क्या अब दिल्ली भी चलेगी देश के साथ? 

डा. विनोद बब्बर

दिल्ली एक बार फिर अपने भाग्य विधाताओं के द्वार पर पहुंच रही है। लोकतंत्र में मतदाता मशीन का बटन दबाने तक ही सही लेकिन निर्णायक होता है। यह भी सत्य है कि अगले पांच वर्षें तक उसकी सुनी जाए या न सुनी जाए लेकिन तकनीकी रूप से उसे भाग्य विधाता का दर्जा दिया जाता है। दिल्ली भारत का दिल है तो उसे मिनी भारत भी कहा जाता है  परंतु पिछले दो विधानसभा चुनावों में दिल्ली ने शेष भारत से बिल्कुल भिन्न फैसला देकर अद्वितीय हलचल उत्पन्न करते हुए मुख्य राजनैतिक दलों को जोरदार झटका दिया था।

एक बिल्कुल नई कार्यसंस्कृति का दावा करने वाले केजरीवाल से देश की जनता को बहुत आशाएं थी। इसीलिए दिल्ली के बादपंजाब में भी आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो गुजरात और गोवा में भी उसका प्रदर्शन अपेक्षा से बढ़कर रहा लेकिन दिल्ली में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान परिवर्तन के नायक बने केजरीवाल और उनकी टीम के सदस्यों ने जिस तरह मर्यादाओं को ताक पर रखा, उससे दिल्ली वालों को भारी निराशा का सामना करना पड़ रहा है । शराब घोटाले जैसे मामलों में अरविंद केजरीवाल उनके अभिन्न सहयोगी मनीष सिसोदिया, संजय सिंह तथा सत्येंद्र जैन को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। बार-बार जमानत की याचिका रद्द होने के बाद उच्चतम न्यायालय ने लोकसभा चुनाव के अवसर पर सशर्त जमानत दी जिसमें सचिवालय जाने तथा मुख्यमंत्री के रूप में किसी भी फाइल को देखने अथवा हस्ताक्षर करने पर रोक थी ।

केजरीवाल और उनकी पार्टी ने अपनी गिरफ्तारी को अवैध बताते हुए लोकसभा चुनाव में जनता से अपना भारी समर्थन देने की अपील की परंतु कांग्रेस के साथ गठबंधन के बावजूद सभी सातों सीटों पर बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। अदालत में सुनवाई के लंबे समय तक चलने के तर्क पर उन्हें तकनीकी आधार पर नियमित जमानत प्राप्त हुई, सशर्त । ऐसे में अरविंद केजरीवाल के लिए मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करना लगभग असंभव था। तेज तर्रार केजरीवाल ने यहाँ फिर दाँव खेलते हुए त्याग बलिदान की बातें करते हुए पद छोड़ आतिशी को डमी मुख्यमंत्री बनाया। वह लगातार इस बात पर जोर देते रहे कि चुनाव के बाद वह ही मुख्यमंत्री बनेगे। 

चुनाव के निकट उन्होंने महिलाओं को ₹ 2100 प्रति मास देने का वादा करते हुए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन का अभियान चलाया लेकिन दिल्ली की जागरूक महिलाओं ने उनसे यह जानना चाहा कि पिछले बजट में उन्होंने प्रति मास ₹ 1000 देने की जो घोषणा की थी, उसका क्या हुआ ? पंजाब में भी मई 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में भी इसी प्रकार का वादा अब तक लागू क्यों नहीं किया गया? अपनी सरकार होते हुए भी चुनाव के बाद स्वयं मुख्यमंत्री बनने पर पानी के बिल घटाने की बातें कर केजरीवाल उपवास का पात्र बन गए। 

पिछले कुछ समय से दिल्ली की सड़कों, नालियों तथा साफ सफाई की दशा बहुत खराब है। दिल्ली नगर निगम चुनाव में उन्होंने कूड़े के पहाड़ हटाने का वादा तो किया लेकिन अब लगभग हर कॉलोनी में कूड़े के ढेर दिखाई दे रहे हैं। विशेष रूप से अनधिकृत कॉलोनी में नारकीय स्थिति बनी हुई है। मुफ्त बिजली पानी की तस्वीर भी पूरी तरह से बदली हुई है क्योंकि बिजली पर तरह-तरह के सरचार्ज लगाए गए जिससे लगभग प्रत्येक व्यक्ति का बिल भी कई गुना बढ़ गया। वास्तविकता यह है कि केजरीवाल जी के तेवर में कोई कमी नहीं है लेकिन धरातल पर स्थित पूरी तरह से भिन्न होने के कारण उनके विधायकों को जनता का सामना करना भारी पड़ रहा है ।

हर  छोटी-बड़ी बात पर जनता से राय लेने का दिखावा करने वाला वह कथित नायक अपने व्यवहार में जिस तरह की मनमानी दिखाता रहा, उससे उसके अपने निष्ठावान कार्यकर्ता तक स्तब्ध है।  इस बार भी चुनाव में जिस तरह का टिकटों का वितरण हुआ है वह उनकी तथाकथित कट्टर ईमानदार की छवि पर प्रश्न चिन्ह लगता है। यह देश का दुर्भाग्य था कि राजनैतिक भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए निकला यह रथ नए प्रकार के भ्रष्ट आचरण का शिकार बनकर फुस हो गया। इतिहास ने जो मौका उन्हें दिया था उसे उन्होंने ‘ऐतिहासिक भूलों’ का बंधक बना दिया। जनलोकपाल की कसमें खाकर भूल जाना उनकी विश्वसनीयता को प्रभावित करता है। आशाएं जगाकर अपने ही अभियान की भ्रूणहत्या का ‘श्रेय’ किसी बाहरी शक्ति की बजाय उसके नायक को दिया जाना उचित ही है।

