हर जीव है उल्लास में,
प्रभु उर रहे सहवास में;
किंचित् कभी रह त्रास में,
रहता रमे रस रास में!
जग ज्वार के मँझधार में,
सोहं सुधा पतवार में;
आनन्द लखता अधर में,
पृथ्वी परश प्रणिपात में!
हर देह के विन्यास में,
हर देश देख प्रवास में;
हर काल की करुणा लखे,
कृति हर किसी प्रकृति चखे!
आल्ह्वाद स्वर सुर में मखे,
आपात की द्विविधा मथे;
आलोक लख हर ही विधा,
आनन्द की सुषमा सुधा!
अद्वैत की द्युति द्वैत लख,
भय में अभय शिव का निरख;
भव विभूति हिय में परखि,
‘मधु’ रहें सूक्ष्म लिबास में!
गोपाल बघेल ‘मधु’