अब प्राथमिकता हो कश्मीरी पंडित पुनर्वास

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19 जन 1990 – कश्मीर पंडितों के नरसंहार और पलायन की पच्चीसवीं पुण्यतिथि –

कश्मीर में 19 जन. 1990 को हुए बर्बर जनसंहार के बाद पच्चीस वर्षों का लम्बा अंतराल बीत गया है जिसमें दिल्ली और श्रीनगर की असंवेदनशीलता के सिवा कश्मीरी पंडितों को कुछ नहीं मिला है. कश्मीर के सर्वाधिक नए जन सांख्यिकीय आंकड़ों पर नजर डाले तो स्वतंत्रता के समय वहां घाटी में 15% कश्मीरी पंडितों की आबादी थी जो आज 1 % से नीचें होकर 0 % की ओर बढ़ गई है. हाल ही के इतिहास में कश्मीर के ज.स. आंकड़ों में यदि परिवर्तन का सबसे बड़ा कारक खोजें तो वह एक दिन यानि 19 जन. 1990 के नाम से जाना जाता है. कश्मीरी पंडितों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ देनें की इस घटना की यह भीषण और वीभत्स कथा 1989 में आकार लेनें लगी थी. पाकिस्तान प्रेरित और प्रायोजित आतंकवादी और अलगाववादी यहाँ अपनी जड़ें बैठा चुके थे. भारत सरकार आतंकवाद की समाप्ति में लगी हुई थी तब के दौर में वहां रह रहे ये कश्मीरी पंडित भारत सरकार के मित्र और इन आतंकियों और अलगाववादियों के दुशमन और खबरी सिद्ध हो रहे थे. इस दौर में कश्मीर में अलगाववादी समाज और आतंकवादियों ने इस शांतिप्रिय हिन्दू पंडित समाज के विरुद्ध चल रहे अपनें धीमें और छदम संघर्ष को घोषित संघर्ष में बदल दिया. इस भयानक नरसंहार पर फारुक अब्दुल्ला की रहस्यमयी चुप्पी और कश्मीरी पंडित विरोधी मानसिकता केवल इस घटना के समय ही सामनें नहीं आई थी. तब के दौर में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला अपनें पिता शेख अब्दुल्ला के क़दमों पर चलते हुए अपना कश्मीरी पंडित विरोधी आचरण कई बार सार्वजनिक कर चुके थे. 19 जन. 1990 के मध्ययुगीन, भीषण और पाशविक दिन के पूर्व जमात-ऐ-इस्लामी द्वारा कश्मीर में अलगाववाद को समर्थन करनें और कश्मीर को हिन्दू विहीन करनें के उद्देश्य से हिज्बुल मुजाहिदीन की स्थापना हो गई थी. इस हिजबुल मुजाहिदीन नें 4 जन. 1990 को कश्मीर के स्थानीय समाचार पत्र में एक एक विज्ञप्ति प्रकाशित कराई जिसमें स्पष्टतः सभी कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई थी. इस क्रम में उधर पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री बेनजीर नें भी टीवी पर कश्मीरियों को भारत से मुक्ति पानें का एक भड़काऊ भाषण दे दिया. घाटी में खुले आम भारत विरोधी नारे लगनें लगे. घाटी की मस्जिदों में अजान के स्थान पर हिन्दुओं के लिए धमकियां और हिन्दुओं को खदेड़ने या मार-काट देनें के जहरीले आव्हान बजनें लगे. एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र अल-सफा ने भी इस विज्ञप्ति का प्रकाशन किया था. इस भड़काऊ, नफरत, धमकी, हिंसा और भय से भरे शब्दों और आशय वाली इस विज्ञप्ति के प्रकाशन के बाद कश्मीरी पंडितों में गहरें तक भय, डर घबराहट का संचार हो गया. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि तब तक कश्मीरी पंडितों के विरोध में कई छोटी बड़ी घटनाएं वहां सतत घाट ही रही थी और कश्मीरी प्रशासन और भारत सरकार दोनों ही उन पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे थे. 19जन. 1990 की भीषणता को और कश्मीर और भारत सरकार की विफलता को इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि पूरी घाटी में कश्मीरी पंडितों के घर और दुकानों पर नोटिस चिपका दिए गए थे कि 24 घंटो के भीतर वे घाटी छोड़ कर चले जाएँ या इस्लाम ग्रहण कर कड़ाई से इस्लाम के नियमों का पालन करें. घरों पर धमकी भरें पोस्टर चिपकाने की इस बदनाम घटना से भी भारत और कश्मीरी सरकारें चेती नहीं और परिणाम स्वरुप पूरी घाटी में कश्मीरी पंडितों के घर धूं-धूं जल उठे. तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला इन घटनाओं पर रहस्यमयी आचरण अपनाए रहे, वे कुछ करनें का अभिनय करते रहे और कश्मीरी पंडित अपनी ही भूमि पर ताजा इतिहास की सर्वाधिक पाशविक-बर्बर-क्रूरतम गतिविधियों का खुले आम शिकार होते रहे. घाटी में पहले से फैली अराजकता चरम पर पहुँच गई. कश्मीरी पंडितों के सर काटे गए, कटे सर वाले शवों को चौक-चौराहों पर लटकाया गया. बलात्कार हुए, कश्मीरी पंडितों की स्त्रियों के साथ पाशविक-बर्बर अत्याचार हुए. गर्म सलाखों शरीर में दागी गई और इज्जत आबरू के भय से सैकड़ों कश्मीरी पंडित स्त्रियों ने आत्महत्या करनें में ही भलाई समझी. बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों के शवों का समुचित अंतिम संस्कार भी नहीं होनें दिया गया था, कश्यप ऋषि के संस्कारवान कश्मीर में संवेदनाएं समाप्त हो गई और पाशविकता-बर्बरता का वीभत्स नंगा नाच दिखा था. