हे तात तुम अज्ञात में!

हे तात तुम अज्ञात में,

आते रहे मम गात में;

प्रश्वास और प्रकाश में,

हर कहर में मृदु महर में! 

मर्मर मुखर मुस्कान में,

जल पवन बसे फुहार में;

क्षिति क्षितिज मध्य प्रवास में,

दे वराभय निज गोद में! 

हर तंतु तुम तरजे रहे, 

गरजे कभी कोमल रहे;

सहला रहे बहला रहे,

दे राग कभी गबा रहे! 

बिठला कभी तुम ध्यान में, 

गुरु चक्र पर बैठे रहे;

चरणों की सेवा लगाके,

मम चक्र तंत्र फुरा दिए! 

सहलाया जब मैं अंग तव,

पुलकित प्रफुल्लित होगया;

‘मधु’ मन में आ तुम तन में छा, 

अद्वैत प्रकटे सृष्टि में! 

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’

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