हे ईश्वर! आप हमें भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति के लिए सद्बुद्धि प्रदान करें”

0
217

-मनमोहन कुमार आर्य

               परमात्मा ने मनुष्य को शरीर दिया है जिसमें अनेक बाह्य एवं आन्तरिक अंगप्रत्यंग हैं। इन अंगों में एक अंग बुद्धि भी है जिससे मनुष्य संकल्पविकल्प चिन्तनमनन करते हुए सत्य असत्य की समीक्षा करता है। संसार में ज्ञान दो प्रकार है जिसे हम सद्ज्ञान मिथ्याज्ञान कह सकते हैं। दोनों ज्ञान एक दूसरे के विरोधी होते हैं। सद्ज्ञान से मनुष्य सद्कर्म सदाचरण कर जीवन में उन्नति अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति को जानकर उसे प्राप्त करने के लिये उसके निकट पहुंचता जाता है जबकि मिथ्या अज्ञान उसे अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष, दुःखों से निवृत्ति आत्मा की उन्नति से दूर करता है। अज्ञान मनुष्य के पतन का साधन बनता है वहीं सद्ज्ञान मनुष्य की चहुंमुखी उन्नति का साधन होता है। सद्ज्ञान सत्संगति से तथा मिथ्या ज्ञान वा अज्ञान मनुष्य को कुसंगति से प्राप्त होता है। इस कारण से मनुष्य को अपनी संगति पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये। यदि हम अच्छे मित्रों व बुरे मित्रों में भेद नहीं करेंगे तो हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उन्नति के पथ पर आरूढ़ न होकर विपरीत दिशा में जा सकते हैं। यही कारण है कि मनुष्य को सत्साहित्य का सदैव अध्ययन करना चाहिये और मिथ्या अलाभकारी साहित्य उपन्यास, नाटक, हास्य व्यंग, नृत्य, नाना प्रकार के खेलकूद, सिनेमा, नाचगाने, अनावश्यक घूमनाफिरना आदि को अपने जीवन से दूर रखना चाहिये। हमें अपने मित्रों, वृद्ध-परिवार जनों सहित अपने आचार्यों व विद्वानों की शरण में जाकर सत्साहित्य की सूची बना लेनी चाहिये जिसको प्राप्त कर हमें उन ग्रन्थों का एक-एक करके अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है जिससे वह विद्वान, अच्छा वक्ता तथा परामर्शदाता बन सकता है। इसके साथ ही वह अपने जीवन में अज्ञान, अन्धविश्वासों व पाखण्डों सहित मिथ्या परम्पराओं के व्यवहार से भी बच जाता है। मनुष्य के स्वाध्याय के लिये वेद वा वेदभाष्य, दर्शन, उपनिषद, विशुद्ध मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं परन्तु इन सबसे पूर्व यदि ऋषि दयानन्द जी रचित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा ऋषि दयानन्द के पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द तथा डा. भवानीलाल भारतीय के रचित जीवन चरित्रों को पढ़ लिया जाये तो इनसे मनुष्य की आत्मा की उन्नति में बहुत सहायता मिलती है। हमारी दृष्टि में ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर श्री कृष्ण जी की ही तरह से अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सत्प्रेरणाओं से युक्त होने सहित जीवन में तप, त्याग व संघर्ष की प्रेरणा देने वाला है। इसके अतिरिक्त भी अनेक लाभ इसके अध्येता वा पाठक को होते हैं।

               मनुष्य की बुद्धि की श्रेष्ठता व उच्चता उसके भोजन व स्वास्थ्य पर भी निर्भर करती है। शुद्ध व पवित्र अन्न का प्रयोग करने से ही हमारे शरीर के सभी अंग तथा प्रत्यंग शुद्ध व स्वस्थ बनते हैं जिससे शारीरिक बल तथा बुद्धि दोनों को लाभ होता है। मनुष्य के लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन ही सबसे अधिक लाभदायक है। शाकाहारी भोजन में शुद्ध अन्न व उससे बने कम नमक, मिर्च तथा कम मसालों का भोजन ही अच्छा होता है। इसके साथ ही देशी गाय का दुग्ध, मौसम के फल, सूखे फल यथा बादाम, काजू, छुआरे, खोपा, किशमिश तथा अखरोट आदि भी स्वास्थ्य तथा बलवर्धक होते हैं। व्यायाम एवं प्राणायाम भी प्रत्येक मनुष्य को अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार अवश्य करना चाहिये। प्रातः भ्रमण के साथ समय पर रात्रि शयन तथा प्रातः ब्राह्म मुहुर्त में जागरण भी स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ बुद्धि के लिये आवश्यक है। प्रतिदिन स्नान करना तथा सन्ध्या व अग्निहोत्र भी करना चाहिये। इससे भी अनेक लाभ होते हैं। सन्ध्या करना मनुष्य को कृतघ्नता के पाप से बचाता है। यदि वैदिक विधि से प्रातः सायं सन्ध्या नहीं करते तो इससे मनुष्य ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतघ्नता का दोषी होता है। इसका ज्ञान ऋषि दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से हो जाता है। बुद्धिवर्धक आयुर्वेदिक औषधि ब्राह्मी बूटी तथा गोघृत आदि का प्रयोग भी किया जाना लाभप्रद होता है।

