ओपिनियन पोलों का सच

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जगमोहन फुटेला 

ओपिनियन पोलों और उनकी विश्वसनीयता पे उठते रहे तमाम सवालों के बावजूद वे जारी हैं. चुनाव का मौसम है तो ओपिनियन पोल फिर हाज़िर हैं. पंजाब पे इंडिया टीवी-सी वोटर का ओपिनियन पोल कहता है कि पंजाब की कुल 117 में से शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन को भाजपा की सीटें पिछली बार से काफी कम होने के बावजूद पहले से कोई डेढ़ गुनी यानी साठ से अधिक और कांग्रेस को भी पहले से अधिक यानी 49 से 55 के बीच सीटें मिलेंगी. प्रकाश सिंह बादल के भतीजे और उनकी पार्टी से अलग हुए मनप्रीत बादल के सांझा मोर्चे को वो एक से तीन के बीच सीटें मिलती बता रहा है. सी-वोटर का तर्क है कि सांझा मोर्चा जितने भी वोट लेगा, कांग्रेस के काट के लेगा.

इसकी बात करेंगे. लेकिन पहले जान लें कि ये विश्लेषक सीटों का आंकड़ा 42 से 46 या 52 से 58 क्यों नहीं बताते. हमेशा पिछली और अगली दहाई को पकड़ के ही क्यों रखते हैं. इसे एक उदाहरण, एक घटना से समझें.

आंकड़े अक्सर मार्केट फोर्सेस तय करती हैं. जब भी कभी चुनाव आता है और जब भी स्टेक बहुत ऊंचे होते हैं तो विश्लेषकों की मौज हो जाती है. विश्लेषण अक्सर बेचे खरीदे जाते हैं. सभी पार्टियां करती कराती हैं. सब को पता है कि इसमें भयंकर फर्जीवाड़ा होता है. फिर भी सब कराती हैं. माना जाता है कि मतदाता का मन जीतने के लिए ये बहुत ज़रूरी है. और इसी लिए इसके लिए होते हैं मोटे बजट. इसी लिए जब भी चुनाव आता है तो मीडिया घरानों में उस बजट में से अपना हिस्सा हथियाने की होड़ मचती है. बहुत पहले से मार्केटिंग और सेल्स की टीम सक्रिय होती हैं. सम्पादकीय विभाग के लोगों से कहा जाता है कि वे धन देने का निर्णय करने वाले नेताओं से संपर्क करवाएं.

पंजाब की ही बात करें. सन 2002 के चुनाव में औरों की तरह एक चैनल ने पंजाब के दोनों प्रमुख दलों से संपर्क साधा. बात बनी कांग्रेस से. पार्टी को प्रेजेंटेशन दी गयी. बताया गया कि चैनल क्या क्या करेगा. कितने प्रोग्राम बनाएगा. क्या क्या स्टोरी ‘प्लांट’ कर सकता है. और ये भी कि ओपिनियन पोल के लिए उसके पास भी एक नामी गिरामी संस्था है.

डील हो गई. हालांकि ये इतनी कम रकम में थी कि उस से चैनल अपने कर्मचारियों को दस दिन का वेतन भी नहीं दे सकता था. पार्टी ने कहा उसके पास अपना ओपिनियन पोल है, वही चलाना पड़ेगा. पार्टी का ओपिनियन पोल उस को 117 में से 85 सीटें बता रहा था. ये आंकड़ा ज़मीनी सच्चाई से बहुत दूर था. चैनल ने जिस विश्लेषक को चुना था वो टीवी पे ये सब बोलने, बताने को तैयार नहीं हुआ. उसकी नई नई कंपनी थी. उसने कहा वो पैदा होने से पहले मरना नहीं चाहता. एक सर्वे उसका भी था. उसके खुद के आकलन के मुताबिक़ कांग्रेस को 59 से 63 सीटें ही मिल पा रहीं थीं. कांग्रेस नीचे आने तो तैयार नहीं. विश्लेषक ऊपर जाने को नहीं. पैसे ने जोर मारा. पैसों के दबाव में कुछ तो चैनल ने विश्लेषक को ऊपर खींचा. कुछ कांग्रेस को मनाया. कांग्रेस 85 से 75 पर आने को तैयार हो गई. वो भी 75 से 80 पे. लेकिन विश्लेषक अड़ गया. उसने कहा वो नीचे साठ का आंकड़ा नहीं छोड़ेगा. उसे मालूम था किस 60-62 के बीच सीटें तो कांग्रेस ले ही रही है. उसका खुद से तर्क ये था कि 69 बताने के बावजूद सीटें अगर बासठ वासठ आ गईं तो उसकी इज्ज़त बच जाएगी. सो बात आखिरकार 69-74 पे बन गई. 85 से नीचे लाने की कसर कांग्रेस को मतदान से पहले तीन दिन लगातार लाइव विश्लेषण प्रोग्राम देकर पूरी की गई.

