हे तात तुम अज्ञात में,
आते रहे मम गात में;
प्रश्वास और प्रकाश में,
हर कहर में मृदु महर में!
मर्मर मुखर मुस्कान में,
जल पवन बसे फुहार में;
क्षिति क्षितिज मध्य प्रवास में,
दे वराभय निज गोद में!
हर तंतु तुम तरजे रहे,
गरजे कभी कोमल रहे;
सहला रहे बहला रहे,
दे राग कभी गबा रहे!
बिठला कभी तुम ध्यान में,
गुरु चक्र पर बैठे रहे;
चरणों की सेवा लगाके,
मम चक्र तंत्र फुरा दिए!
सहलाया जब मैं अंग तव,
पुलकित प्रफुल्लित होगया;
‘मधु’ मन में आ तुम तन में छा,
अद्वैत प्रकटे सृष्टि में!
गोपाल बघेल ‘मधु’