हर जीव है उल्लास में!

हर जीव है उल्लास में, 

प्रभु उर रहे सहवास में;

किंचित् कभी रह त्रास में,

रहता रमे रस रास में! 

जग ज्वार के मँझधार में,

सोहं सुधा पतवार में;

आनन्द लखता अधर में,

पृथ्वी परश प्रणिपात में! 

हर देह के विन्यास में,

हर देश देख प्रवास में;

हर काल की करुणा लखे,

कृति हर किसी प्रकृति चखे!

आल्ह्वाद स्वर सुर में मखे, 

आपात की द्विविधा मथे;

आलोक लख हर ही विधा,

आनन्द की सुषमा सुधा! 

अद्वैत की द्युति द्वैत लख,

भय में अभय शिव का निरख;

भव विभूति हिय में परखि,

‘मधु’ रहें सूक्ष्म लिबास में!

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’

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