकेगा, जिससे उत्पादकता को बढ़ाने में भी मदद मिल सकेगी।
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर फिलहाल भारत में किए जा रहे प्रयासों के स्तर में विशेष सुधार की आवश्यकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत की जनसंख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसी रफ्तार में भारत में मानसिक बीमारी से जूझने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में रह रहे हर 10,000 में से 2,443 लोग मानसिक समस्या से किसी न किसी तरह से ग्रसित हैं। वहीं इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री की ओर से किए गए सर्वे से पता चला है कि देश में औसतन 4 लाख नागरिकों पर 3 ही मनोचिकित्सक हैं, जबकि कम से कम हर 4 लाख की आबादी पर 12 मनोचिकित्सक होने चाहिए। ऐसे में कहा जा सकता है कि भारत में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। आत्महत्या की बड़ी वजहों में से एक खराब मानसिक स्वास्थ्य भी है। भारत में होने वाली आत्महत्याओं के कारणों में मानसिक समस्या तीसरे नंबर है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2021 में 13,792 लोगों ने मानसिक बीमारियों से जूझते हुए आत्महत्या की थी।
वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 22 लाख 28 हजार मनोरोगी हैं, जबकि लैंसेट की रिपोर्ट कहती है कि भारत में मनोरोगियों की संख्या 16 करोड़ 92 लाख है। एक अन्य अनुमान के अनुसार, भारत की 135 करोड़ की आबादी में 7.5 प्रतिशत (10 करोड़ से अधिक) मानसिक रोगों से प्रभावित हैं। अध्ययन बताते हैं कि 2025 तक भारत की 20 प्रतिशत से भी ज्यादा आबादी किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होगी। 15-29 आयु वर्ग में आत्महत्या की दर भी सर्वाधिक होगी। लगभग एक मिलियन लोग हर साल आत्महत्या करते हैं। इस तरह की बीमारियों की बढ़ती संख्या में अवसाद को तीसरा स्थान दिया गया है, जिसके 2030 तक पहले स्थान पर पहुंचने की उम्मीद है। जहां तक मनोचिकित्सकों का सवाल है तो भारत में एक लाख की आबादी पर 0.3 प्रतिशत मनोचिकित्सक, 0.07 प्रतिशत मनोवैज्ञानिक और 0.07 प्रतिशत सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वहीं विकसित देशों में एक लाख की आबादी पर 6.6 प्रतिशत मनोचिकित्सक हैं। मेंटल हॉस्पिटल की बात करें तो विकसित देशों में एक लाख की आबादी में औसतन 0.04 प्रतिशत हॉस्पिटल हैं, जबकि भारत में यह 0.004 प्रतिशत ही हैं।
भारत अन्य देशों की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में अभी पीछे है। दुनिया के ज्यादातर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5-18 प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं, जबकि भारत का इस दिशा में खर्च 0.05 फीसदी ही है। इसके अलावा भारत में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी भी बड़ी चुनौती है। ग्रामीण क्षेत्रों में उचित मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं का भारी अभाव है। जिला स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम तो तैयार किए गए हैं, लेकिन वहां की स्थिति ठीक नहीं है। आलम यह है कि तमाम राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों को मनोचिकित्सा के लिए राज्य की राजधानी या दिल्ली का रुख करना पड़ रहा है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि कोरोना महामारी के बाद से देश में मानसिक स्वास्थ्य विकारों के केस में 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी आई है। हालांकि सुविधाओं में इस स्तर पर कोई खास सुधार नहीं हुआ है। टेली कंसल्टेंसी जैसी तकनीक ने लोगों के लिए दूर बैठकर भी परामर्श लेना आसान जरूर बनाया है पर अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा और जागरुकता की कमी के चलते ये सेवाएं शहरी आबादी के इर्द-गिर्द ही घूमती ही नजर आ रही हैं।
मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में आगे का रास्ता संभवत: यह हो सकता है कि लोगों को इस बारे में जागरूक किया जाए कि मानसिक स्वास्थ्य किसी भी अन्य शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं की तरह ही है, इसलिए यह प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यही कारण है कि मानसिक स्वास्थ्य को मनोचिकित्सा तक ही सीमित करके देखना बेमानी होगा। मानसिक स्वास्थ्य मौजूदा समय की प्राथमिकता भी है और इससे संबंधित विकार बड़ी चुनौती भी। इन दोनों पर बेहतर तरीके से ध्यान देने के लिए आवश्यक है कि इसमें जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। सोशल मीडिया, एनजीओ, जागरुकता अभियानों आदि के माध्यम से लोगों को मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकताओं के बारे में जागरूक किए जाने की जरूरत है, जिससे लोगों के लिए सहजता से इसका इलाज प्राप्त कर पाना आसान हो, लोग एक-दूसरे से अन्य बीमारियों की तरह इस बारे में भी खुलकर बात कर पाएं। स्वस्थ समाज-स्वस्थ भारत का निर्माण तभी किया जा सकेगा, जब देश का बच्चा-बच्चा मानसिक रूप से स्वस्थ होगा। इसके लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे।