मूर्तिपूजा और ओ३म् जय जगदीश हरे आरती

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मनमोहन कुमार आर्य

 dayanand

महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर विद्या की नगरी काशी के सभी पण्डित समुदाय को चुनाती दी थी कि मूर्तिपूजा अवैदिक है। वेदों में मूर्ति पूजा नहीं है। अतः मूर्तिपूजा वेदविहित होने से कर्तव्य नहीं है। काशी के सभी पण्डित मूर्तिपूजा करते कराते थे और भक्तों से दान दक्षिणा यथेष्ट लेते थे जिससे सुखपूर्वक उनका जीवनयापन होता था, अतः उनका कर्तव्य था कि वह मूर्ति पूजा को वेदों से साथ ही युक्ति तर्क से भी सिद्ध करें। इसके लिए 16 नवम्बर, 1869 को महर्षि दयानन्द का काशी नरेश राजा ईश्वरीनारायण सिंह की मध्यस्थता में काशी के दिग्गज 30 पण्डितों से एक समय में शास्त्रार्थ हुआ था जिसमें वह मूर्तिपूजा का कोई वैदिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये और आज 146 वर्ष व्यतीत होने पर भी वह इसे वेदों से सिद्ध नहीं कर सके हैं। यह महर्षि दयानन्द जी की दिग्विजय है। काशी में स्वामीजी ने 9 बार प्रवास किया और प्रत्येक बार प्रवास के आरम्भ में ही सभी सार्वजनिक स्थानों मन्दिरों आदि की दीवारों पर विज्ञापन चस्पा करा दिये कि यदि किसी के पास मूर्तिपूजा का कोई वैदिक प्रमाण हो या शास्त्रार्थ कराना चाहें तो वह लिखित शास्त्रार्थ के लिए नियम आदि पर सहमति देकर शास्त्रार्थ कर सकते हैं। स्वामीजी का पूरा जीवन चरित्र अनेक विद्वानों द्वारा लिखा हुआ उपलब्ध है जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय दिग्गज पण्डित यह जान मान चुके थे कि वेदों में मूर्ति पूजा नहीं है और इस कारण यह मूर्तिपूजा वेद वेदसम्मत शास्त्रीय कार्य नहीं है।

 

पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी स्वामी दयानन्द के विरोधी पक्ष में थे और मूर्तिपूजा तथा पौराणिक मान्यताओं का समर्थन करते थे। इसके साथ ही वह अंग्रेजों ईसाई मत के प्रचार प्रसार में उनके भी गुप्त रूप से सहयोगी थे। उन्होंने उनके लिए एक कविता भी लिखी थी जिसके बोल थे, “मानव तू ईसा ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल, ईसा मेरा राम रमैया, ईश्वर मेरा कृष्ण कन्हैया। उन्होंने अपने मन के विचारों का अन्यत्र वर्णन भी किया है जिसके अनुसार वह नास्तिक थे अर्थात् ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते थे। मृत्यु के दिन भी उन्होंने अपने जीवन को असफल कह कर पश्चाताप रोदन किया था। मृत्यु से कुछ दिन अथवा कुछ घण्टे पहले पं. कन्हैया लाल जी सम्पादक मित्र विलास को एक पत्र लिखा था जो कुछ दिन बाद ही उसमें प्रकाशित भी हो गया। उसमें उन्होंनें लिखा था—‘हमारी बड़ी भूल है कि हम इस वृद्धतर (बूढ़े हो चुके) धर्म को फिर युवा बनाने का उद्योग करें। हमने तो जगत् का भला करतेकरते जन्म खो दिया। घर के रहे घाट के। लाल जी ! अब तो कमर टूट गई। किस का उपदेश ! किस की सभा ! किस की यात्रा ! अब तो अपना ही खेल रचाएंगे, क्योंकि लोगों का खेल बहुत दिन खेल के कुछ फल पाया।

हिन्दुओं द्वारा गाई जाने वाली प्रसिद्ध आरती के लेखक यही पं. श्रद्धाराम जी है। सारा जीवन महर्षि दयानन्द का विरोध और मूर्तिपूजा का समर्थन करते रहे। और उन्होंने जो आरती पौराणिक जनता के लिए लिखी उसमें वह निराकार ईश्वर की उपासना करते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। आरती की पहली पंक्ति को लेते हैं—‘ओ३म् जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे, भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे। इस पंक्ति में वेद द्वारा बताये गये ईश्वर के निज नाम ओ३म् को आरम्भ में प्रयोग किया गया है। यहां हरे शब्द आरती के लिए है। जगदीश संसार का स्वामी होने के कारण उसे जगदीश कहते हैं। उस जगदीश से भक्त स्तुति कर कहता है कि वह ईश्वर हमारे सभी संकटों को क्षण भर में दूर करता है। इसी प्रकार से पूरी प्रार्थना आरती है। पौराणिक देवों ब्रह्मा, शिव, विष्णु, राम, कृष्ण अथवा किसी देवी अन्य देवता का नाम कहीं नहीं आया है। यह आरती मूर्तिपूजा की पोषक है और अवतारवाद की। महर्षि दयानन्द के विचारों को पुष्ट करने वाली क्या बढि़या पंक्ति आपने लिखीतुम पूरण परमात्म तुम अन्तरयामी, प्रभु तुम अन्तरयामी, पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी। यह पूरी आरती ही महर्षि दयानन्द जी के विचारों, मान्यताओं की समर्थक है। हमें तो यह महर्षि दयानन्द का जादू लगता है जो विपक्षी के सिर चढ़ कर बोला है। यह आरती पौराणिक मान्यतओं की समर्थक होकर वेद और महर्षि दयानन्द की मान्यतओं की समर्थक पोषक है। हमें यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति ने सारा जीवन महर्षि दयानन्द का विरोध किया, वह ईश्वर की स्तुति प्रार्थना के लिए जिस गीत वा आरती को लिख रहा तो कहीं तो उसे मूर्तिपूजा जिस कारण से वह अन्त तक महर्षि दयानन्द के विरोध के साथ उनको अपमानित करने का प्रयास करता रहा, उनका भी तो कहीं उल्लेख करता। यह या तो महर्षि दयानन्द का प्रभाव था या फिर ईश्वर ने उससे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। जो भी हो, इसे हम सत्यमेव जयते नानृतं और महर्षि दयानन्द की दिग्विजय के रूप में देखते हैं।

लेख को विराम देने से पूर्व हम यह कहना चाहते हैं कि ईश्वर के ध्यान समाधि के लिए योग दर्शन के अनुसार उपासना करनी चाहिये, यह तो सर्वोपरि सर्वोत्तम है। इसका ही आधुनिक सरल स्वरूप महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर ‘‘सन्ध्या उपासना पद्धति में प्रस्तुत किया है जिससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति होती है जिसका उल्लेख भी समर्पण मन्त्र में किया गया है। इस सन्ध्या उपासना का संसार में कोई विकल्प नहीं है जिसका महत्व काशी के शीर्ष विद्वान ने भी स्वीकार किया है। अतः सबको ईश्वरोपासना के लिए सन्ध्या को ईश्वर प्राप्ति, अच्छे स्वास्थ्य, सुखसम्पत्ति धमअर्थकाममोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रातः सायं अवश्य करना चाहिये।

 

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    • यदि “पाप हरो देव” का अर्थ यह लें कि ईश्वर अपने सच्चे भक्तो को भविष्य में किये जाने वाले पापो को करने से बचाता है, तो वैदिक विचारधारा से इसकी संगति लगती है। किसी भी भक्त व अन्य का किया हुआ कोई भी पाप अर्थात “कृत पाप” बिना उसका फल भोगे दूर नहीं होता है, यह वैदिक सत्य वैदिक सिद्धांत है। किये हुवे कर्म वा पाप पुण्यों के फल अवश्यमेव ही भोगने पड़ते हैं। धन्यवाद श्री शुभम जी।

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