अपनी अयोग्यता से अधिक अपने अस्थिर स्वभाव के कारण पद छोड़कर ‘शहीद ’ बनने का प्रयास आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान कसौटी पर कसा जाएगा । लोकसभा चुनाव में सहयोगी रही कांग्रेस भी लगातार उन पर तंज कस रही है । शीला दीक्षित के सुपुत्र और पूर्व सांसद संदीप दीक्षित केजरीवाल के विरुद्ध नई दिल्ली से ताल ठोक चुके हैं तो कांग्रेस महासचिव अजय माकन ने तो केजरीवाल को देशद्रोही तक कह डाला, इसलिए इस बार का मुकाबला निश्चित रूप से पूर्व से भिन्न होने जा रहा है। नित्य नए मुद्दे घड़ने और अपनी असफलता दूसरों पर थोपने में माहिर केजरीवाल जी को इस बात का जवाब देना ही पड़ेगा कि वे सादगी की बात करते – करते शीशमहल निवासी होकर करोड़ों की बर्बादी वाले कैसे हुए? 

महिला सम्मान योजना और संजीवनी के नाम पर एक बार फिर वोट पाने की चाह लिए केजरीवाल जी की स्वयं की सरकार द्वारा विभिन्न समाचार पत्रों में यह सूचना प्रकाशित कराई है कि इस प्रकार की कोई योजना सरकार द्वारा अधिसूचित नहीं है अतः पंजीकरण और कार्ड जारी करने का अभियान अवैध है। लोगों को अपना डेटा देते हुए सावधानी बरतनी चाहिए।

अब जबकि विधान सभा चुनावों का बिगुल बज चुका है। ऐसे में प्रश्न यह है कि दिल्ली इस बार किस ओर जाएगी। देश में बह रही हवा जो अप्रत्याशित रूप से दिल्ली के पड़ोस तक पहुंच चुकी है. क्या दिल्ली की जनता के दिल-दिमाग में भी दस्तक देगी? क्या दिल्ली परिवर्तन के भटके नायक को अपनी भूल सुधारने का एक मौका देगी? क्या कांग्रेस को प्राणदान मिलगा? क्या फिर से दिल्ली का फैसला बंटा हुआ होगा? क्या देश का दिल कहे जानी वाली दिल्ली देश की धड़कन बनी रहेगी? संभावनाएं अनेक हो सकती है। अंतिम निर्णय चूंकि दिल्ली के प्रबुद्ध मतदाता को करना है इसलिए उससे विवेकपूर्ण फैसले की आपेक्षा सारा देश करता है।

इन चुनावों की सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि दो प्रमुख दलों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में अनेक बड़े चेहरे होते हुए भी किसी को भी सीएम फेस घोषित नहीं किया है। बहुत संभव है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा की कोई नया चेहरा सामने लाया जाए।  ‘आप’ के नेतृत्व को शिवसेना के हश्र से सबक सीखना चाहिए। केजरीवाल द्वारा अपने दल की मुख्यमंत्री आतिशी को बार बार अस्थाई (डमी) बताना आत्मघाती हो सकता है। स्वयं को मुख्यमंत्री बनाने की जिद्द केजरीवाल की छवि को दम्भी और अधिनायकवादी बनाती है। आज जिस तरह से कुछ विधायक चुनाव लड़ने से इनकार कर रहे है तो घोर समर्थक भी  पल्ला झाड़ रहे है, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है । यदि वास्तव में ही ऐसा है तो इसके लिए जिम्मेदार केवल और केवल अरविंद केजरीवाल स्वयं हैं। आज भी उनसे किसी दूसरे को आप का नेता घोषित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सत्ता केवल अपने ही हाथों में उनका छुपा नहीं, अभी तो खुला और प्रकट एजेंडा है जो उनके यश-कीर्ति को चट कर गया। ऐसे में यह भ्रम शायद ही किसी को हो कि उन्हें और उनके दल को दिल्ली की जनता पिछली बार जैसा या उससे अधिक स्नेह, सहयोग, समर्थन देगी। 

तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि इस बार भाजपा के लिए दिल्ली का चुनाव ‘केक वाक’ होने जा रहा है? इसमें कोई दो राय नहीं कि हरियाणा और महाराष्ट्र में अप्रत्याशित सफलता के बाद दिल्ली में भी भाजपा का मनोबल ऊंचा है लेकिन भाजपा को सफलता प्राप्त करनी है तो उसे सबसे पहले गुटबाजी से मुक्ति पानी होगी। दूसरे दलों के नकारे हुए नेताओं को अपने समर्पित कार्यकर्ताओं पर अधिमान देना उसे महंगा पड़ सकता है ! अपने कैडर को संगठित और सक्रिय बनाने के साथ-साथ कुछ लोक लुभावने वादे भी करने पड़ेंगे। साथ ही दिल्ली की जनता में यह विश्वास भी पैदा करना पड़ेगा कि वादे निश्चित रूप से पूरे होंगे । यह लगभग तय है कि विधानसभा के चुनाव केंद्रीय बजट के बाद होंगे, अतः केन्द्रीय बजट में मध्यम वर्ग को आयकर तथा जीएसटी में राहत देनी चाहिए अन्यथा भाजपा को अपने परंपरागत समर्थक वोट बैंक से खुले समर्थन की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। फिलहाल इंतजार है चुनाव आयोग के अगले कदम की. उसके बाद दिल्ली के मतदाता अपना फैसला दे।

डा. विनोद बब्बर

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