परिवर्तन की बात करना राजनेताओं और समाजसेवियों में प्रचलित एक फैशन है। इन दिनों ‘एक देश एक चुनाव’ की चर्चा गरम हैं। कुछ लोग इसके पक्ष में हैं, तो कुछ विपक्ष में। कुछ दलों और नेताओं को इसमें लाभ दिख रहा है, तो कुछ को हानि। अतः वे वैसी ही भाषा बोल रहे हैं; पर एक साथ चुनाव के समर्थकों के पास भी इसका कोई ठोस प्रारूप नहीं है। लगता है सबने ये काम नरेन्द्र मोदी पर ही छोड़ दिया है।
जहां तक परिवर्तन की बात है, तो वह लोकतन्त्र की मर्यादा में होना चाहिए। यद्यपि वर्तमान चुनाव प्रणाली भी पूर्णतया लोकतान्त्रिक है; पर भ्रष्टाचार, जातिवाद, मजहबवाद, क्षेत्रीयता, महंगाई, अनैतिकता और कामचोरी लगातार बढ़ रही है। इसका कारण यह दूषित चुनाव प्रणाली ही है। दुनिया में कई प्रकार की चुनाव प्रणालियां प्रचलित हैं। हमने उन पर विचार किये बिना उस ब्रिटिश प्रणाली को अपना लिया, जिसे गांधी जी ने ‘बांझ’ कहा था। अब तो इंग्लैंड में भी यदाकदा इसे बदलने और सांसदों की संख्या घटाने की बात उठती रहती है।
यदि आप किसी सांसद या विधायक से मिलें, तो वह अपने क्षेत्र की बिजली-पानी, सड़क और नाली की व्यवस्था में उलझा मिलेगा। यदि वह ऐसा न करे, तो अगली बार उसे वोट नहीं मिलेंगे। सरकार द्वारा बनायी गयी खर्च की सीमा चाहे जो हो; पर पैसा इससे कई गुना अधिक खर्च होता है। पार्टी तो उसे इतना देती नहीं। ऐसे में अधिकांश लोग इधर-उधर से धन जुटाते हैं। भारत में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार का मुख्य कारण यही है।
लोकसभा और विधानसभा का काम देश और प्रदेश के लिए नियम बनाना है; पर सांसद और विधायक यह नहीं करते। यह उनकी मजबूरी भी है। अतः इस चुनाव प्रणाली के बदले हमें भारत में ‘आनुपातिक या सूची प्रणाली’ का प्रयोग करना चाहिए। जर्मनी में यह प्रचलित है। इसमें प्रत्येक राजनीतिक दल को सदन की संख्या के अनुसार चुनाव से पहले अपने प्रत्याशियों की सूची चुनाव आयोग को देनी होगी। जैसे लोकसभा में 525 स्थान हैं, तो प्रत्येक दल 525 लोगों की सूची देगा। इसके बाद वह दल चुनाव लड़ेगा, व्यक्ति नहीं। चुनाव में व्यक्ति का कम, दल का अधिक प्रचार होगा। हर दल अपने विचार और कार्यक्रम जनता को बताएगा। इसके आधार पर जनता उस दल को वोट देगी।
चुनाव में जिस दल को जितने प्रतिशत वोट मिलेंगे, उसके उतने प्रतिशत लोग सूची में से क्रमवार सांसद घोषित कर दिये जाएंगे। यदि किसी एक दल को बहुमत न मिले, तो वह मित्र दलों के साथ सरकार बना सकता है। इस प्रणाली से चुनाव का खर्च बहुत घट जाएगा। इसमें उपचुनाव का झंझट भी नहीं है। किसी सांसद की मृत्यु या त्यागपत्र देने पर सूची का अगला व्यक्ति शेष समय के लिए सांसद बन जाएगा।
इस व्यवस्था से अच्छे, शिक्षित तथा अनुभवी लोग राजनीति में आएंगे। इससे जातीय समीकरण टूटेंगे। आज तो दलों को जातीय या क्षेत्रीय समीकरण के कारण कई बार दलबदलू या अपराधी को भी टिकट देना पड़ता है। उपचुनाव में सहानुभूति के वोट पाने के लिए मृतक के परिजन को इसीलिए टिकट दिया जाता है। सूची प्रणाली में ऐसा कोई झंझट नहीं है।
इसमें हर सांसद या विधायक किसी क्षेत्र विशेष का न होकर पूरे देश या प्रदेश का होगा। अतः उस पर किसी जातीय या मजहबी समीकरण के कारण सदन में किसी बात को मानने या न मानने की मजबूरी नहीं होगी। किसी भी प्रश्न पर विचार करते सबके सामने जाति, क्षेत्र या मजहब की बजाय पूरे देश या प्रदेश का हित होगा। इससे राजनीति में वही दल बचेंगे, जो पूरे देश के बारे में सोचते हैं। जाति, क्षेत्र या मजहब की राजनीति करने वाले दल तथा अपराधी, भ्रष्ट और खानदानी नेता समाप्त हो जाएंगे। उन्हें एक-दो सांसदों या विधायकों के कारण सरकार को बंधक बनाने का अवसर नहीं मिलेगा। अर्थात मजबूर की बजाय मजबूत सरकारें बनेंगी और राजनीति क्रमशः शुद्ध होती जाएगी।
पर ऐसे में जनता का प्रतिनिधि कौन होगा ? इसके लिए हमें जिला, नगर, ग्राम पंचायतों के चुनाव निर्दलीय आधार पर वर्तमान व्यवस्था की तरह ही कराने होंगे। इन लोगों का अपने क्षेत्र की नाली, पानी, बिजली और थाने से काम पड़ता है। इस प्रकार चुने गये जनप्रतिनिधि प्रदेश और देश के सदनों द्वारा बनाये गये कानूनों के प्रकाश में अपने क्षेत्र के विकास का काम करेंगे। ऊपर भ्रष्टाचार न होने पर नीचे की संभावनाएं भी कम हो जाएंगी। यद्यपि इससे कुछ समय के लिए सूची बनाने वाले बड़े नेताओं का प्रभाव बहुत बढ़ जाएगा; पर यदि वे जमीनी, अनुभवी और काम करने वालों को सूची में नहीं रखेंगे, तो जनता उन्हें ठुकरा देगी। अतः एक-दो चुनाव में व्यवस्था स्वयं ठीक हो जाएगी।
इस प्रणाली में नये दल का निर्माण, राष्ट्रीय या राज्य स्तर के दल की अर्हता, दलों की सदस्यता और आंतरिक चुनाव आदि पर निर्णय लेने के लिए चुनाव आयोग को कुछ और अधिकार देने होंगे। ‘‘एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाए’’ की तर्ज पर कहें, तो चुनाव प्रणाली बदलकर, चुनाव को सस्ता और जाति, क्षेत्र, मजहब आदि के चंगुल से मुक्त करने से देश की अनेक समस्याएं हल हो जाएंगी। बार-बार चुनाव होना भी उनमें से एक है। जब तक यह नहीं होता, तब तक मार्च और अक्तूबर के पहले सप्ताह को गांव से लेकर लोकसभा के चुनावों के लिए नियत किया जा सकता है। इससे समस्या का पूरी तरह समाधान तो नहीं होगा; पर कुछ राहत जरूर मिलेगी।
विजय कुमार