               मनुष्य जितनी चाहे उतनी भाषायें सीख सकता है परन्तु उसे हिन्दी और संस्कृत का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये। इसके लिये प्रयत्न करने आवश्यक है। इसका कारण यह है कि संस्कृत और हिन्दी में ही सभी प्रकार का महत्वपूर्ण आध्यात्मिक व सामाजिक साहित्य उपलब्ध है। यदि हमें संस्कृत और हिन्दी का ज्ञान होगा तो हम इन भाषाओं के साहित्य को पढ़कर लाभान्वित हो सकते हैं। कुछ मनुष्यों की स्मरण शक्ति अन्यों की तुलना में कमजोर देखी जाती है। इसे दूर करने के लिये भी शुद्ध भोजन, आसन, प्राणायाम, भ्रमण व ईश्वर के ध्यान आदि का उपाय ही स्मरण शक्ति को उन्नत बनाता है। हमारे धर्म व समाज संबंधी सभी ग्रन्थों में संयम व ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन का महत्व बताया गया है। ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म अर्थात् ईश्वर में विचरण करना तथा अपनी शारीरिक शक्तियों को किसी भी प्रकार से हानि न होने देना है। सन्ध्या, अग्निहोत्र, स्वाध्याय आदि से मनुष्य ब्रह्मचर्य युक्त जीवन जीने में सफलता प्राप्त करता है। सन्ध्या में सम्पूर्ण योग समाहित है। अतः योगदर्शन का अध्ययन कर उसके अनुसार ही सन्ध्या करनी चाहिये। प्रतिदिन प्रातः सायं ऋषि दयानन्द लिखित विधि के अनुसार ईश्वर की सन्ध्या वा ध्यान करना चाहिये। इन उपायों से मनुष्य की बुद्धि, स्मरण शक्ति तथा स्वास्थ्य उत्तम रहता है। विद्यार्थियों एवं युवाओं को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिये। ऐसा करके वह अपने जीवन में मनचाही सफलतायें प्राप्त कर सकते हैं।

               वैदिक धर्म में ओ३म् एवं गायत्री मन्त्र के अर्थ सहित जप का विधान है। ओ३म् ईश्वर का निज एवं मुख्य नाम है। इस नाम में ईश्वर के सभी नामों का समावेश है। इसका जप करने व इसके अनुरूप भावना करने से मनुष्य को लाभ होता है। ओ३म् का एक अर्थ सर्वरक्षक भी है। यदि हम ओ३म् का जप करते हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि हम सर्वव्यापक ईश्वर जो हमारे भीतर व बाहर उपस्थित है, उससे अपनी रक्षा की भी प्रार्थना कर रहे हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर निश्चय ही हमारी रक्षा करने के साथ हमें उत्तम बुद्धि से युक्त भी करते हैं। गायत्री मन्त्र का ऋषि दयानन्द कृत अर्थ सर्वश्रेष्ठ है। इस मन्त्र में परमात्मा से साधक व ध्याता की बुद्धि को धर्म, सत्य, कल्याण, श्रेय मार्ग में प्रेरित करने की प्रार्थना की जाती है। सर्वान्तर्यामी परमात्मा जप करने वाले ध्याता की प्रार्थना को पूरा करते हैं जिससे बुद्धि शुद्ध, पवित्र, निर्मल तथा सूक्ष्म विषयों के ग्रहण करने व समझने तथा उसे हृदयंगम करने में समर्थ होती है। इससे मनुष्य की उन्नति के सभी मार्ग खुल जाते हैं।