ठीक इसी समय ‘आजतक’ ने वही 85 सीटों वाला ओपिनियन चलाया. 85 से लेकर 90 सीटें आती बताईं. बल्कि उसने एक काम और किया. उसने एक एग्ज़िट पोल भी किया. आप जानते ही होंगे एग्ज़िट पोल से मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ा करता. क्योंकि एक तो एग्ज़िट पोल असली मतदान के दिन और उस के साथ ही होता है और दूसरे उसका प्रसारण भी असल मतदान हो चुकने के बाद किया जाता है. एग्ज़िट पोल में आजतक ने कांग्रेस की सीट एक और बढ़ा दी. कहा कांग्रेस की 91 सीटें आएंगी. परिणाम जब आया तो 62 सीटों वाला विश्लेषक सही निकला. कांग्रेस इस से भी खुश थी. उसे दरअसल इतनी भी आने की उम्मीद नहीं थी. ‘आजतक’ अकाली-भाजपा गठबंधन को ‘मुकाबले से बाहर’ बताता रहा था. उस के मुताबिक़ अकाली-भजपा गठबंधन 18 से 20 सीटों के बीच सिमट के रह जाने वाला था. गठबंधन की सीटें आईं थीं इसके दुगने से भी ज्यादा.

आइये अब ज़रा इंडिया टीवी-सी वोटर के इस ताज़ा ओपिनियन पोल की बात भी कर लें. यशवंत देशमुख पुराने और अनुभवी सेफरालाजिस्ट हैं. आंकड़े धोखा दे सकते हैं. लेकिन अनुभव उनके साथ है. और वो हो तो आंकड़ों को अपने हिसाब से जोड़ा घटाया भी जा सकता है. हो सकता है उनका ये ओपिनियन पोल ठीक हो. मगर विरोधाभास इस में बहुत हैं. मिसाल के तौर पर वे कह रहे हैं कि कांग्रेस की सीटें पिछली बार की बजाय बढेंगी. कम से कम बीस प्रतिशत की बढ़ोतरी होती वे मान रहे हैं. मौजूदा अकाली-भाजपा सरकार के खिलाफ अगर एंटी-इन्कम्बैंसी फैक्टर नहीं है तो कांग्रेस की सीटें क्यों बढ़ रही हैं? और अगर सरकार के खिलाफ असंतोष है तो फिर उनकी भी बीस प्रतिशत के आस पास कैसे बढ़ रही हैं? दूसरे मनप्रीत बादल अकालियों से निकले हैं. अकाली विचारधारा के साथ रहे हैं. उनकी निजी नाम प्रभाव भी उनके उस इलाके में ही ज्यादा है जो कांग्रेसियों का गढ़ कभी नहीं रहा है तो फिर वे नुक्सान कांग्रेस को क्यों पंहुचा रहे हैं? यशवंत का सर्वे कहीं से कहीं तक इस सवाल का जवाब नहीं देता कि सुखबीर बादल की अध्यक्षता वाला अकली दल अगर अब फिर मतदाताओं की पहली पसंद है तो अकाली-भाजपा गठबंधन ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का जोखिम क्यों नहीं उठाया?

चलिए, सिरखपाई क्यों करें. जब तय हो ही चुका है कि आंकड़ों में हो न हो, पैसे में बहुत दम होता है. पैसे अकाली दल के पास भी बहुत हैं. और ये तय है कि अगर इस बार अकाली दल की सरकार न बनी तो फिर सुखबीर बादल को अगली बार तो भाजपा भी मुख्यमंत्री नहीं होने देगी. ठीक वैसे, जैसे उसने खुद चार सीटों पे सिमट जाने के जोखिम पर भी हरियाणा में चौटाला को नहीं होने दिया है. प्रकाश सिंह के बाद सुखबीर बादल के रूप में पूरी एक और पीढ़ी तक पंजाब में कांग्रेस का विकल्प होने का इंतज़ार वो क्यों करेगी?

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