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और हिजबुल मुजाहिदीन ने जाहिर और सार्वजनिक तौर पर इस हत्याकांड का नेतृत्व किया था. ये सब एकाएक नहीं हुआ था, हिजबुल और अलगाववादियों का अप्रत्यक्ष समर्थन कर रहे फारुख अब्दुल्ला तब भी चुप रहे थे या कार्यवाही करनें का अभिनय मात्र कर रहे थे जब भाजपाई और कश्मीरी पंडितों के नेता टीकालाल टपलू की 14 सित. 1989 को दिनदहाड़े ह्त्या कर दी गई थी. अलगाववादियों को कश्मीर प्रशासन का ऐसा वरद हस्त प्राप्त रहा कि बाद में उन्होंने कश्मीरी पंडित और श्रीनगर के न्यायाधीश एन. गंजू की भी ह्त्या की और प्रतिक्रया होनें पर 320 कश्मीरी स्त्रियों,बच्चों और पुरुषों की ह्त्या कर दी थी. ऐसी कितनी ही ह्रदय विदारक, अत्याचारी और बर्बर घटनाएं कश्मीरी पंडितों के साथ घटती चली गई और दिल्ली सरकार लाचार देखती भर रही और उधर श्रीनगर की सरकार तो जैसे खुलकर इन आतताइयों के पक्ष में आ गई थी. इस पृष्ठभूमि में हिजबुल और जे के एल ऍफ़ का दुस्साहस बढ़ना स्वाभाविक ही था और वह निर्णायक तौर पर कश्मीरी पंडितों की दुकानों-घरों पर 24 घंटे में घाटी छोड़ देनें या मार दिए जानें की धमकी के नोटिस चस्पां करनें की हद तक बढ़ गया. इसके बाद जो हुआ वह एक दुखद,क्षोभ जनक,वीभत्स,दर्दनाक और इतिहास को दहला देनें वाले काले अध्याय के रूप में सामनें आया. अन्ततोगत्वा वही हुआ जो वहां के अलगाववादी, आतंकवादी हिजबुल और जेकेएलऍफ़ चाहते थे. कश्मीरी पंडित पूर्व की घटनाओं, घरों पर नोटिस चिपकाए जानें और बेहिसाब कत्लेआम से घबराकर 19 जन. 1990 को हिम्मत हार गए. फारुख अब्दुल्ला के कुशासन में आतंकवाद और अलगाववाद चरम पर आकर विजयी हुआ और इस दिन साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडित अपनें घरों, दुकानों, खेतों, बागो और संपत्तियों को छोड़कर विस्थापित होकर दर-दर की ठोकरें खानें को मजबूर हो गए. कई कश्मीरी पंडित अपनों को खोकर गए, अनेकों अपनों का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए, और हजारों तो यहाँ से निकल ही नहीं पाए और मार-काट डाले गए. विस्थापन के बाद का जो दौर आया वह भी किसी प्रकार से आतताइयों द्वारा दिए गए कष्टों से कम नहीं रहा कश्मीरी पंडितों के लिए. वे सरकारी शिविरों में नारकीय जीवन जीनें को मजबूर हुए. हजारों कश्मीरी पंडित दिल्ली, मेरठ, लखनऊ जैसे नगरों में सनस्ट्रोक से इसलिए मृत्यु को प्राप्त हो गए क्योंकि उन्हें गर्म मौसम में रहनें की आदत नहीं थी. पच्चीस वर्ष पूर्ण हुए किन्तु कश्मीरी पंडितों के घरों पर हिजबुल द्वारा नोटिस चिपकाए जानें से लेकर विस्थापन तक और विस्थापन से लेकर आज तक के समय में मानवाधिकार, मीडिया, सेमीनार, तथाकथित बुद्धिजीवी, मोमबत्ती बाज और संयुक्त राष्ट्र संघ सभी इस विषय में कमोबेश बोले या नहीं यह तो नहीं पता किन्तु इन कश्मीरी पंडितों की समस्या का कोई ठोस हल अब तक नहीं निकला यह पूरी दुनिया को पता है. ये सच से मूंह मोड़ने और शुतुरमुर्ग होनें का ही परिणाम है कि कश्मीरियों के साथ हुई इस घटना को शर्मनाक ढंग से स्वेक्च्छा से पलायन बताया गया! इस घटना को राष्ट्रीय मनावाधिकार आयोग ने सामूहिक नर संहार माननें से भी इंकार किया; ये घोर अन्याय और तथ्यों की असंवेदी अनदेखी है!! नरेन्द्र मोदी सरकार कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास हेतु प्रतिबद्ध है और वह इस प्रतिबद्धता को दोहराती रही है. दुर्योग है कि नमो को प्रधानमन्त्री बननें के बाद अवसर नहीं मिला. पहले कश्मीर में बाढ़ आ गई और फिर चुनाव आ गए जिससे कश्मीरी पंडितों का उनका संकल्प परवान नहीं चढ़ पाया किन्तु अब समय आ गया है. पच्चीस वर्षों के इस दयनीय, नारकीय और अपमानजनक अध्याय का अंत होना चाहिए अब. कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास हो, पुनर्प्रतिष्ठा हो, कश्मीरियत का पुनर्जागरण हो यह आशा और विश्वास है नरेंद्र मोदी से इस देश को.

 

 

 

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