               भारत में पाश्र्व गायिका लता मुंग्गेश्वर जी का यश पूरे विश्व में व्याप्त है। हमने कई दशक पूर्व रेडियो पर उनका एक साक्षात्कार सुना था जिसमें उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय गायत्री मन्त्र को दिया था। उन्होंने बताया था कि बचपन में उनके पिता सभी बहनों को गायत्री मन्त्र का शुद्ध उच्चारण कराते थे। इससे उन्हें हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के कठिन गीतों को गाने में लाभ हुआ है। आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान यशस्वी संन्यासी महात्मा आनन्द स्वामी जी के बचपन की घटना भी अनेक विद्वान अपने व्याख्यानों में सुनाते हैं। घटना यह है कि बाल्यकाल में खुशहाल चन्द जी की बुद्धि व स्मरण शक्ति काफी कमजोर थी। खुशहाल चन्द महात्मा आनन्द स्वामी के पूर्वाश्रम का नाम था। खुशहाल चन्द जी अपने स्कूल के पाठ याद नहीं कर पाते थे और परीक्षा में फेल हो जाते थे। इससे उनके माता-पिता उन्हें डांटते थे। खुशहाल चन्द जी इस कारण दुःखी रहते थे। एक बार उनके ग्राम में स्वामी सर्वदानन्द जी आये। वह गांव से बाहर ठहरे। सन्तों की सेवा को अपना सौभाग्य मानने वाले खुशहाल चन्द जी के पिता ने उन्हें स्वामी जी को भोजन पहुंचाने को कहा। वह भोजन लेकर उनके गये। भोजन कराने के बाद स्वामी जी ने उनसे उनके मुर्झाये चेहरे का कारण पूछा? खुशहालचन्द जी ने अपनी स्मरण शक्ति की कमजोरी की कथा वर्णित कर दी। स्वामी जी ने उन्हें चिन्ता न करने को कहा। उन्होंने कहा कि तुम्हारी स्मरण शक्ति अब औरों से भी अधिक तीव्र हो जायेगी। तुम्हें गायत्री मन्त्र का जप करना है। स्वामी जी ने उन्हें एक कागज पर गायत्री मन्त्र अर्थ सहित लिखकर दिया और प्रातः व सायं उसके जप की प्रेरणा करते उसकी विधि उन्हें सिखाई। जप करने से खुशहाल चन्द जी की बुद्धि व स्मरण शक्ति में वृद्धि हुई। बताते हैं कि इसके बाद की परीक्षा में खुशहाल चन्द जी कक्षा में प्रथम आये। माता-पिता अपने पुत्र की इस उपलब्धि पर प्रसन्न थे। बाद में यही बालक आर्यसमाज का प्रसिद्ध एवं यशस्वी संन्यासी बना। गायत्री मन्त्र विषयक ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हो सकते हैं। प्रतिदिन सन्ध्या एवं अग्निहोत्र करने से भी मनुष्य का जीवन व उसके मन, बुद्धि सहित सभी ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्द्रियों को लाभ होता है।                हम अपने देश में लोगों का एक ही विषय में भिन्न-2 दृष्टिकोण देखते हैं। लोगों में मतैक्य न होना देश व समाज के लिये हानिकर होता है। अतीत में आर्य-हिन्दुओं का इसी मतभेद व आपस की फूट के कारण विनाश व पतन हुआ। इतना अपमान व पतन होने पर भी हमारे अपने बन्धुओं में कोई विशेष सुधार व परिवर्तन नहीं हुआ। ऋषि दयानन्द ने पतन के कारणों सहित उन्नति के उपायों वा साधनों पर सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में प्रकाश डाला है। हमारे देश के लोग उन पर ध्यान ही नहीं देते। सब मतों व पन्थों के बुद्धि को भ्रमित करने वाली मान्यताओं पर ही लोगों की आस्था है क्योंकि इसमें न स्वाध्याय करना होता है, न चिन्तन-मनन, न ऊहापोह और न सत्यासत्य की समीक्षा। ऐसे लोगों के बारे में ही कहा जाता है कि ज्ञानान्ध लोगों के पीछे चलने वाले अज्ञान के कुएं में स्वयं तो गिरते ही हैं अपने पीछे चलने वालों को भी गिराते हैं। वेद, शास्त्र तथा ऋषि दयानन्द का मार्ग ही मनुष्य को सन्मार्ग पर चलाता है। लेख को विराम देते हुए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें व हमारे सभी भगिनी-बन्धुओं को सद्बुद्धि प्रदान करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here